Saturday, 28 February 2009

कृपा प्रसाद तव श्री रघुनंदन

उर में अमी का अभिनव मंथन
भ्रमर वृंद का गुंजन वंदन
"कल्पना" का कुसमित उपवन
विकसे व्यथित "विदग्ध" सुमन
प्रफुलित चातक का चिर चिंतन
चितवत स्वाति नक्षत्र नयन
विवेक वृष्टि का नित नववर्धन
कृपा प्रसाद तव श्री रघुनंदन


ये उद्गार हैं मित्र संतोष मिश्रा जी के , जो उन्होंने "कौआ कान ले गया" पढ़कर लिख भेजे है .

2 comments:

डा ’मणि said...

सादर अभिवादन विवेक जी
पहले तो हिन्दी ब्लोग के नये साथियो मे आपका ढेर स्वागत , फ़िर आपकी रचना के लिये बधाई
और फ़िर असीम शुभकामनाओ सहित


तीन मुक्तक होली पर

लगें छलकने इतनी खुशियां , बरसें सबकी झोली मे
बीते वक्त सभी का जमकर , हंसने और ठिठोली मे
लगा रहे जो इस होली से , आने वाली होली तक
ऐसा कोई रंग लगाया , जाये अबके होली मे



नजरें उठाओ अपनी सब आस पास यारों
इस बार रह न जाये कोई उदास यारों
सच मायने मे होली ,तब जा के हो सकेगी
जब एक सा दिखेगा , हर आम-खास यारों

और

मौज मस्ती , ढेर सा हुडदंग होना चाहिये
नाच गाना , ढोल ताशे , चंग होन चाहिये
कोई ऊंचा ,कोई नीचा , और छोटा कुछ नही
हर किसी का एक जैसा रंग होना चाहिये




शुभकामनाओ सहित
डा. उदय मणि
http://mainsamayhun.blogspot.com

Doobe ji said...

vivek ji namaskar apki pustak kaua kan le gaya padna chahta hoon kahan milegi kripya batayen kyonki man mein ye sawal hai ki kaua KAN hi kyun le gaya koi aur ang kyon nahi..........regards