बुद्धि से सोचें जरा
प्रो.सी. बी. श्रीवास्तव "विदग्ध"
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बने भवनो को न तोड़ें बुद्धि से सोचें जरा
निर्माण सारा व्यैक्तिक से ज्यादा राष्ट्रीय है संपदा
पेड़ हो कोई कहीं भी सबको देता आसरा
क्या उचित उसको मिटाना जो सघन सुखप्रद हरा ?
समझें कितनी मुश्किलों से खड़ी होती झोपड़ी
वर्षो की मेहनत से हो पाता कोई सपना हरा
काटकर के पेट कोई कुछ जुटा पाता है धन
ऐसे हर पैसे में होता मन का प्यारा रंग भरा
तोड़ घर परिसर निरर्थक वैद्यता कि नाम पर
व्यक्ति औ" सरकार दोनो का ही है अनहित बड़ा
नष्ट कर संपत्ति को शासन तो कुछ पाता नहीं
पर दुखी परिवार हो जाता सदा को अधमरा
ढ़हाना निर्मित भवन का कत्ल जैसा पाप है
उचित कह सकता इसे है सिर्फ कोई सिरफिरा
तोड़ना धन श्रम समय का राष्ट्रीय नुकसान है
जिससे व्यक्ति समाज रहता सदा डरा डरा
जोश में आदेश तो हो जाते शासन के मगर
जख्म पीड़ित जनो का जीवन भर न जाता भरा
नया हर निर्माण नियमित राष्ट्र का उत्कर्ष है
ध्वस्त करके सृजन का अपमान करना है बुरा
दण्ड दें उन व्यक्तियो को जो हैं मर्यादित नही
तोड़ना निर्मित घरो को है नही निर्णय सही
तोड़कर निर्माण दी जाती सजा निर्दोष को
जीने का अधिकार उनका जाता क्यो नाहक हरा
बिल्डरो की गलतियो का अर्थदण्ड उनको ही दें
लिप्त यदि अधिकारी हों तो उनसे जाया धन भरा
नागरिक को खाने रहने जीने का मौलिक अधिकार है
उन्हें दुख देना नहीं है न्याय स्वस्थ परंपरा
बने भवनो को न तोड़ें शांति से सोचें जरा
अनैतिकता तो बुरी है पर नही कोई घर बुरा
बुरा है अपराध पर अपराधी को तक देते क्षमा
उचित है अपराध पकड़ो मत करो घर से घृणा
1 comment:
bahut achha likha hai aapne har aam aadmi ka yahi sochna hai ...par todh for ke baad ka dard dekhne wala koi nahi yahn......
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