तकनीक के माध्यम के रूप मे हिंदी की उपयुक्तता
विवेक रंजन श्रीवास्तव,
ओ.बी. 11 एमपीईबी कालोनी
रामपुर जबलपुर
राष्ट्र की प्रगति मे तकनीकज्ञो का महत्वपूर्ण स्थान होता है। सच्ची प्रगति के लिये इंजीनियर का राष्ट्र की मूल धारा से जुडा होना अत्यंत आवष्यक है। आज तकनीकी का माध्यम अंग्रेजी हैै। इस तरह अपने अभियंताओं पर अंग्रेजी थोप कर हम उन्हें न केवल जन सामान्य से एवं उनकी समस्याओं से दूर कर रहे है वरन अपने अभियंताओं एवं वैज्ञानिको को पष्चिमी राष्ट्रो का रास्ता भी दिखा रहे है।
अंग्रेजी क्यो! के जवाब मे कहा जाता है कि यदि हमने अंग्रेजी छोड दी तो हम दुनिया से कट जायेगें। किंतु क्या रूस, जर्मनी, फ्रंास, जापान, चीन इत्यादि देष वैज्ञानिक प्रगति मे किसी से पीछे है। क्या ये राष्ट्र विष्व के कटे हुये है। इन राष्ट्रो मे तो तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी षिक्षा उनके अपनी राष्ट्रभाषा मे होती है। अंग्रेजी मे नहीं।
वास्तव मे विष्व संपर्क के लिये केवल कुछ बडे राष्ट्रीय संस्थान एवं केवल कुछ वैज्ञानिक व अभियंता ही जिम्मेदार होते है जो उस स्तर तक पहुचंते पहुंचते आसानी से अंग्रेजी साीख सकते हेै। किंतु हम व्यर्थ ही सारे विद्यार्थियों को उनके अमूल्य 6 वर्ष एक सर्वथा नई भाषा सीखेने मे व्यस्त रखते है। दुनिया के अन्य राष्ट्रो की तुलना मे भारत से कही अधिक संख्या मे इंजीनियर्स तथा वैज्ञानिक विदेषो मे जाकर बस जाते है। इस पलायन का एक बहुत बडा कारण उनका अंग्रेजी मे प्रषिक्षण भी है।
हिंदी को कठिन बताने के लिये प्रांय रेल के लिये लौेहपथगामनी जैसे शब्देा के गिने चुने उदाहरण लिये जाते है। हिंदी ने सदा से दूसरी भाषाओ को आत्मसात किया है। अतः ऐसे कुछ शब्द नागरी लिपि मे लिखते हुये हिंदी मे यथावत अपनाये जा सकते है। हिंदी शब्द तकनीक के लिये यदि अंग्रेजी वर्णमाला का प्रयोग करे तो हम अंग्रेजी अनुवाद टेक्नीक के बहुत निकट है। इसी तरह संत के लिये सेंट, अंदर के लिये अंडर, नियर के लिये निकट जैसे ढेरो उदाहरण है। शब्दो की उत्पत्ति के विवाद मे न पडकर यह कहना उचित है कि हिंदी क्लिष्ट नही है।
हमने एक गलत धारणा बना रही है कि नई तकनीक के जनक पष्चिमी देष ही होते है। यह सही नही है। पुरातन ग्रंथो मे भारत विष्व गुरू के दर्जे पर था। हमारे वैज्ञानिको एवं तकनीकज्ञो मे नवीन अनुसंधान करने की क्षमता है। तब प्रष्न उठता है कि क्यो हम अंग्रेजी ही अपनाये। क्यो न हम दूसरो की अन्वेषित तकनीक के अनुकरण की जगह अपनी क्षेत्रीय स्थितियों के अनुरूप स्वंय की जरूरतो के अनुसार स्वंय अनुसंधान करे जिससे उसे सीखने के लिये दूसरो को हिंदी अपनाने की आवष्यकता महसूस हो।
जब अत्याधुनिक जटिल कार्य करने वाले कप्यूटरर्स की चर्चा होती है तो आम आदमी की भी उनमे सहज रूचि होती है एवं वह भी उनकी कार्यप्रणाली समझना चाहता है। किंतु भाषा का माध्यम बीच मे आ जाता है और जन सामान्य वैज्ञानिक प्रयोगो को केवल चमत्कार समझ कर अपनी जिज्ञासा शांत कर लेता है। इसकी जगह यदि इन प्रयोगो की विस्तृत जानकारी देकर हम लोगो की जिज्ञासा को और बढा सके तो निष्चित ही नये नये अनुसंधान को बढावा मिलेगा। इतिहास गवाह है कि अनेक ऐसे खोजे हो चुकी है जो विज्ञान के अध्येताओ ने नही किंतु आवष्यकता के अनुरूप अपनी जिज्ञासा के अनुसार जनसामान्य ने की है।
यह विडंबना है कि ग्रामीण विकास के लिये विज्ञान जैसे विषयो पर अंग्रेजी मे बडी बडी संगोष्ठिया तो होती है किंतु इनमे जिनके विकास की बाते होती है वे ही उसे समझ नही पाते। मातृभाषा मे मानव जीवन के हर पहलू पर बेहिचक भाव व्यक्त करने की क्षमता होती है। क्योंकि बचपन से ही व्यक्ति मातृभाषा मे बोलता पढता लिखता और समझता है। फिर विज्ञान या तकनीक ही मातृभाषा मे नही समझ सकता ऐसा सोचना नितांत गलत है।
आज हिंदी अपनाने की प्रक्रिया का प्रांरभ एक 10 -20 पन्नो की त्रैमासिक या छैमाही पत्रिका के प्रारंभ से होता है जो दो चार अंको के बाद साधनो के अभाव मे बंद हो जाती है। यदि हम हिंदी अपनाने के इस कार्य के प्रति ऐसे ही उदासीन रहे तो भावी पीढिया हमे क्षमा नही करेगी। हिंदी अपनाने के महत्व पर भाषण देकर या हिंदी परिषद के कार्यक्रमो मे हिंदी दिवस मनाकर हिंदी के प्रति हमारे कर्तव्यो की इतिश्री नही हो सकती। हमे सच्चे अर्थो मे प्रयोग के स्तर पर हिंदी को अपनाना होगा। तभी हम मातृभाषा हिंदी को उसके सही मुकाम पर पहुंचा पायेगें।
हिंदी ग्रथ अकादमी हिंदी मे तकनीकी साहित्य छापती है। बडी बडी प्रदर्षनिया इस गौरव के साथ लगाई जाती है कि हिंदी मे तकनीकी साहित्य उपलब्ध है। किंतु इन ग्रंथो का कोई उपयोग नही करता। यहाॅ तक की इन पुस्तको के दूसरे संस्करण तक छप नही पाते। क्योंकि विष्वविद्यालयो मे तकनीकी का माध्यम अंग्रेजी ही है। यह स्थिति निराषाजनक है। हिंदी को प्रांय सामम्प्रदायिकता क्षेत्रीयता एवं जातीयता के रंग मे रंगकर निहित स्वार्थेो वाले राजनैतिक लोग भाषाई धु्रवीकरण करके अपनी रोटिया सेकते नजर आते है। हमे एक ही बात ध्यान मे रखनी है कि हम हिंदुस्तानी है। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है यदि राष्ट्रीयता की मूल भावना से हिंदी को अपनाया जावेगा तो यही हिंदी राष्ट्र की अखंडता और विभिन्नता मे एकता वाली हमारी संस्कृति के काष्मीर के कन्याकुमारी तक फैले विभिन्न रूपो को परस्पर पास लाने मे समर्थ होगी।
यही हिंदी भारतीय ग्रामो के सच्चे उत्थान के लिये नये विज्ञान और नई तकनीक को जनम देगी। हमे चाहिये कि एक निष्ठा की भावना से कृतसंकल्प होकर व्यवहारिक दृष्टिकोण से हिंदी को अपनाने मे जुट जावे। अंग्रेजी के इतने गुलाम मत बनिये कि कल जब आप हिंदी की मांग करने निकले तो चिल्लाये कि वी वांट हिंदी।
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