पुस्तकचर्चा
पारा पारा (उपन्यास )
लेखिका.. प्रत्यक्षा
राजकमल पेपरबैक्स
संस्करण २०२२ , मूल्य २५०रु , पृष्ठ २३०
"मैं इन्हीं औरतों की कड़ी हूँ
। मुझमें मोहब्बत और भय समुचित मात्रा में है । मैं आज़ाद होना चाहती हूँ, इस शरीर से, इस मन से , मैं सिर्फ़ मैं बनना चाहती हूँ, अपनी मर्जी की मालिक, अपने फ़ैसले लेने की अधिकारी, चाहे ग़लत हो सही, अपने तरीके से जीवन जीने की आज़ादी । किसी भी शील से परे। किसी में टैग के परे । मैं अच्छी औरत बुरी औरत नहीं बनना चाहती। मैं सिर्फ़ औरत रहना चाहती हूँ, जीवन शालीनता से जीना चाहती हूँ, दूसरों को दिलदारी और समझ देना चाहती हूँ और उतना ही उनसे लेना चाहती हूँ। मैं नहीं चाहती कि किसी से मुझे शिक्षा मिले, नौकरी मिले, बस में सीट मिले, क्यू में आगे जाने का विशेष अधिकार मिले। मैं देवी नहीं बनना चाहती, त्याग की मूर्ति नहीं बनना चाहती, अबला बेचारी नहीं रहना चाहती। मैं जैसा पोरस ने सिकन्दर को उसके प्रश्न “तुम मुझसे कैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हो" के जवाब में कहा था, "वैसा ही जैसे एक राजा किसी दूसरे राजा के साथ रखता है, " बस ठीक वैसा ही व्यवहार मेरी आकांक्षाओं में है, जैसे एक पुरुष दूसरे पुरुष के साथ रखता है जैसे एक स्त्री दूसरी स्त्री के साथ रखती है, जैसे एक इनसान किसी दूसरे इनसान के साथ पूरी मानवीयता में रखता है।मैं दिन-रात कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहती। मैं दिन-रात अपने को साबित करते रहने की जद्दोजहद में नहीं गुजारना चाहती। मैं अपना जीवन सार्थक तरीक़े से अपने लिए बिताना चाहती हूँ, एक परिपूर्ण जीवन जहाँ परिवार के अलावा ख़ुद के अन्तरलोक में कोई ऐसी समझ और उससे उपजे सुख की नदी बहती हो, कि जब अन्त आए तो लगे कि समय जाया नहीं किया, कि ऊर्जा व्यर्थ नहीं की, कि जीवन जिया।मैं प्रगतिशील कहलाने के लिए पश्चिमी कपड़े पहनूँ, गाड़ी चलाऊँ, सिगरेट शराब पियूं देर रत आवारागर्दी करुं ऐसे स्टीरियो टाइप में नहीं फसंना चाहती। “ … पारा पारा से ही
। मुझमें मोहब्बत और भय समुचित मात्रा में है । मैं आज़ाद होना चाहती हूँ, इस शरीर से, इस मन से , मैं सिर्फ़ मैं बनना चाहती हूँ, अपनी मर्जी की मालिक, अपने फ़ैसले लेने की अधिकारी, चाहे ग़लत हो सही, अपने तरीके से जीवन जीने की आज़ादी । किसी भी शील से परे। किसी में टैग के परे । मैं अच्छी औरत बुरी औरत नहीं बनना चाहती। मैं सिर्फ़ औरत रहना चाहती हूँ, जीवन शालीनता से जीना चाहती हूँ, दूसरों को दिलदारी और समझ देना चाहती हूँ और उतना ही उनसे लेना चाहती हूँ। मैं नहीं चाहती कि किसी से मुझे शिक्षा मिले, नौकरी मिले, बस में सीट मिले, क्यू में आगे जाने का विशेष अधिकार मिले। मैं देवी नहीं बनना चाहती, त्याग की मूर्ति नहीं बनना चाहती, अबला बेचारी नहीं रहना चाहती। मैं जैसा पोरस ने सिकन्दर को उसके प्रश्न “तुम मुझसे कैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हो" के जवाब में कहा था, "वैसा ही जैसे एक राजा किसी दूसरे राजा के साथ रखता है, " बस ठीक वैसा ही व्यवहार मेरी आकांक्षाओं में है, जैसे एक पुरुष दूसरे पुरुष के साथ रखता है जैसे एक स्त्री दूसरी स्त्री के साथ रखती है, जैसे एक इनसान किसी दूसरे इनसान के साथ पूरी मानवीयता में रखता है।मैं दिन-रात कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहती। मैं दिन-रात अपने को साबित करते रहने की जद्दोजहद में नहीं गुजारना चाहती। मैं अपना जीवन सार्थक तरीक़े से अपने लिए बिताना चाहती हूँ, एक परिपूर्ण जीवन जहाँ परिवार के अलावा ख़ुद के अन्तरलोक में कोई ऐसी समझ और उससे उपजे सुख की नदी बहती हो, कि जब अन्त आए तो लगे कि समय जाया नहीं किया, कि ऊर्जा व्यर्थ नहीं की, कि जीवन जिया।मैं प्रगतिशील कहलाने के लिए पश्चिमी कपड़े पहनूँ, गाड़ी चलाऊँ, सिगरेट शराब पियूं देर रत आवारागर्दी करुं ऐसे स्टीरियो टाइप में नहीं फसंना चाहती। “ … पारा पारा से ही
न्यूयार्क में भारतीय एम्बेसी में प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन और झिलमिल-अमेरिका द्वारा आयोजित कार्यक्रम में अनूप भार्गव Anoop Bhargava जी के सौजन्य से पारा पारा की लेखिका प्रत्यक्षा Pratyaksha जी से साक्षात्कार करने का सुअवसर मिला। नव प्रकाशित पारा पारा पर केंद्रित आयोजन था. पारा पारा पर तो बातचीत हुई ही ब्लॉगिंग के प्रारम्भिक दिनो से शुरू हो कर प्रत्यक्षा के कविता लेखन , चित्रकारी , कहानियों और उनके पिछले उपन्यासो पर भी चर्चा की। समीक्षा के लिए प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन के सौजन्य से पारा पारा की प्रति प्राप्त हुई। मैनें पूरी किताब पढ़ने का मजा लिया। मजा इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि प्रत्यक्षा की भाषा में कविता है। उनके वाक्य विन्यास , गद्य व्याकरण की परिधि से मुक्त हैं। स्त्री विमर्श पर मैं लम्बे समय से लिख पढ़ रहा हूँ , पारा पारा में लेखिका ने शताब्दियों का नारी विमर्श , इतिहास , भूगोल , सामाजिक सन्दर्भ , वैज्ञानिकता , आधुनिकता ,हस्त लिखित चिट्ठियो से ईमेल तक सब कुछ काव्य की तरह सीमित शब्दों में समेटने में सफलता पाई है। उनका अध्ययन , अनुभव , ज्ञान परिपक्व है। वे विदेश भ्रमण के संस्मरण , संस्कृत , संस्कृति , अंग्रेजी , साहित्य , कला सब कुछ मिला जुला अपनी ही स्टाइल में पन्ने दर पन्ने बुनती चलती हैं। उपन्यास के कथानक तथा कथ्य मे पाठक वैचारिक स्तर पर कुछ इस तरह घूमता , डूबता उतरता रहता है , मानो हेलोवीन में घर के सामने सजाये गए मकड़ी के जाले में फंसी मकड़ी हो। उपन्यास का भाषाई प्रवाह , कविता की ठंडी हवा के थपेड़े देता पाठक के सारे बौद्धिक वैचारिक द्वन्द को पात्रों के साथ सोचने समझने को उलझाता भी है तो धूप का एक टुकड़ा नई वैचारिक रौशनी देता है , जिसमे स्त्री वस्तु नहीं बनना चाहती , वह आरक्षण की कृपा नहीं चाहती , वह सिर्फ स्त्री होना चाहती है । स्त्री विमर्श पर पारा पारा एक सशक्त उपन्यास बन पड़ा है। यह उपन्यास एक वैश्विक परिदृश्य उपस्थित करता है। इसमें १८७४ का वर्णन है तो आज के ईमेल वाले ज़माने का भी। स्त्री की निजता के सामान टेम्पून का वर्णन है तो रायबहादुर की लीलावती के जमाने और बालिका वधु नन्ना का भी। रचना में कथा , उपकथा , कथ्य ,वर्णन , चरित्र , हीरो , हीरोइन, रचना विन्यास , आदि उपन्यास के सारे तत्व प्रखरता से मौजूद मिलते हैं। प्रयोगधर्मिता है शैली , में और अभिव्यक्ति में, लेखन की स्टाइल में भाषा और बुनावट में ।
मैंने उपन्यास पढ़ते हुए कुछ अंश अपने पाठको के लिए अंडरलाइन किये हैं जिन्हें यथावत नीचे उदृत कर रहा हूँ।
“..... और इस तरह वो माँ पहले बनीं, बीवी बनने की बारी तो बहुत बाद में आई । विवाह के तुरंत बाद किसी ज़रूरी मुहिम पर राय बहादुर निकल गए थे। किसी बड़ी ने बताया था किस तरह रोता बालक बहू की गोद में चुपा गया था। इस बात की आश्वस्ति पर तसल्ली कर वो निकल पड़े थे। घर में मालकिन है इस बात की तसल्ली।”
“...... एक बार उसने मुझे कहा था-
"To take a photograph is to align the head, the eye and the heart. It's a way of life." वो सपने में हमेशा मुस्कुराते दिखते हैं। तस्वीरों में नहीं।
अच्छी तस्वीर लेना उम्दा ज़िन्दगी जीने जैसा है दिल-दिमाग़ और आँख सब एक सुर में...वो सपने में ऐसे ही दिखते हैं। हँसते हुए भी नहीं, उदास भी नहीं और थोड़ा गहरे सोचने पर, शायद मुस्कुराते हुए भी नहीं । “
इन पैराग्राफ्स मे आप देख सकते हैं कि प्रत्यक्षा के वाक्य गद्य कविता हैं। उनकी अभिव्यक्ति में नाटकीयता है , लेखन हिंदी अंग्रेजी सम्मिश्रित है।
इसी तरह ये अंश पढ़िए। …
“ मैं निपट अकेली अपने भारी-भरकम बड़े सूटकेस और डफल बैग के साथ सुनसान स्टेशन पर अकेली रह गई थी, हिचकिचाहट दुविधा और घबड़ाहट में।
लम्बी फ़्लाइट ने मुझे थका डाला था और रात के ग्यारह बज रहे थे। सामान मेरे पैरों के सामने पड़ा था और मुझे आगे क्या करना है की कोई ख़बर न थी। मैं जैसे गुम गई थी। अनजान जगह, अनजान भाषा किस शिद्दत से अपने घर होना चाहती थी अपने कमरे में। एक पल को मैंने आँखें मूँद ली थीं। अफ्रीकी मूल के दो लड़के मिनियेचर एफिल टावर बेच रहे थे, की-रिंग और बॉटल ओपनर और तमाम ऐसी अल्लम-गल्लम चीजें जो टूरिस्ट न चाहते हुए भी यादगारी के लिए ख़रीद लेते हैं। अचानक मुझे किसी दोस्त की चेतावनी याद आई, ऐसे और वैसे लोगों से दूर रहना, ठग ली जाओगी। या रास्ते की जानकारियाँ सिर्फ़ बूढ़ी औरतों से पूछना और अपने वॉलेट और पासपोर्ट को पाउच में कपड़ों में छुपाकर चलना । मैं यहाँ अनाथ थी। कोई अपना न था, मेरे सर पर कोई छत न थी। “
भले ही प्रत्यक्षा ने पारा पारा को हीरा , तारा , लीलावती , कुसुमलता , भुवन , जितेन , निर्मल , तारिक , नैन , अनुसूया वगैरह कई कई पात्रों के माध्यम से बुना है , और हीरा उपनयास की मुख्य पात्र हैं। पर जितना मैंने प्रत्यक्षा को थोड़ा बहुत समझा है मुझे लगता है कि यह उनकी स्वयं की कहानी भले ही न हो पर पात्रों की अभिव्यक्ति मे वे खुद पूरी तरह अधिरोपित हैं। उनके व्यक्तिगत अनुभव् ही उपन्यास के पात्रों के माध्यम से सफलता पूर्वक सार्वजनिक हुए हैं। लेखिका के विचारों का , उनके अंतरमन का ऐसा साहित्यिक लोकव्यापीकरण ही रचनाकार की सफलता है.
उपन्यास के चैप्टर्स पात्रों के अनुभव विशेष पर हैं। मसलन “ दुनिया टेढ़ी खड़ी और मैं बस उसे सीधा करना चाहती थी। .. हीरा “ या “ नील रतन नीलांजना.. नैन “ . स्वाभाविक है कि उपन्यास कई सिटिग में रचा गया होगा, जो गहराई से पढ़ने पर समझ आता है .
पुराने समय मे ग्रामीण परिवेश में खटमल , बिच्छू , जोंक , वगैरह प्राणी उसी तरह घरों में मिल जाते थे जैसे आज मच्छर या मख्खी , एक प्रसंग में वे लिखती हैं “ तुम्हारे पापा का नसीब अच्छा था , बिच्छू पाजामें से फिसलता जमीं पर आ गिरा “ यह उदृत करने का आशय मात्र इतना है की प्रत्यक्षा का आब्जर्वेशन और उसे उपन्यास के हिस्से के रूप मे पुनर्प्रस्तुत करने का उनका सामर्थ्य परिपक्वता से मुखरित हुआ है। १९९२ के बावरी विध्वंस पर लिखते हुये एक ऐतिहासिक चूक लेखिका से हुई है वे लिखती हैं की हजारों लोग इस हिंसा कि बलि चढ़ गए जबकि यह आन रिकार्ड है की बावरी विध्वंस के दौरान १७ लोग मारे गए थे , हजारों तो कतई नहीं।
मैं उपन्यास का कथा सार बिलकुल उजागर नहीं करूंगा , बल्कि मैं चाहूंगा कि आप पारा पारा खरीदें और स्वयं पढ़ें। मुझे भरोसा है एक बार मन लगा तो आप समूचा उपन्यास पढ़कर ही दम लेंगे , प्रेम त्रिकोण में नारी मन की मुखरता से नए वैचारिक सूत्र खोजिये। नारी विमर्श पर बेहतरीन किताब बड़े दिनों में आई है और इसे आपको पढ़ना चाहिए।
चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल
वर्तमान मे
न्यूजर्सी अमेरिका
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