Friday, 27 September 2024

देखन मे छोटे लगे घाव करें गंभीर- हरेराम समीप के हाइकू

 पुस्तक समीक्षा

देखन मे छोटे लगे घाव करें गंभीर- हरेराम समीप के हाइकू

कृति - बूढा सूरज (हाइकू कवितायें)
कवि - हरेराम समीप
प्रकाषक - पुस्तक बैंक, फरीदाबाद
पृष्ठ  - 104
मूल्य - 195-
समीक्षक- विवेक रजंन श्रीवास्तव, संयोजक पाठक मंच

न्यूनतम शब्दो मे अधिकमत बात कहने की दक्षता ही कविता की परिभाषा है। विषेष रूप से जब वह कविता जापान जैसे देष से हो जहा वृक्षो के भी बोनसार्इ बनाये जाते है तो हाइकू शैली मे कविता को अभिव्यकित मिलती है। साहित्य विष्वव्यापी होता है। वह किसी एक देष या भाषा की धरोहर मात्र हो ही नही सकता। जापानी भाषा की विधा हाइकू की वैषिवक लोकप्रियता ने यह तथ्य सि़द्ध कर दिया है। भारतीय भाषाओ मे सर्वप्रथम 1919 मे गुरूवर रवीन्द्र नाथ टैगौर ने हाइकू का परिचय करवाया था। फिर 1959 मे हिंदी हाइकू की चर्चा का श्रेय अज्ञेय को जाता है। जवाहर लाल नेहरू विष्वविधालय दिल्ली के जापानी भाषा के प्राध्यापक सत्यभूषण वर्मा ने भारत मे हाइकू सृजन को वैषिवक साहितियक प्रतिष्ठा दिलवार्इ।
जिस प्रकार गजल के मूल मे परवर दिगार के प्रति रूमानियत की अभिव्यकित है। ठीक उसी के समानान्तर हाइकू मे बौद्ध दर्षन तथा प्रकृति के प्रति सौदंर्य चेतना का प्रवाह रहा है। समय के साथ-साथ एवं रचनाकारो की प्रयोग धर्मिता के चलते हाइकू की भाव पक्ष की यह अनिवार्यता पीछे छूटती गर्इ। किंतु तीन पकिंतयो मे पांच सात पांच मात्राओ का स्थूल अनुषासन  आज भी हाइकू की विषेषता है।
हरे राम समीप जनवादी रचनाकार है। वे विगत लंबे समय से जवाहर लाल नेहरू स्मारक निधि तीन मूर्ति भवन मे सेवारत है। उन्हें संत कबीर राष्ट्रीय षिखर सम्मान, हरियाणा साहित्य अकादमी पुस्तक पुरस्कार, फिराक गोरखपुरी सम्मान जैसे अनेक सृजन सम्मान प्राप्त हो चुके है। स्वाभाविक ही है कि उनके वैषिवक परिदृष्य एवं राष्ट्रीय चिंतन का परिवेष उनकी कविताओ मे भी परिलक्षित होगा। उदाहरण स्वरूप यह हाइकू देखे-
किताबें रख
बस इतना कर
पढ ले दिल
वसुधैव कुटुम्बक का भारतीय ध्येय और भला क्या है, या फिर,
गलीचे बुने
फिर भी मिले उन्हे
नंगी जमीन

हिंदी एवं उर्दू भाषाओ पर हरे राम समीप का समान अधिकार है। अत: उनके हाइकू मे उर्दू भाषा के शब्दो का प्रयोग सहज ही मिलता है।
पहने फिरे
फरेब के लिबास
कीमती लोग
     या
शराफत ने
कर रखा है मेरा
जीना हराम

कबीर से प्रभावित समीप जी लिखते है
चाक पे रखे
गिली मिटटी, सोचू मैं
गढूं आज क्या
    और
कैसा सफर
जीवन भर चला
घर न मिला
अंग्रेजी को देवनागरी मे अपनाते हुये भी उनके अनेक हाइकू बहुत प्रभावोत्पादक है।
हो गए रिश्ते
पेपर नेपकिन
यूज एंड थ्रो
     या
निगल गया
मोबाइल टावर
प्यारी गौरैया
कुल मिलाकर बूढा सूरज मे संकलित हरेराम समीप के हाइकू उनकी सहज अभिव्यकित से उपजे है। वे ऐसे चित्र है जिन्हें हम सब रोज सुबह के अखबार मे या टीवी न्यूज चैनलो मे रोज पढते और देखते है किंतु कवि के अनदेखा कर देते है। किंतु उनके संवदेनषील मन ने परिवेष के इन विविध विषयो को सूक्ष्म शब्दो मे अभिव्यक्त किया है। संकलन मे कुल 450 हाइकू संग्रहित है। सभी एक दूसरे से श्रेष्ठ है। पुस्तक का शीर्षक बूढा सूरज जिस हाइकू पर केनिद्रत है वह इस तरह है।
बूढा सूरज
खदेडे अंधियारे
अन्ना हजारे
वर्तमान सामाजिक सिथति मे अन्ना हजारे के लिये इससे बेहतर भला और क्या उपमा दी जा सकती है। कवि से और भी अनेक सूत्र स्वरूप हाइकू की अपेक्षा हिंदी जगत करता है। समीप जी ने गजले, कहानिया और कवितायें भी लिखी है पर हाइकू मे उन्होने जो कर दिखाया है उसके लिये यही कहा जा सकता है कि देखन मे छोटे लगे घाव करें गंभीर. समीप जी ने अपने अनुभवो के सागर को हाइकू के छोटे से गागर में सफलता पूर्वक ढ़ाल दिया है .



विवके रंजन श्रीवास्तव



हाईकू




पुस्तक समीक्षा

देखन मे छोटे लगे - हाइकू


कृति - मैं सागर सी  (हाइकू तांका संग्रह)

कवि - मंजूषा मन 

प्रकाशक - पोएट्री पुस्तक बाजार , लखनऊ

पृष्ठ  - ९६

मूल्य - १४०.००

समीक्षक- विवेक रजंन श्रीवास्तव,   ए 1 एमपीर्इबी कालोनी रामपुर जबलपुर


 न्यूनतम शब्दो मे अधिकमत बात कहने की दक्षता ही कविता की परिभाषा है। 

जब वृक्षो के भी बोनसार्इ बनाये जाते है तो हाइकू शैली मे कविता को अभिव्यकित मिलती है। कविता विश्वव्यापी विधा है। मनोभावों की अभिव्यक्ति किसी एक देष या भाषा की धरोहर मात्र हो ही नही सकती.  जापानी भाषा की विधा हाइकू की वैश्विक लोकप्रियता ने यह तथ्य सि़द्ध कर दिया है। भारतीय भाषाओ मे सर्वप्रथम 1919 मे गुरूवर रवीन्द्र नाथ टैगौर ने हाइकू का परिचय करवाया था। फिर 1959 मे हिंदी हाइकू की चर्चा का श्रेय अज्ञेय को जाता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविधालय दिल्ली के जापानी भाषा के प्राध्यापक सत्यभूषण वर्मा ने भारत मे हाइकू सृजन को वैश्विक साहित्यिक प्रतिष्ठा दिलवार्इ।

 जिस प्रकार गजल के मूल मे परवर दिगार के प्रति रूमानियत की अभिव्यक्ति है। ठीक उसी के समानान्तर हाइकू मे बौद्ध दर्शन तथा प्रकृति के प्रति सौदंर्य चेतना का प्रवाह रहा है। समय के साथ-साथ एवं रचनाकारो की प्रयोग धर्मिता के चलते हाइकू की भाव पक्ष की यह अनिवार्यता पीछे छूटती गर्इ। किंतु तीन पकिंतयो मे पांच सात पांच मात्राओ का स्थूल अनुशासन  आज भी हाइकू की विशेषता है।

 दिल्ली के हरे राम समीप जनवादी रचनाकार है उनका हाइकू संग्रह चर्चित रहा है . जबलपुर से गीता गीता गीत ने भी हाइकू खूब लिखे हैं . अन्य अनेक हिन्दी कवियो की लम्बी सूची है जिन्होने इस विधा को अपना माध्यम बनाया . बलौदाबाजार छत्तीसगढ़ की मंजूषा मन कविता , कहानीयों के जरिये हिन्दी साहित्य जगत में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कर चुकी हैं . मैं सागर सी उनका पुरस्कृत हाईकू तांका संग्रह है . 

उदाहरण स्वरूप इससे कुछ हाइकू देखे-


 मन पे मेरे 

ये जंग लगा ताला 

किसने डाला 

.. 

चला ये मन 

ले यादों की बारात 

माने न बात 

..

हुई बंजर 

उभरी हैं दरारें 

मन जमीन 

..

बासंती समां 

मन बना पलाश

महका जहाँ .

..

इंद्र धनुष 

मन उगे अनेक 

रंग अनूप


मन के विभिन्न मनोभावों की सुंदर अभिव्यक्ति पुस्तक की इन नन्हीं कविताओ में परिलक्षित होती है . किताब एक बार पठनीय तो हैं ही . मंजूषा जी से सागर की अथाह गहराई से मन के और भी मोतियों की अपेक्षा हम रखते हैं . 



चर्चाकार ..

विवेक रंजन श्रीवास्तव




कुकड़ू क्यूं



पुस्तक परिचय

मुर्गे की आत्मकथा

लेखक अजीत श्रीवास्तव

प्रकाशक अयन प्रकाशन , नई दिल्ली 

मूल्य २५० रु , पृष्ठ १२८, हार्ड बाउंड 


किताबें छप तो बहुत रही हैं , किन्तु पढ़ी बहुत कम जा रही हैं . मेरा प्रयास है कि कम से कम पुस्तकों के कंटेंट की कुछ चर्चा होती रहे ,  जिस पाठक को रुचि हो वह जानकारी के आधार पर पुस्तक ढ़ूंढ़कर पढ़ सके . आप सब के फीड बैक से इस प्रयास के सुपरिणाम परिलक्षित होते दिखते हैं तो नई ऊर्जा मिलती है . अनेक लेखक व प्रकाशक अपनी पुस्तकें इस हेतु भेज रहे हैं , कई कई पाठको की प्रतिक्रियायें मिल रही हैं . 

इसी क्रम में मुर्गे की आत्मकथा व्यंग्य उपन्यासिका मिली . दरअसल पुस्तक में एक नही दो लघु व्यंग्य उपन्यासिकायें हैं .पहली राजनीति के योगासन है . राजनीति प्रत्येक व्यंग्यकार का सर्वाि प्रिय कच्चामाल है . अजीत श्रीवास्तव जी ने राजनीति के योगासन में  र आसन राशन , भ आसन भाषण , अश्व आसन आश्वासन , करजोड़ासन , पदासन, शासन , निष्काशन , पुनरागमनआसन , चमचासन , कुर्सियासन , सिंहासन , वगैरह वगैरह शब्दों की विशद विवेचना करते हुये हास्य ,व्यंग्य के संपुट के साथ नवाचार किया है . यह रोचक शैली पठनीय है . 

इसी क्रम में एक मुर्गे की आत्मकथा , में मुर्गे को प्रतीक बना कर बिल्कुल नई शैली मे समाज की विद्रूपताओ पर मजेदार कटाक्ष किये गये हैं .समाज में हर कोई दूसरे को मर्गा बनाने में जुटा हुआ है , ऐसे समय में यह उपन्यासिका वैचारिक पृष्ठभूमि निर्मित करती है . अजीत जी पुरस्कृत , वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं , पेशे से एड्वोकेट हैं , उनका कार्यक्षेत्र बड़ा है , लेखन दृष्टि परिपक्व है , अभिव्यक्ति की सशक्त नवाचारी क्षमता रखते हैं , किताब पढ़कर ही सही मजे ले पायेंगे . आपकी उत्सुकता जगाना ही इस चर्चा का उद्देश्य है . 

चर्चाकार ... विवेक रंजन श्रीवास्तव

गीत गुंजन

 



पुस्तक चर्चा

गीत गुंजन 

कवि ओम अग्रवाल बबुआ 

प्रकाशक प्रभा श्री पब्लिकेशन , वाराणसी

मूल्य २५० रु , पृष्ठ ११६, हार्ड बाउंड 


गीत , कविता मनोभावी अभिव्यक्ति की विधा है , जो स्वयं रचनाकार को तथा पाठक व श्रोता को हार्दिक आनन्द प्रदान करती है . सामान्यतः फेसबुक , व्हाट्सअप को गंभीर साहित्य का विरोधी माना जाता है , किन्तु स्वयं कवि ओम अग्रवाल बबुआ ने अपनी बात में उल्लेख किया है कि उन्हें इन नवाचारी संसाधनो से कवितायें लिखने में गति मिली व उसकी परिणिति ही उनकी यह प्रथम कृति है . किताब में धार्मिक भावना की रचनायें जैसे गणेश वंदना , सरस्वती वन्दना , कृष्ण स्तुतियां , दोहे , हास्य रचना मेरी औकात , तो स्त्री विमर्श की कवितायें नारी , बेटियां , प्यार हो तुम , प्रेम गीत , आदि भी हैं . पहली किताब का अल्हड़ उत्साह ,रचनाओ में परिलक्षित हो रहा है , जैसे यह पुस्तक उनकी डायरी का प्रकाशित रूपांतरण हो . अगली पुस्तको में कवि ओम अग्रवाल बबुआ जी से और भी गंभीर साहित्य अपेक्षित है . 

पुस्तक से चार पंक्तियां पढ़िये ..

आशाओ के दर्पण में 

पावन पुण्य समर्पण में 

जब दूर कहीं वे अपने हों 

जब आंखों में सपने हों

तब नींद भाग सी जाती है 

जब याद तुम्हारी आती है .

रचनायें आनन्द लेने योग्य हैं.


चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

निज महिमा के ढोल

 पुस्तक चर्चा

निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे 

लेखक श्रवण कुमार उर्मलिया

प्रकाशक भारतीश्री प्रकाशन , दिल्ली ३२

मूल्य ४०० रु , पृष्ठ २३२, हार्ड बाउंड 


इस सप्ताह मुझे इंजीनियर श्रवण कुमार उर्मलिया जी की बढ़िया व्यंग्य कृति निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे पढ़ने का सुअवसर सुलभ हुआ . बहुत परिपक्व , अनुभव पूर्ण रचनायें इस संग्रह का हिस्सा हैं . व्यंग्य के कटाक्षो से लबरेज कथानको का सहज प्रवाहमान व्यंग्य शैली में वर्णन करना लेखक की विशेषता है .पाठक इन लेखो को पढ़ते हुये  घटना क्रम का साक्षी बनता चलता  है . अपनी रचना प्रक्रिया की विशद व्याख्या स्वयं व्यंग्यकार ने प्रारंभिक पृष्ठो में की है . वे अपने लेखन को आत्मा की व्यापकता का विस्तार बतलाते हैं . वे व्यंग्य के कटाक्ष से विसंगतियो को बदलना चाहते हैं और इसके लिये संभावित खतरे उठाने को तत्पर हैं . पुस्तक में ५२ व्यंग्य और २ व्यंग्य नाटक हैं . ५२ के ५२ व्यंग्य ,ताश के पत्ते हैं , कभी ट्रेल में , तो कभी कलर में , लेखों में कभी पपलू की मार है ,तो कभी जोकर की . अनुभव की पंजीरी से लेकर निज महिमा के ढ़ोल मंजीरे पीटने के लिये ईमानदारी की बेईमानी , भ्रृ्टाचार का शिष्टाचार व्यंग्यकार के शोध प्रबंध में सब जायज है . हर व्यंग्य पर अलग समीक्षात्मक आलेख लिखा जा सकता है , अतः बेहतर है कि पुस्तक चर्चा में मैं आपकी उत्सुकता जगा कर छोड़ दूं कि पुस्तक पठनीय , बारम्बार पठनीय है . 



चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ट्रंप की नाक

  पुस्तक चर्चा 


पुस्तक चर्चा

डोनाल्ड ट्रम्प की नाक 

व्यंग्यकार  अरविन्द तिवारी 

प्रकाशक किताबगंज प्रकाशन दिल्ली 

मूल्य १९५रु , पृष्ठ १२४, 

ISBN  9789388517560


इस सप्ताह व्यंग्य के एक अत्यंत सशक्त सुस्थापित मेरे अग्रज वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री अरविन्द तिवारी जी की नई व्यंग्य कृति डोनाल्ड ट्रम्प की नाक पढ़ने का अवसर मिला . तिवारी जी के व्यंग्य अखबारो , पत्र पत्रिकाओ सोशल मीडिया में गंभीरता से नोटिस किये जाते हैं . जो व्यंग्यकार चुनाव टिकिट और ब्रम्हा जी , दीवार पर लोकतंत्र , राजनीति में पेटीवाद , मानवीय मंत्रालय , नल से निकला सांप , मंत्री की बिन्दी , जैसे लोकप्रिय , पुनर्प्रकाशित संस्करणो से अपनी जगह सुस्थापित कर चुका हो उसे पढ़ना कौतुहल से भरपूर होता है . व्यंग्य संग्रह  ही नही तिवारी जी ने दिया तले अंधेरा , शेष अगले अंक में हैड आफिस के गिरगिट , पंख वाले हिरण शीर्षको से व्यंग्य उपन्यास भी लिखे हैं . बाल कविता , स्तंभ लेखन के साथ ही उनके कविता संग्रह भी चर्चित रहे हैं . वे उन गिने चुने व्यंग्यकारो में हैं जो अपनी किताबों से रायल्टी अर्जित करते दिखते हैं . तिवारी जी नये व्यंग्यकारो की हौसला अफजाई करते , तटस्थ व्यंग्य कर्म में निरत दिखते हैं .  

पाठको से उनकी यह किताब पढ़ने की अनुशंसा करते हुये मैं किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हूं . जब आप स्वयं ४० व्यंग्यों का यह  संग्रह पढ़ेंगे तो आप स्वयं उनकी लेखनी के पैनेपन के मजे ले सकेंगे . प्रमाण पत्रो वाला देश , अपने खेमे के पिद्दी , राजनीति का रिस्क , साहित्य के ब्लूव्हेल , व्यंग्य के मारे नारद बेचारे , दिल्ली की धुंध और नेताओ का मोतियाबिन्द , पुस्तक मेले का लेखक मंच , उठौ लाल अब डाटा खोलो , पूरे वर्ष अप्रैल फूल , अपना अतुल्य भारत , जुगाड़ टेक्नालाजी , देशभक्ति का मौसम , टीवी चैनलो की बहस और  शीर्षक व्यंग्य डोनाल्ड ट्रम्प की नाक सहित हर व्यंग्य बहुत सामयिक , मारक और संदेश लिये हुये है .इन व्यंग्य लेखो की विशेषता है कि सीमित शब्द सीमा में सहज घटनाओ से उपजी मानसिक वेदना  को वे प्रवाहमान संप्रेषण देते हैं , पाठक जुड़ता जाता है , कटाक्षो का मजा लेता है , जिसे समझना हो वह व्यंग्य में छिपा अंतर्निहित संदेश पकड़ लेता है , व्यंग्य पूरा हो जाता है . मैं चाहता हूं कि इस पैसा वसूल व्यंग्य संग्रह को पाठक अवश्य पढ़ें . 

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

Friday, 13 September 2024

व्यंग्य संग्रह ... नौकरी धूप सेंकने की

 

पुस्तक चर्चा
व्यंग्य संग्रह ... नौकरी धूप सेंकने की


लेखक ..सुदर्शन सोनी , भोपाल
प्रकाशक ...आईसेक्ट पब्लीकेशन , भोपाल
पृष्ठ ..२२४ , मूल्य २५० रु

चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए २३३ . ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी , भोपाल , ४६२०२३

  धूप से शरीर में विटामिन-D बनता है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की मानें, तो विटामिन डी प्राप्त करने के लिए सुबह 11 से 2 बजे के बीच धूप सबसे अधिक लाभकारी होती है। यह दिमाग को हेल्दी बनाती है और इम्यून सिस्टम को मजबूत करती है। आयुर्वेद के अनुसार, शरीर में पाचन का कार्य जठराग्नि द्वारा किया जाता है, जिसका मुख्य स्रोत सूर्य है। दोपहर में सूर्य अपने चरम पर होता है और उस समय तुलनात्मक रूप से जठराग्नि भी सक्रिय होती है। इस समय का भोजन अच्छी तरह से पचता है। सरकारी कर्मचारी जीवन में जो कुछ करते हैं , वह सरकार के लिये ही करते हैं । इस तरह से यदि तन मन स्वस्थ रखने के लिये वे नौकरी के समय में धूप सेंकतें हैं तो वह भी सरकारी काम ही हुआ , और इसमें किसी को कोई एतराज  नहीं होना चाहिये । सुदर्शन सोनी सरकारी अमले के आला अधिकारी रहे हैं , और उन्होंने धूप सेंकने की नौकरी को बहुत पास से , सरकारी तंत्र के भीतर से समझा है । व्यंग्य उनके खून में प्रवाहमान है , वे पांच व्यंग्य संग्रह साहित्य जगत को दे चुके हैं , व्यंग्य केंद्रित संस्था व्यंग्य भोजपाल चलाते हैं । वह सब जो उन्होने जीवन भर अनुभव किया समय समय पर व्यंग्य लेखों के रूप में स्वभावतः निसृत होता रहा । लेखकीय में उन्होंने स्वयं लिखा है " इस संग्रह की मेरी ५१ प्रतिनिधि रचनायें हैं जो मुझे काफी प्रिय हैं " । किसी भी रचना का सर्वोत्तम समीक्षक लेखक स्वयं ही होता है , इसलिये सुदर्शन सोनी की इस लेखकीय अभिव्यक्ति को "नौकरी धूप सेंकने की" व्यंग्य संग्रह का यू एस पी कहा जाना चाहिये । सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने किताब की भूमिका में लिखा है " सरकारी कर्मचारी धूप सेंक रहे हैं , दफ्तर ठप हैं , पर सरकार चल रही है , पब्लिक परेशान है । सरकार चलाने वाले चालू हैं वे काम के वक्त धूप सेंकते हैं । "
मैंने "नौकरी धूप सेंकने की" को पहले ई बुक के स्वरूप में पढ़ा , फिर लगा कि इसे तो फुरसत से आड़े टेढ़े लेटकर पढ़ने में मजा आयेगा तो किताब के रूप में लाकर पढ़ा । पढ़ता गया , रुचि बढ़ती गई और देर रात तक सारे व्यंग्य पढ़ ही डाले । लुप्त राष्ट्रीय आयटम बनाम नये राष्ट्रीय प्रतीक , व्यवस्था का मैक्रोस्कोप , भ्रष्टाचार का नख-शिख वर्णन , साधने की कला , गरीबी तेरा उपकार हम नहीं भूल पाएंगे , मेवा निवृत्ति , बाढ़ के फायदे , मीटिंग अधिकारी , नौकरी धूप सेकने की , सरकार के मार्ग , डिजिटाईजेशन और बड़े बाबू ,   एक अदद नाले के अधिकार क्षेत्र का विमर्श आदि अनुभूत सारकारी तंत्र की मारक रचनायें हैं । टीकाकरण से पहले कोचिंगकरण  से लेखक की व्यंग्य कल्पना की बानगी उधृत है " कुछ ऐसे भी लोग होंगे जो अजन्मे बच्चे की कोचिंग की व्यवस्था कर लेंगे " । लिखते रहने के लिये पढ़ते रहना जरूरी होता है , सुदर्शन जी पढ़ाकू हैं , और मौके पर अपने पढ़े का प्रयोग व्यंग्य की धार बनाने में करते हैं , आओ नरेगा-नरेगा खेलें  में वे लिखते हैं " ये ऐसा ही प्रश्न है जेसे फ्रांस की राजकुमारी ने फ्रासीसी क्रांति के समय कहा कि रोटी नहीं है तो ये केक क्यों नहीं खाते ?  "सर्वोच्च प्राथमिकता" सरकारी फाइलों की अनिवार्य तैग लाइन होती है , उस पर वे तीक्षण प्रहार करते हुये लिखते हैं कि सर्वोच्च प्राथमिकता रहना तो चाहती है सुशासन , रोजगार , समृद्धि , विकास के साथ पर व्यवस्था पूछे तो । व्यंग्य लेखों की भाषा को अलंकारिक या क्लिष्ट बनाकर सुदर्शन आम पाठक से दूर नहीं जाना चाहते , यही उनका अभिव्यक्ति कौशल है ।  
अगले जनम हमें मिडिल क्लास न कीजो , अनेक पतियों को एक नेक सलाह , हर नुक्कड़ पर एक पान व एक दांतों की दुकान ,महँगाई का शुक्ल पक्ष, अखबार का भविष्यफल,  आक्रोश जोन , पतियों का एक्सचेंज ऑफर , पत्नी के सात मूलभूत अधिकार , शर्म का शर्मसार होना वगैरह वे व्यंग्य हैं जो आफिस आते जाते उनकी पैनी दृष्टि से गुजरी सामाजिक विसंगतियों को लक्ष्य कर रचे गये हैं । वे पहले अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो व्यंग्य संग्रह लिख चुके हैं । डोडो का पॉटी संस्कार , जेनरेशन गैप इन कुत्तापालन इससंग्रह में उनकी पसंद के व्यंग्य हैं । अपनी साहित्यिक जमात पर भी उनके कटाक्ष कई लेखों में मिलते हैं उदाहरण स्वरूप एक पुरस्कार समारोह की झलकियां , ये भी गौरवान्वित हुए  , साहित्य की नगदी फसलें , श्रोता प्रोत्साहन योजना , वर्गीकरण साहित्यकारों का : एक तुच्छ प्रयास , सम्मानों की धुंध , आदि व्यंग्य अपने शीर्षक से ही अपनी कथा वस्तु का किंचित प्रागट्य कर रहे हैं ।
एक वोटर के हसीन सपने में वे फ्री बीज पर गहरा कटाक्ष करते हुये लिखते हैं " अब हमें कोई कार्य करने की जरूरत नहीं है वोट देना ही सबसे बड़ा कर्म है हमारे पास "  । संग्रह की प्रत्येक रचना लक्ष्यभेदी है । किताब पैसा वसूल है । पढ़ें और आनंद लें । किताब का अंतिम व्यंग्य है मीटिंग अधिकारी और अंतिम वाक्य है कि जब सत्कार अधिकारी हो सकता है तो मीटिंग अधिकारी क्यों नहीं हो सकता ? ऐसा हो तो बाकी लोग मीटिंग की चिंता से मुक्त होकर काम कर सकेंगे । काश इसे व्यंग्य नहीं अमिधा में ही समझा जाये , औेर वास्तव में काम हों केवल मीटिंग नहीं ।
विवेक रंजन श्रीवास्तव



Wednesday, 11 September 2024

"मैं खोजा मैं पाइयां" का हिन्दी जगत में स्वागत

 पुस्तक चर्चा

मैं खोजा मैं पाइयां


निबंध संग्रह ... सुरेश पटवा
प्रकाशक ... आईसेक्ट पब्लिकेशन  , भोपाल
पृष्ठ ..१३६, मूल्य २६० रु

चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए २३३ . ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी , भोपाल , ४६२०२३

"आनंद राहत देता है और मजा तनाव" ,
" जिनके पास आँख और कान हैं वे भी अंधे और बहरे हैं " ,
"इस जगत में हमारे लिये वही सत्य सार्थक है , जिसे स्वीकार कर भोग लेने की हममें योग्यता हो "
..... इसी किताब में सुरेश पटवा ।
ऊपर उधृत वाक्यांशो जैसे दार्शनिक , शाश्वत तथ्यों से इंटरनेट पर रजनीश साहित्य , बाबा जी के यूट्यूब चैनल , विकिपीडीया आदि में प्रचुर सामग्री सुलभ है , पर आजकल अपने मस्तिष्क में रखने की प्रवृत्ति हमसे छूटती जा रही है ।  पटवा जी एक अध्येता हैं , उनके संदर्भ विशद हैं और वे विषयानुकूल सामग्री ढ़ूंढ़ कर अपने पाठकों को रोचक पठनीय मटेरियल देने की कला में माहिर हैं । पटवा जी न केवल बहुविध रचना कर्मी हैं ,वरन वे विविध विषयों पर पुस्तक रूप में सतत प्रकाशित लेखक भी हैं । साहित्यिक आयोजनो में उनकी निरंतर भागीदारी रहती ही है । कबीर के दोहे " जिन खोजा तिन पाइयां शीर्षक से किंडल पर ओशो की एक पूरी किताब ही  सुलभ है । इसी का अवलंब लेकर इस किताब में संग्रहित नौ लेखों का संयुक्त शीर्षक "मैं खोजा मैं पाइयां" रखा गया है । शीर्षक ही किताब का गेटवे होता है , जो पाठक का प्रथम आकर्षण बनता है ।
मैं खोजा मैं पाइयां में "मैं की यात्रा का पथिक" , हिन्दी भाषा की उत्पत्ति और विकास , आजाद भारत में हिन्दी , "राष्ट्रभाषा , राजभाषा , संपर्क भाषा " , देवनागरी उत्पत्ति और विकास , खड़ी बोली की यात्रा , हिन्दी उर्दू का बहनौता , भारतीय ज्ञान परम्परा में पावस ॠतु वर्णन , तथा " हिन्दी साहित्य में गुलमोहर " शीर्षकों से कुल नौ लेख संग्रहित हैं ।
किताब आईसेक्ट पब्लीकेशन भोपाल से त्रुटिरहित छपी है । आईसेक्ट रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय का ही उपक्रम है । विश्वरंग के साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजनो के चलते हिन्दी जगत में दुनियां भर में पहचान बना चुके इस संस्थान से "मैं खोजा मैं पाइयां" के प्रकाशन से किताब की पहुंच व्यापक हो गई है । देवनागरी की उत्पत्ति , हिन्दी भाषा की उत्पत्ति आदि लेखों में जिन विद्वानो के लेखों से सामग्री उधृत की गई है , वे संदर्भ भी दिये जाते तो प्रासंगिक उपयोगिता और भी बढ़ जाती । हिन्दी मास के अवसर पर प्रकाशित होकर आई इस पुस्तक से हिन्दी और देवनागरी पर प्रामाणिक जानकारियां मिलती हैं , जिसका उल्लेख साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश के निदेशक डा विकास दवे जी ने पुस्तक की प्रस्तावना में भी किया है । शाश्वत सत्य यही है कि बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता , खुद खोजना होता है , ज्ञान का खजाना तो बिखरा हुआ है । जो भी पूरे मन प्राण से जो कुछ खोजता है उसे वह मिलता ही है । सुरेश पटवा जी ने इस किताब के जरिये हिन्दी भाषा की उत्पत्ति , देवनागरी उत्पत्ति ,आदि शोध निबंध , साहित्य में गुलमोहर, ज्ञान परम्परा में पावस ॠतु वर्णन जैसे ललित निबंध तथा कई वैचारिक निबंध प्रस्तुत कर स्वयं की निबंध लेखन की दक्षता प्रमाणित कर दिखाई है । इस संदर्भ पुस्तक के प्रकाशन पर मैं सुरेश पटवा जी को हृदयतल से बधाई देता हूं और "मैं खोजा मैं पाइयां" का हिन्दी जगत में स्वागत करता हूं ।
 
  चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव  

गांधारी मौजूद है किन्तु वह प्रायः मौन है

 पुस्तक चर्चा

गांधारी


डा संजीव कुमार
प्रकाशन... इंडिया नेट बुक्स , नोएडा
पहला संस्करण २०२४ , पृष्ठ १०८ , मूल्य ३०० रु
ISBN 978-81-19854-50-9

चर्चा ... विवेक रंजन श्रीवास्तव 

  दुनियां में विभिन्न संस्कृतियों के भौतिक साक्ष्य और समानांतर सापेक्ष साहित्य के दर्शन होते हैं । भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से कहीं अधिक प्राचीन है । रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के दो अद्भुत महा ग्रंथ हैं । इन महान ग्रंथों में  धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ,आध्यात्मिक और वैचारिक ज्ञान की अनमोल थाथी है । महाभारत जाने कितनी कथायें उपकथायें ढ़ेरों पात्रों के माध्यम से  न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या के गुह्यतम रहस्यों को संजोये हुये है । परंपरागत रूप से, महाभारत की रचना का श्रेय वेदव्यास को दिया जाता है। धारणा है कि महाभारत महाकाव्य से संबंधित मूल घटनाएँ संभवतः 9 वीं और 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की हैं । महाभारत की रचना के बाद से ही अनेकानेक विद्वान सतत उसकी कथाओ का विशद अध्ययन , अनुसंधान , दार्शनिक विवेचनायें करते रहे हैं । वर्तमान में अनेकानेक कथावाचक देश विदेश में पुराणो , भागवत , रामकथा , महाभारत की कथाओ के अंश सुनाकर समाज में भक्ति का वातावरण बनाते दिखते हैं । विश्वविद्यालयों में महाभारत के कथानकों की विवेचनायें कर अनेक शोधार्थी निरंतर डाक्टरेट की उपाधियां प्राप्त करते हैं । प्रदर्शन के विभिन्न  माध्यमो में ढ़ेरों फिल्में , टी वी धारावाहिक , चित्रकला ,  साहित्य में महाभारत के कथानकों को समय समय पर विद्वजन अपनी समझ और बदलते सामाजिक परिवेश के अनुरूप अभिव्यक्त करते रहे हैं । न केवल हिन्दी में वरन विभिन्न भाषाओ के साहित्य पर महाभारत के चरित्रों और कथानको का व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है ।महाभारत कालजयी महाकाव्य है ।  इसके कथानकों को जितनी बार जितने तरीके से देखा जाता है, कुछ नया निकलता है।  हर समय, हर समाज अपना महाभारत रचता है और उसमें अपने अर्थ भरते हुए स्वयं को खोजता है। महाभारत पर अवलंबित हिन्दी साहित्य की रचनायें देखें तो डॉ॰ नरेन्द्र कोहली का प्रसिद्ध महाकाव्यात्मक उपन्यास महासमर , महाभारत के पात्रों पर आधारित रचनाओ में धर्मवीर भारती का अंधा युग  , आधे-अधूरे , संशय की रात , सीढ़ियों पर धूप , माधवी (नाटक), शकुंतला (राजा रवि वर्मा) , कीचकवधम , युगान्त , आदि जाने कितनी ही यादगार पुस्तकें साहित्य की धरोहर बन गयी हैं ।
गांधारी की बात करें तो गान्धारी उत्तर-पश्चिमी प्राकृत भाषा थी जो गांधार में बोली जाती थी। इस भाषा को खरोष्ठी लिपि में लिखा जाता था। इस भाषा में अनेक बौद्ध ग्रन्थ उपलब्ध हैं। अन्य प्राकृत भाषाओं की तरह गान्धारी भाषा भी वैदिक संस्कृत से उत्पन्न हुई भाषा है ।
नये परिवेश में समाज में स्त्रियों ने अपना स्थान बनाया , साहित्य में स्त्री विमर्श को महत्व मिला तो महाभारत की विभिन्न महिला पात्रों पर केंद्रित कृतियां सामने आईं । इसी क्रम में महाभारत की गांधारी के चरित्र पर केंद्रित साहित्य की चर्चा करें तो सुमन केशरी की पुस्तक नाटक गांधारी बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुई है । स्नेहलता स्वामी का उपन्यास गांधारी दिलिपराज प्रकाशन से आया है । डायमंड प्रकाशन से महासती गांधारी नाम का उपन्यास डा विनय का भी आया है । किंतु खण्ड काव्य के रूप में मेरे पढ़ने में पहली कृति डा संजीव कुमार की यह कृति ही है ।  भूमिका में डा संजीव कुमार ने स्वयं गांधारी के चरित्र पर सविस्तार प्रकाश डाला है । उल्लेखनीय है कि डा संजीव कुमार का भारतीय वांग्मय का अध्ययन बहुत व्यापक है । वे उसे आत्मसात कर चुके हैं । रचना कर्म के लिये वे वर्णित चरित्र में परकाया प्रवेश की कला जानते हैं । वे अपनी लेखनी की ताकत से आलोच्य चरित्र को अपने युग में उठा लाते हैं । मिथक के वर्तमान में इस आरोपण से डा संजीव की रचनायें बहुत प्रभावी और समय सापेक्ष बन जाती हैं । मुझे डा संजीव की अधिकांश पुस्तकों को गहराई से पढ़कर किताब की चर्चा करने का सुअवसर मिला । मैं कह सकता हूं कि उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति क्षमता विलक्षण है । वे अपने कल्पना लोक में वह रिक्तता भरना बखूबी जानते हैं जो महाकाव्य में जहाँ से मूल कथानक लिया जाता है , कहानी की जटिलता और चरित्रों की भीड़ भाड़ में अकथ्य रह गया होता है । डा संजीव कोणार्क जाते हैं तो वे मांदिर परिसर की मूर्तियों में जान भरकर उनको शब्द देने की क्षमता रखते हैं । मुझे अच्छा लगा कि इस कृति में उन्होंने अपने पाठकों के लिये गांधारी को जिया है ।
गांधारी पूरे महाभारत में प्रमुखता से मौजूद है किन्तु वह मौन है । गांधारी का जन्म गांधार के राजा सुधर्मा और सुबाला के घर हुआ था। राजनीति में रिश्तों की कहानी बहुत पुरानी है । भीष्म द्वारा गांधारी को कुरु साम्राज्य की बड़ी पुत्रवधू के रूप में चुना जाना भी राजनैतिक संधि और प्रभाव का परिणाम था । शायद यह समझौते केर रूप में स्वीकार किया गया यह किंचित बेमेल विवाह ही महाभारत के युद्ध का बीजारोपण था । गांधारी के भाई शकुनि के प्रतिशोध का कारण था । महाकाव्य में गांधारी का चरित्र उन ऊंचाईयो तक वर्णित है , जहां अपने पति के नेत्र न होने से वे भी जीवन पर्यंत आंखो पर पट्टी बांधकर अंधत्व का जीवन यापन करती हैं । गांधारी अनन्य शिव भक्त थीँ । दैवीय वरदान से वे  महाभारत के खलनायकों सौ पुत्रों कौरवों तथा एक बेटी दुशाला की माँ बनी ।  कुरुक्षेत्र युद्ध और कौरवों के समूल अंत के बाद , गांधारी ने कृष्ण को श्राप दिया, जिसके प्रभाव से यदु वंश का विनाश हुआ ।
अब आलोच्य कृति में गांधारी के मनोभावों को डा संजीव कुमार ने किस प्रकार निबाहा है , वह पढ़िये और मेरा भरोसा है कि ये अंश पढ़कर आप पुस्तक पढ़ने के लिये अपनी जिज्ञासा को बिना किताब बुलवाये रोक न सकेंगे । कुल जमा ७२ कविताओ में गांधारी के मनोभावों को सारे महाभारत से समेट कर सक्षम अभिव्यक्ति दे पाने में डा संजीव सफल हुये हैं । कवितायें कर्ता कारक के रूप में  लिखी गईं हैं । " मेरे पिता सुबल एवं माता सुधर्मा थीं , बताया गांधारी ने ... गांधार छोड़ते समय मैने याद किया आराध्य शिव शंकर को , और बैठ गई डोली में । निर्भीक और निडर । मेरी सखी सुनंदा और भ्राता शकुनी साथ थे , जो रहेंगे मेरे साथ ही ससुराल में । ......
एक अपहृत राजकुमारी निरीह ... जिसे एक जन्मांध की पत्नी बनकर जीना था ....
... और शामिल कर लिया आँखों की पट्टी को अपनी वेशभूषा में ....
...  शायद पट्टी बांधी थी तुमने अपने लिये ...
... न संभाल सकीं तुम बच्चे ... और माँ के नेत्रों से न देख पाये बच्चे दुनियां बन गये सारे जिद्दी और उद्दंड ...
... धृतराष्ट्र ने तुम्हें छोड़ दासी से बना लिये संबंध , परिणाम था युयुत्सु ...
.... खुली तो फिर भी रहेंगी मेरे मन की आँखें ...
इसी तरह की सशक्त अभिव्यक्ति कौशल के दर्शन होते हैं पूरी किताब में । गांधारी के चरित्र को रेखांकित करती इस काव्य कृति के लिये संजीव जी बधाई के सुपात्र हैं । खरीदिये , पढ़िये और इस वैचारिक कृति से परखिये स्त्री मनोभावों की ताकत को जो आजीवन अंधत्व का स्वेच्छा से चयन करने का सामर्थ्य रखती है तो समूचे यदुवंश को श्रापित कर नष्ट करने  पर विवश हो सकती है ।

चर्चा ... विवेक रंजन श्रीवास्तव



 

Sunday, 8 September 2024

 पुस्तक चर्चा

मानसी

उपन्यासकार .चन्द्रभान राही, भोपाल

प्रकाशक ...सर्वत्र , भोपाल

पृष्ठ ..२७८, मूल्य ३९९ रु



चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए २३३ . ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी , भोपाल , ४६२०२३


 पाश्चात्य समाज में स्त्रियों की भागीदारी को उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में रेखांकित किया जाने लगा था । इसी से विदेशी साहित्य में स्त्री विमर्श की शुरुआत  हुई । इसे फ़ेमिनिज़्म कहा गया । स्त्री अस्मिता , लिंग भेद , नारी-जागरण ,स्त्री जीवन की सामाजिक , मानसिक , शारीरिक समस्याओं का चित्रण साहित्यिक  रचनाओ में प्रमुखता से किया जाने लगा । यह विमर्श एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ है । आज भी स्त्री विमर्श के विषय, साहित्य के माध्यम से स्त्री पुरुष समानता , स्त्री दासता से मुक्ति के प्रश्नों के उत्तर खोजने की वैचारिक कविताओ , कहानियों , उपन्यास और प्रेरक लेखों के जरिये उठाए जाते हैं । स्त्री विमर्श पर शोध कार्य हो रहे हैं ।

मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष के विकास में स्त्रियों की अहम भूमिका को स्वीकार किया था । उन्होंने स्त्रियों को शोषित वर्ग का प्रतिनिधि माना था ।  महिला विमर्श को पश्चिम और भारतीय परिवेश मे अलग नजरियों से देखा गया । पश्चिम ने स्त्री पुरुष को समानता का अधिकार स्वीकार किया । दूसरी ओर भारतीय महाद्वीप में स्त्री पुरुष को सांस्कृतिक रूप से परस्पर अनुपूरक माना जाता रहा है । नार्याः यत्र पूज्यंते .. के वेद वाक्य का सहारा लेकर स्त्री को पुरुष से अधिक महत्व का सैद्धांतिक घोष किया जाता रहा , किन्तु व्यवहारिक पक्ष में आज भी विभिन्न सामाजिक कारणो से समाज के बड़े हिस्से में स्त्री भोग्या स्वरूप में ही दिखती है । कानून , नारी आंदोलन , स्त्री विमर्श यथार्थ के सम्मुख बौने रह गये हैं , और स्त्री विमर्श के साहित्य की प्रासंगिकता सुस्थापित है ।

विज्ञापन तथा फिल्मों ने स्त्री देह का ऐसा व्यापार स्थापित किया है कि पुरुष के कंधे से कंधा मिलाने की होड़ में स्त्रियां स्वेच्छा से अनावृत हो रही हैं । इंटरनेट ने स्त्रियों के संग खुला वैश्विक खिलवाड़ किया है । स्त्री मन को पढ़ने की , उसे मानसिक बराबरी देने के संदर्भ में , स्त्री को भी मनुष्य समझने में जो भी किंचित आशा दिखती है वह रचनाकारों से ही है । मुझे प्रसन्नता है कि चन्द्रभान राही जैसे लेखकों में इतना नैतिक साहस है कि वे इसी समाज में रहते हुये , समाज का नंगा सच भीतर से देख समझ कर मानसी जैसा बोल्ड उपन्यास लिखते हैं । मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी सम्मान सहित , तुलसी सम्मान ,शब्द शिखर सम्मान,  पवैया सम्मान , देवकीनंदन महेश्वरी स्मृति सम्मान ,श्रम श्री सम्मान ,  स्वर्गीय नर्मदा प्रसाद खरे सम्मान , पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन सम्मान ,  आदि आदि अनेक सम्मानो से समादृत बहुविध लेखक श्री चंद्रभान राही का साहित्यिक कृतित्व बहुत लंबा है । मैंने उनसे अनौपचारिक बातचीत में उनकी रचना प्रक्रिया को किंचित समझा है । वे टेबल कुर्सी लगाकर बंद कमरे में लिखने वाले फेंटेसी लेखक नहीं हैं । एक प्रोजेक्ट बनाकर वे सोद्देश्य रचना कर्म  करते हैं । अध्ययन , अनुभव और सामाजिक वास्तविकताओ को अपनी जीवंत अभिव्यक्ति शैली में वे कुशलता से पाठकों के लिये पृष्ठ दर पृष्ठ हर सुबह संजोते हैं , पुनर्पाठ कर स्वयं संपादित करते हैं और तब कहीं उनका उपन्यास साहित्य जगत में दस्तक देता है । अपनी नौकरी के साथ साथ वे अपना रचना कर्म निरपेक्ष भाव से करते दिखते हैं । स्वाभाविक रूप से इतनी गंभीरता से किये गये लेखन को उनके पाठक हाथों हाथ लेते हैं । वे उन लेखकों में से हैं जो अपठनीयता के इस युग में भी किताबों से रायल्टी अर्जित कर रहे हैं ।

“मर्द, एक स्त्री से दर्द लेकर आता है, दूसरी स्त्री के पास दर्द कम करने के लिए।”  स्त्री, स्त्री है तो एक घरवाली और एक बाहरवाली, दो भागों में कैसे बँट गई ? दोनों स्त्रियों के द्वारा मर्द को संतुष्ट किया जाता है लेकिन बदनाम कुछ ही स्त्रियाँ होती हैं। अनूठे शाब्दिक प्रयोग के साथ लिखे गये बोल्ड उपन्यास ‘मानसी' के लेखक चन्द्रभान 'राही' ने स्त्री मन की पीड़ा को लिखा है। स्त्री प्रेम के लिए मर्द को स्वीकारती है और मर्द, स्त्री के लिए प्रेम को स्वीकारता है। स्त्री प्रेम के वशीभूत होकर अपने सपनों को पूरा करने के लिए पहले दूसरे के सपनों को पूरा करती है। पुरुष प्रधान समाज के बीच स्त्री स्वयं उलझती चली जाती है। इच्छित पुरुष को पाने का असफल प्रयास करती स्त्री की आत्मकथा के माध्यम से प्रेम का मनोविज्ञान ही मानसी का कथानक है ।

स्त्री विमर्श आंदोलन ने स्त्री को कुछ स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनाया है। फिल्म, मॉडलिंग, मीडिया के साथ बिजनेस और नौकरी में महिलाओ की भागीदारी बढ़ रही है। किंतु, इसका दूसरा पक्ष बड़ा त्रासद है। उपभोक्तावाद ने कुछ युवतियों को कालगर्ल , स्कार्ट रैकेट का हिस्सा बना दिया है । ‘मी-टू’ अभियान की सच्चाईयां समाज को नंगा करती हैं । आये दिन रेप की वीभत्स्व घटनायें क्या कह रही हैं ? सफल-परिश्रमी युवतियों के चरित्र को संदिग्ध मान लिया जाता है। महिला को संरक्षण देने वाले और समाज की दृष्टि में स्त्री इंसान नहीं ‘रखैल’ घोषित कर दी जाती है। सफल स्त्रियों की आत्मकथाएं कटु जीवनानुभवों का सच हैं। पुरुषों का अहं साथी की योग्यता और सफलता को स्वीकार नहीं कर पाता है। पितृसत्ता स्त्री की आजादी और मुक्ति में बाधक है। आरक्षण महिलाओ की योग्यता और क्षमता को मुखरता देने के लिये वांछित है ।

इस उपन्यास के चरित्रों मुंडी , मुंडा , मुंडी का रूपांतरित स्वरूप मानसी , चकाचौंध की दुनियां वाली नैना ,गिरधारीलाल , दिवाकर , रवि को लेखक ने बहुत अच्छी तरह कथानक में पिरोया है । उन्होंने संभवतः आंचलिकता को रेखांकित करने के लिये उपन्यास की नायिका मुंडी उर्फ मानसी को आदिवासी अंचल से चुना है । यद्यपि चमत्कारिक रूप से मुंडी के व्यक्तित्व का यू टर्न  पाठक को थोड़ा अस्वाभाविक लग सकता है ।  किन्तु ज्यों ज्यों कहानी बढ़ती है नायिका की मनोदशा में संवेदनशील पाठक खो जाता है । पाठक को अपने परिवेश में ऐसे ही दृश्य समझ आते हैं , भले ही उसने वह सब अखबारी खबरों से देखे हों , स्वअनुभूत हों या दुनियांदारी ने सिखाये हों , पर स्त्री की विवशता पाठक के हृदय में करुणा उत्पन्न करती है । यह लेखकीय सफलता है ।

मुझे स्मरण है पहले जब मैं किताबें पढ़ा करता था तो शाश्वत मूल्य के पैराग्राफ लिख लिया करता था , अब तो माध्यम बदल रहे हैं , कई किताबें सुना करता हूं तो कई किंडल पर पढ़ने मिलती हैं । उपन्यास मानसी के वे पैराग्राफ जो रेखांकित किये जाने चाहिये , अपनी प्रारंभिक लेखकीय अभिव्यक्ति " कुछ तो देखा है " में चंद्रभान जी ने स्वयं संजो कर प्रस्तुत किये हैं । केवल इतना ही पढ़ने से सजग पाठक अपना कौतुहल रोक नहीं पायेंगे और विचारोत्तेजना उन्हें यह उपन्यास पूरा पढ़ने को प्रेरित करेगी , अतः कुछ अंश उधृत हैं ...

'स्त्री', जब बड़ी हो जाती है तो लोगों की निगाहों में आती है। लोग स्त्री को सराहते नहीं है। सहलाने लगते हैं। यहीं से मर्द की विकृत मानसिकता और औरत की समझदारी का जन्म होता है ।

'स्त्री' जब प्रेम के वशीभूत किसी मर्द के साथ होती है तो वह उस समय उसकी पसर्नल होती है। उसके पश्चात वही मर्द उसको 'वेश्या' का नाम धर देता है।

'स्त्री' को दो घण्टे के लिए होटल का कमरा कोई भी मर्द उपलब्ध करा देता है लेकिन जीवन भर के लिए छत उपलब्ध करना मर्द के लिए आसान नहीं।

'स्त्री' जब अपने देह के बदले रोटी को पाने की मशक्कत करे तब मर्द का वज़न उतना नहीं लगता जितना रोटी का लगता है। पेट की भूख मिटाने के खातिर स्त्री कब देह की भूख मिटाने लगती है उसे भी पता नहीं चलता ।

"स्त्री प्रतिदिन अपने ऊपर से न जाने कितने वज़नदार मर्दों को उतर जाने देती है। वो उतने वज़नदार नहीं लगते जितनी की रोटी लगती है।"

"मैं जब किसी कमरे में वस्त्र उतारती हूँ तो मेरे साथ एक मर्द भी होता है। सच कहती हूँ तब मैं उसकी पसर्नल होती हूँ। "

"मर्द घर की स्त्री से कहीं ज्यादा आनन्द, संतुष्टि और प्रेम बाहर की स्त्री से पाता है लेकिन बाहर की स्त्री को वो मान-सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं देता जो घर की स्त्री को देता है।"

"उन स्त्रियों का जीवन मर्द की प्रतीक्षा में कट जाता है, लेकिन उनकी ये प्रतीक्षा भी अलग अंदाज में होती है। घर की स्त्री भी मर्द की प्रतीक्षा करती है, उसका अपना अलग तरीका होता है।"

" दो घण्टे के साथ में उन स्त्री को सब कुछ मर्द से मिल जाता है। जिन्हें वो खुशी-खुशी स्वीकार कर लेती है। वहीं जीवन भर साथ रहने के पश्चात भी घर की स्त्री, मर्द से कहने से नहीं चूकती 'तुमने किया ही क्या है, मेरे तो नसीब फूट गए, तम्हारे साथ रहते-रहते। ज़िन्दगी बरबाद हो गई।'

'स्त्री', ग्लेमर की दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के खातिर खड़ी होती है। समाज कब उसकी अलग पहचान बना देता है स्वयं स्त्री को भी पता नहीं चल पाता।"

'स्त्री' कल भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही थी, आज भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही है। स्त्री समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए उन रास्तों पर कब चली जाती है जो जीवन को अंधकार की और मोड़ देता है।'स्त्री' कभी स्वेच्छा से तो कभी विवश होकर, मजबूरी के कारण मर्द का साथ चाहती है। मर्द का साथ होना ही स्त्री को आत्मबल, सम्बल देता है। स्त्री जब मर्द के पीछे होती है तो स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है। स्त्री जब मर्द के आगे होती है तो वह किसी कवच से कम नहीं होती। मर्द की संकीर्ण मानसिकता के कारण मर्द आज भी स्त्री को नग्न अवस्था में देखना पसंद करता है। स्त्री देह का आकर्षण, मर्द के लिए स्वर्णीय कल्पना लोक में जाने से कम प्रसन्नता का अवसर नहीं होता।"

मानसी' एक ऐसी स्त्री की आत्मकथा है जो आई तो थी दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के लिए लेकिन दुनियाँ ने उसकी अलग ही पहचान बना दी और नाम धर दिया 'वेश्या' है।'स्त्री' वेश्या की पहचान लेकर समाज में स्वच्छन्द नहीं घूम सकती। आज भी स्त्री को देवी स्वरूप की दृष्टी से देखने का चलन है। देखना और दिखाना दोनों में अंतर है। वही अंतर घर की स्त्री और बाहर की स्त्री में भी है।

घर की स्त्री और बाहर की स्त्री के साथ काम एक सा ही होता है। पर अलग-अलग नाम , अलग-अलग पहचान क्यों? "स्त्री, मर्द की भावना को समझ नहीं पाती या मर्द स्त्री को समझ नहीं पाता। स्त्री और मर्द के बीच प्रेम की खाईं को मिटा पाना किसी मर्द के बस की बात नहीं दिखती। यदि कहीं, कोई मर्द है, जो स्त्री की संतुष्टि का दावा करता है, तो वह मर्द वास्तव में समाज के लिए प्रणाम के योग्य है।"

लेखक बेबाकी से उन स्त्रियों का हृदय से आभार प्रकट करते हैं जिनके कारण उन्होंने स्त्री मन की भावनाओं तक पहुँच कर उन्हें समझने का प्रयास किया। और यह उपन्यास रचा । वे यह पुस्तक भी मैं उन स्त्रियों को समर्पित करते हैं जिन्होंने ऐसा जीवन जिया है। वे लिखते हैं उन स्त्रियों के साथ होते है, तो दूसरी दुनियाँ की अनुभूति होती है। उनकी दुनियाँ के आगे वास्तविक दुनिया मिथ्या लगती है। सच तो यही है कि उनको पता है कि हम ज़िन्दा क्यों हैं। मरने के लिए ज़िन्दा रहना कोई बड़ी बात नहीं है। बात तो तब है कि कुछ करने के लिए ज़िन्दा रहा जाए।

मुझे विश्वास है कि इस उपन्यास से चंद्रभान राही जी गंभीर स्त्रीविमर्श लेखक के रूप में साहित्य जगत में स्वीकार किये जायेंगे । उपन्यास अमेजन पर सुलभ है , पढ़कर मेरे साथ सहमति तय करिये ।


चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव

Friday, 6 September 2024

कुत्ते की वफादारी और कटखनापन अमिधा से हटकर, व्यंजना और लक्षणा में


 पुस्तक चर्चा

व्यंग्य संग्रह… अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो

लेखक..सुदर्शन सोनी, चार इमली, भोपाल

प्रकाशक…बोधि प्रकाशन जयपुर

पृष्ठ..१३६, मूल्य १५० रु

 

☆ व्यंग्य संग्रह… अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

कुत्ते की वफादारी और कटखनापन जब अमिधा से हटकर, व्यंजना और लक्षणा शक्ति के साथ इंसानो पर अधिरोपित किया जाता है तो व्यंग्य उत्पन्न होता है. मुझे स्मरण है कि इसी तरह का एक प्रयोग जबलपुर के विजय जी ने “सांड कैसे कैसे” व्यंग्य संग्रह में किया था, उन्होने सांडो के व्यवहार को समाज में ढ़ूंढ़ निकालने का अनूठा प्रयोग किया था. पाकिस्तान के आतंकियो पर मैंने भी “डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान…” एवं “मेरे पड़ोसी के कुत्ते” लिखे,  जिसकी  बहुत चर्चा व्यंग्य जगत में रही  है.  कुत्तों का  साहित्य में वर्णन बहुत पुराना है, युधिष्टर के साथ उनका कुत्ता भी स्वर्ग तक पहुंच चुका है. काका हाथरसी ने लिखा था..

पिल्ला बैठा कार में, मानुष ढोवें बोझ

भेद न इसका मिल सका, बहुत लगाई खोज

बहुत लगाई खोज, रोज़ साबुन से न्हाता

देवी जी के हाथ, दूध से रोटी खाता

कहँ ‘काका’ कवि, माँगत हूँ वर चिल्ला-चिल्ला

पुनर्जन्म में प्रभो! बनाना हमको पिल्ला

हाल ही पडोसी के एक मौलाना ने बाकायदा नेशनल टेलीविजन पर देश के आवारा कुत्तो को सजा धजा कर दूसरे देशों को मांस निर्यात करने का बेहतरीन प्लान किसी तथाकथित किताब के रिफरेंस से भी एप्रूव कर उनके वजीरे आजम को सुझाया है, जिसे वे उनके देश  की गरीबी दूर करने का नायाब फार्मूला बता रहे हैं. मुझे लगता है  शोले में बसंती को कुत्ते के सामने नाचने से मना क्या किया गया, कुत्तों ने  इसे पर्सनली ले लिया और उनकी वफादारी, खुंखारी में तब्दील हो गई. मैं अनेक लोगो को जानता हूं जिनके कुत्ते उनके परिवार के सदस्य से हैं.सोनी जी स्वयं एक डाग लवर हैं, उन्हीं के शब्दों में वे कुत्तेदार हैं, एक दो नही उन्होने सिरीज में राकी ही पाले हैं. एक अधिकारी के रूप में उन्होनें समाज, सरकार को कुछ ऊपर से, कुछ बेहतर तरीके से देखा समझा भी है. एक व्यंग्यकार के रूप में उनकी अनुभूतियों का लोकव्यापीकरण करने में वे बहुत सफल हुये हैं.  कुत्ते के इर्द गिर्द बुने विषयों पर  अलग अलग पृष्ठभूमि पर लिखे गये सभी चौंतीस व्यंग्य भले ही अलग अलग कालखण्ड में लिखे गये हैं किन्तु वे सब किताब को प्रासंगिक रूप से समृद्ध बना रहे हैं. यदि निरंतरता में एक ताने बाने एक ही फेब्रिक में ये व्यंग्य लिखे गये होते तो इस किताब में एक बढ़िया उपन्यास बनने की सारी संभावनायें थीं. आशा है सुदर्शन जी सेवानिवृति के बाद कुत्ते पर केंद्रित एक उपन्यास व्यंग्य जगत को देंगे, जिसका संभावित नाम उनके कुत्तों पर “राकी” ही होगा.

धैर्य की पाठशाला शीर्षक भी उन्हें कुत्तापालन और धैर्य कर देना था तो सारे व्यंग्य लेखो के शीर्षको में भी कुत्ता उपस्थित हो जाता. जेनेरेशन गैप इन कुत्तापालन, कम्फर्ट जोन व डागी,कुत्ताजन चार्टर, डोडो का पाटी संस्कार,  आदि शीर्षक ही स्पष्ट कर रहे हैं कि सोनी जी को आम आदमी की अंग्रेजी मिक्स्ड भाषा से परहेज नही है. उनकी व्यंग्यों में संस्मरण सा प्रवाह है. यूं तो सभी व्यंग्य प्रभावी हैं, गांधी मार्ग का कुत्ता, कुत्ता चिंतन, एक कुत्ते की आत्मकथा, उदारीकरण के दौर में कुत्ता आदि बढ़िया बन पड़े व्यंग्य हैं. किताब पठनीय है, श्वान प्रेमियो को भेंट करने योग्य है. न्यूयार्क में मुझे एक्सक्लूजिव डाग एसेसरीज एन्ड युटीलिटीज का सोरूम दिखा था “अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो ”  अंग्रेजी अनुवाद के साथ वहां रखे जाने योग्य मजेदार व्यंग्य संग्रह लगता है.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

सरदार पटेल के जीवन पर आधारित उपन्यास


एकता और शक्ति  (सरदार पटेल के जीवन पर आधारित उपन्यास)

 


एकता और शक्ति उपन्यास स्वतंत्र भारत के शिल्पकार  लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल के अप्रतिम योगदान पर आधारित कृति है. इस उपन्यास की रचना  गुजरात के रास ग्राम के एक सामान्य कृषक परिवार को केन्द्र में रख कर की गयी है. श्री वल्लभभाई पटेल के महान  व्यक्तित्व से प्रभावित होकर हजारो लोग खेड़ा सत्याग्रह के दिनों से ही उनके अनुगामी हो गए थे और उनकी संघर्ष यात्रा के सहयोगी बने थे.  पुस्तक में सरदार पटेल के व्यक्तित्व के महत्वपूर्ण पक्षों को और उनके अद्वितीय योगदान का प्रामाणिक रूप से वर्णन किया गया है.

महान स्वतंत्रता सेनानी… कर्मठ देशभक्त…  दूरदर्शी नेता… कुशल प्रशासक…! सरदार वललभभाई पटेल के सन्दर्भ में ये शब्द विशेषण नहीं हैं. ये दरअसल उनके व्यक्तित्व की वास्तविक छबि है.   स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद अनेक समस्याओं से जूझते हुए भारतवर्ष को संगठित करने, उसे सुदृढ़ बनाने और नवनिर्माण के पथ पर अग्रसर कराने में उनकी भूमिका अविस्मरणीय रही है. ‘एकता और शक्ति’ स्वतंत्र भारत के इस महान शिल्पी को लेखक की विनम्र श्रद्धांजली  है. यह उपनयास एक सामान्य कृषक परिवार  के किरदार से सरदार की कार्य -कुशलता, उनके प्रभावशाली नेतृत्व और अनुपम योगदान का का ताना-बाना बुनता है ।उपन्यास सरदार श्री के जीवन से सबंधित कई अल्पज्ञात या लगभग अनजान पहलुओं को भी नये सिरे और नये नजरिये से छूता है.

यह उपन्यास सरदार वल्लभभाई पटेल के अप्रतिम जीवन से  नयी पीढ़ी में राष्ट्रनिर्माण की अलख जगाने का कार्य कर सकता है . आज की पीढ़ी को सरदार के जीवन के संघर्ष से परिचित करवाना आवश्यक है, जिसमें यह उपन्यास अपनी महती भूमिका निभाता नजर आता है.

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देशी रियासतों का भारत में त्वरित विलय कराने, स्वाधीन देश में उपयुक्त प्रशासनिक व्यवस्था बनाने और कई कठिनाइयों से जूझते हुए देश को प्रगति के पथ पर अग्रसर कराने में, लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल का योगदान अप्रतिम रहा है. वे लाखों लोगों के लिए अक्षय प्रेरणा-स्रोत हैं. एकता और शक्ति, सरदार वल्लभभाई पटेल के योगदान पर आधारित एक ऐसा उपन्यास है जिसमें एक सामान्य कृषक परिवार की कथा के माध्यम से, सरदार श्री के प्रभावशाली कृशल नेतृत्व का एवं तत्कालीन घटनाओं का वर्णन किया गया है. साथ ही, एक सम्पन्न एवं सशक्त भारत के निर्माण हेतु उनके प्रेरक दिशा-निर्देशों पर भी प्रकाश डाला गया है.

 अमेरन्द्र नारायण एशिया एवं प्रशान्त क्षेत्र के अन्तरराष्ट्रीय दूर संचाार संगठन एशिया पैसिफिक टेली कॉम्युनिटी के भूतपूर्व महासचिव एवं भारतीय दूर संचार सेवा के सेवानिवृत्त कर्मचारी हैं. उनकी सेवाओं की प्रशंसा करते हुए उन्हें भारत सरकार के दूरसंचार विभाग ने स्वर्ण पदक से और संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेष एजेंसी अन्तर्राष्ट्रीय दूरसंचार संगठन ने टेली कॉम्युनिटी को स्वर्ण पदक से और उन्हें व्यक्तिगत रजत पदक से सम्मानित किया.

श्री नारायण के अंग्रेजी उपन्यास—फ्रैगरेंस बियॉन्ड बॉर्डर्स  का उर्दू अनुवाद खुशबू सरहदों के पास नाम से प्रकाशित हो चुका है. भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम अब्दुल कलाम साहब, भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी सहित कई गणमान्य व्यक्तियों ने इस पुस्तक की सराहना की है. महात्मा गांधी के चम्पारण सत्याग्रह और फिजी के प्रवासी भारतीयों की स्थिति पर आधारित उनका संघर्ष नामक उपन्यास काफी लोकप्रिय हुआ है. उनकी पाँच काव्य पुस्तकें—सिर्फ एक लालटेन जलती है, अनुभूति, थोड़ी बारिश दो, तुम्हारा भी, मेरा भी और श्री हनुमत श्रद्धा सुमन पाठकों द्वारा प्रशंसित हो चुकी हैं. श्री नारायण को अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने सम्मानित किया है.

श्री अमरेन्द्र नारायण जी  के इस प्रयास की व्यापक सराहना की जानी चाहिये . यह विचार ही रोमांचित करता है कि यदि देश का नेतृत्व लौह पुरुष सरदार पटेल के हाथो में सौंपा जाता तो आज कदाचित हमारा इतिहास भिन्न होता . पुस्तक पठनीय व संग्रहणीय है .

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .