Wednesday, 17 December 2025

ब्रेन ड्रेन, गेन या वेस्ट

 

 वैचारिक आलेख 

ब्रेन ड्रेन , ब्रेन गेन या ब्रेन वेस्ट ? 

विवेक रंजन श्रीवास्तव 



कड़े वीजा प्रतिबंध प्रतिभा के लोक व्यापीकरण पर कुठाराघात है और इस पूरे परिदृश्य को यदि किसी एक मुहावरे में समेटना हो तो वह है न घर का न घाट का। यह मुहावरा केवल भावनात्मक पीड़ा का संकेत नहीं देता बल्कि आधुनिक वैश्विक व्यवस्था में प्रतिभा के साथ हो रहे बौद्धिक अन्याय की सटीक व्याख्या भी करता है। आज का मेधावी युवा सीमाओं से परे सोचता है पर नीतियां उसे बार बार याद दिलाती हैं कि वह किसी न किसी फाइल का अस्थायी नाम मात्र है।


वैश्वीकरण ने यह विश्वास जगाया था कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं होगी और प्रतिभा वहां फलेगी जहां उसे सबसे उपजाऊ जमीन मिलेगी। परंतु व्यवहार में यह सपना कड़े वीजा नियमों की दीवार से टकरा कर चूर हो जाता है। विशेष रूप से वे युवा जो उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाते हैं और वर्षों की साधना के बाद उस मुकाम तक पहुंचते हैं जहां वे समाज को वास्तविक लाभ दे सकते हैं वहीं उन्हें बताया जाता है कि अब समय पूरा हुआ और लौट जाना चाहिए। यह वह क्षण होता है जब वे न उस देश के रह जाते हैं जिसने उन्हें गढ़ा और न उस देश के जहां से वे चले थे।


आई आई टी जैसे संस्थानों से निकले मेधावी छात्र जब अमेरिका जैसे देशों में शोध और तकनीक के क्षेत्र में प्रशिक्षण पाते हैं तो प्रारंभिक वर्षों में वे सीखने वाले होते हैं। समाज उनसे बहुत अपेक्षा नहीं करता। पर पांच छह वर्षों के बाद वही युवा नवाचार के वाहक बनते हैं नई सोच नए समाधान और नई दृष्टि लेकर खड़े होते हैं। दुर्भाग्य यह है कि यही वह समय होता है जब वीजा की समय सीमा उनकी राह रोक लेती है। परिणामस्वरूप वे उस समाज को कुछ दे ही नहीं पाते जिसके संसाधनों से उन्होंने सीखा और जिस समाज ने उन्हें अवसर दिया।


वापसी का विकल्प कागजों में सरल लगता है पर जीवन में उतना ही कठिन सिद्ध होता है। वर्षों विदेश में रहने के बाद उनका अपने देश से पेशेवर संपर्क कमजोर हो चुका होता है। तकनीकी परिवेश बदल चुका होता है संस्थागत ढांचे नए समीकरणों में बंध चुके होते हैं। वे लौटते तो हैं पर स्वागत में अवसरों की पगडंडी नहीं मिलती। वहां वे बाहरी हो जाते हैं और यहां पहले से ही बाहरी थे। इस तरह वे सचमुच न घर के रह जाते हैं न घाट के।


इस स्थिति में सबसे बड़ा नुकसान समाज का होता है। न तो मेजबान देश उस परिपक्व प्रतिभा का लाभ उठा पाता है और न ही मूल देश उसे समुचित स्थान दे पाता है। यह न तो ब्रेन ड्रेन है न ब्रेन गेन बल्कि ब्रेन वेस्ट है। वर्षों की शिक्षा प्रशिक्षण और अनुभव एक ऐसे खालीपन में गिर जाता है जहां उसका उपयोग संभव नहीं हो पाता। प्रतिभा का लोक व्यापीकरण जो ज्ञान को समाज के व्यापक हित में प्रवाहित करने की प्रक्रिया है वह यहीं आकर रुक जाती है।


विडंबना यह है कि वीजा नीतियों को अक्सर रोजगार सुरक्षा और राष्ट्रीय हित के नाम पर कठोर बनाया जाता है। पर यह नहीं सोचा जाता कि उच्च कौशल वाली प्रतिभा रोजगार छीनती नहीं बल्कि नए अवसर पैदा करती है। जब ऐसी प्रतिभा को वीजा के कारण बाहर किया जाता है तो समाज अपने ही भविष्य को संकुचित करता है। यह वैसा ही है जैसे फल से लदे पेड़ को इसलिए काट दिया जाए कि उसकी जड़ें कहीं और की मिट्टी से आई थीं।


अंततः यह प्रश्न केवल आव्रजन नीति का नहीं बल्कि दृष्टिकोण का है। यदि प्रतिभा को साझा मानवीय पूंजी माना जाए तो उसे न घर का न घाट का बनने से बचाया जा सकता है। अन्यथा हम ऐसे समय के साक्षी बनते रहेंगे जहां सबसे योग्य लोग सबसे अधिक असहाय होंगे और समाज यह कहते हुए आगे बढ़ जाएगा कि नियम तो नियम हैं। पर इतिहास गवाह है कि जब नियम मानव संभावनाओं से बड़े हो जाते हैं तब विकास ठहर जाता है और सभ्यता अपने ही बनाए तटों के बीच फंसी रह जाती है।


विवेक रंजन श्रीवास्तव 

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