Friday, 4 May 2012

खण्ड खण्ड मत करो इसे घर तो यह मेरा है !

खण्ड खण्ड मत करो इसे घर तो यह मेरा है ! माननीय सुप्रिम कोर्ट ने उ. प्र. में बिना वास्तविक सर्वे के ही , राजनैतिक हितो के लिये आदिम जनजाति तथा अनुसूचित जनजाति के सरकारी कर्मचारियो को विभागीय पदोन्नति में निरंतर आरक्षण का लाभ देने के सरकारी फैसले को गलत निरूपित किया है . माननीय न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी करने के लिये संसद में कानून लाने की राजनैतिक चर्चा सरगर्मी पर है .देश की यह स्थिति बहुत खेदजनक है . जब संविधान बनाया गया था तब क्या इसी तरह के आरक्षण की कल्पना की गई थी ? क्या स्वयं बाबा साहब अंबेडकर यह नही चाहते थे कि दलित वर्ग के भारतीय नागरिक भी बराबरी से देश की मूल धारा में शामिल हों ? क्या ६५ सालो से लगातार आरक्षण के मुद्दे का राजनैतिक उपयोग नही हो रहा है ? क्या जातिगत आरक्षण के आधार पर आवश्यकता से अधिक ऊपर उठे हुये दलित वर्ग को आज समाज में बेवजह हीन भावना का शिकार नही बनना पड़ता ! क्या इस तरह के एक्सलेरेटेड प्रमोशन के चलते सारे सरकारी विभागो के शीर्ष पदो पर कम दक्ष लोगो का बोलबाला नही हो गया है ? जिसके चलते सही निर्णयो की जगह राजनैतिक , व्यक्तिगत हितो वाले निर्णय नहीं हो रहे हैं ? इस सारी प्रक्रिया से देश क्या सवर्णो के प्रतिभावान व्यक्तियो को कुंठित नही कर रहा है ? क्या हम इस व्यवस्था से एक नये वर्ग संघर्ष को जन्म नही दे रहे हैं ? ऐसे ढ़ेर से सवाल हर बुद्धिजीवी के मन में कौंध रहे हैं . पर ये सारे प्रश्न , अनुत्तरित हैं ! किसी नेता में यह साहस नही है कि वह सत्य को सही तरीके से प्रस्तुत कर जनता को विश्वास में लेकर देश को घुटन से बचावे . जो संगठन आरक्षण के विरोध में सामने आ रहे हैं वे केवल प्रतिक्रिया में उपजते हैं , उनके भी अपने निहित स्वार्थ मात्र हैं . किसी को उस आदर्श की रत्ती भर भी चिंता नही है जो संविधान की मूल भावना है . संविधान देश के प्रत्येक नागरिक को जाति , धर्म , वर्ग , क्षेत्रीयता से हटकर बराबरी का दर्जा देता है , पर जिस तरह का शासन देश में चल रहा है , क्या उसके चलते आज से सौ बरस बाद भी ऐसी आदर्श बराबरी की कल्पना हम आप कर सकते हैं ? क्षुद्र स्वार्थो के चलते राज्य विखण्डित किये जा रहे हैं , सरकारी तंत्र में नये नये विभाग , निगम , मण्डल और कंपनियां बनाकर अपने लोग बैठाये जा रहे हैं ! उपर से तुर्रा यह है कि राजनेता ऐसी हर विखण्डन की कार्यवाही को विकास से जोड़कर जनहित में बताते हैं , और हम सब मौन सुनने को बाध्य हैं . लोकतंत्र के नाम पर सरकारें बनाने , सरकारें चलाने के लिये छोटे छोटे दल राजनैतिक सौदेबाजी , निगोशियेशन , पैकेज डील को सही निरूपित कर रहे हैं ! यदि कोई बाबा रामदेव या केजरीवाल की तरह संसद में बैठे लोगो के विरुद्ध कोई अंगुली भी उठाता है तो ये ही लोकतंत्र के पुजारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को तिलांजली देकर उसके विरुद्ध हर संभव जांच प्ररंभ करने को भी सही सिद्ध करने से बाज नही आते . मैं केवल एक तटस्थ शुद्ध भारतीय नागरिक की हैसियत से सोचने की अपील करना चाहता हूं , जब आप यह भूलकर कि आप किस जाति , संप्रदाय या पार्टी के हैं , विशाल हृदय और सार्वभौमिक दृष्टि से सोचकर नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत पर मनन करेंगे तो आप भी वही निर्णय लेंगे जिसकी झलक सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले में ध्वनित होती है . यह सही है कि न्यायालयीन फैसला संवैधानिक और नियमो की धाराओ , उपधाराओ में बंधा हो सकता है , पर एक कानून न जानने वाला मेरे जैसा साधारण देश प्रेमी नागरिक यही कहेगा कि आरक्षण से खण्ड खण्ड मत करो इसे , घर तो यह मेरा है ! विवेक रंजन श्रीवास्तव

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