मण्डला के नर्मदा तट पर गोपालराम गहमरी ने रचे थे हिंदी के पहले जासूसी उपन्यास
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १ ,शिला कुन्ज , रामपुर , जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
दुनियां में नर्मदा ही एकमात्र ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की परम्परा है . यही नर्मदा मण्डला नगरी की तीन ओर से परिक्रमा करती है . नदी के एक तट पर मण्डला नगर है , नर्मदा से बंजर नदी के संगम पर खड़ा बुर्ज और किला है तो दूसरे तट पर महाराजपुर उपनगर है जहाँ मालगुजार चौधरी मुन्नालाल व जगन्नाथ चौधरी जी का भव्य महलनुमा प्रांगण है , मंदिर हैं . मण्डला के विश्व प्रसिद्ध जंगलो , नदी तट के प्राकृतिक दृश्य लेखकीय मन में रचनाओ का स्फुरण करते हैं . मण्डला से कोई 20 किलोमीटर की दूरी पर नर्मदा तट पर ही गौड राजाओ का रामनगर किला है व पास ही सुप्रसिद्ध करिया पहाड़ है , इस पहाड़ की विशेषता यह है कि लगभग 900 मीटर उँचे पहाड़ी पर सारे पत्थर पंचकोणीय 3 से 4 मीटर लम्बी बीम के आकार के हैं , ये पत्थर किसी भी मिट्टी से जुड़े नही हैं , अर्थात ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने काले पत्थरो की बीम बनवा कर उनका बेतरतीब संग्रह कर रखा हो पर यह प्राकृतिक है . गोपाल राम गहमरी जी का एक उपन्यास है " करिया पहाड़ " निश्चित ही यह इस पहाड़ से अभिप्रेरित पृष्ठभूमि पर लिखी हुई रचना है . मधुपुरी भी मण्डला के पास ही एक गांव है , गहमरी जी का एक उपन्यास "मधुपुरी के चोर" है . उनकी रचनाओ पर मण्डला का प्रभाव अलग विस्तृत शोध का विषय है .जिस पर कार्य किये जाने की जरूरत है . मैं मूलतः मण्डला का निवासी हूं . हमारा परिवार मण्डला के पुराने कुछ पढ़े लिखे परिवारो में से है . मेरे घर महलात के निकट ही श्री राम अग्रवाल पुस्तकालय है ,मैं इसका सदस्य था अपने बचपन में मैंने वहां खूब किताबें पढ़ी हैं ,उन दिनो उसका संचालन श्री गिरिजा शंकर अग्रवाल करते थे . उनसे मैंने स्व गोपालराम गहमरी जी के मण्डला में ही हिन्दी के पहले जासूसी उपन्यास लेखन का संस्मरण सुना था . शायद मैने तब गहमरी जी की कोई किताब पढ़ी भी थी . अतः जब गहमर के इस आयोजन में मुझे सम्मानित करने का प्रस्ताव आया तो मैं गहमर जी के विषय में और जानने की इच्छा से मना नही कर सका यद्यपि सामान्यतः मैं सम्मानो से दूर ही रहता हूं .
कहा जाता है कि एक बार सन् 1882 में मुन्नालाल जी चौधरी अपने एक रिश्तेदार के यहाँ गहमर गये थे. वहां पर गोपालराम नाम के एक बालक से उनकी मुलाकात हुई. बालक की प्रतिभा से प्रभावित होकर चौधरी जी उसे अपने साथ महाराजपुर ले आए . महाराजपुर आने के पहले गोपालराम जी मातृ-पितृविहीन हो चुके थे क्योंकि उन्होंने अपने उपन्यास 'सास पतोहू' (1899) में लिखा है कि बड़े लोगों के मुँह से बेटा या बेटी शब्द सुनते कैसा मीठा लगता है . चौधरी जी से उन्हें पितृवत संरक्षण मिला. गहमरी जी का कार्य महाराजपुर में जगन्नाथ चौधरी को पढ़ाना था , और मुन्नालाल जी के कार्य में सहयोग करना था. महाराजपुर में ही रहकर गहमर जी ने बंगला उपन्यासों का अनुवाद हिन्दी में किया . चौधरी जी के रिकार्ड में अभी भी उनके द्वारा किया हुआ पत्र-व्यवहार, अनुवाद कार्य संबंधी लेखा-जोखा मौजूद है. यहीं पर रहते हुए केहरपुर निवासी पंडित बालमुकुन्द परोहित से गहमरी जी का परिचय हुआ. पुरोहित जी उस समय सागर में तहसीलदार थे. गहमरी जी ने अपना उपन्यास 'सास पतोहू' पुरोहित जी को ही समर्पित किया है. महाराजपुर के चौधरी बाड़ा में रहते हुए गहमरी जी ने 'शोणितचक', 'घटना घटाटोप', 'माधवीकंकण' उपन्यासों की रचना की. इसी समय मंडल महाराजपुर में 'कंठ कोकिला' नामक साहित्यिक संस्था का गठन हुआ, जिसमें बाबू जगन्नाथ प्रसाद मिश्र, पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय, पं. रेवाशंकर चौबे, गोपाल कवि, सेठ भद्देलाल जी अग्रवाल, चौधरी जगन्नाथ प्रसाद के साथ गहमरी जी भी सदस्य थे. उस समय गहमरी जी के द्वारा अनेक नाटक भी अनुदित किए गए जिसमें 'विद्या विनोद' (1892), 'देशदशा' (1892), 'यौवनयोगिनी' (1893), 'दादा और मैं' (1893), 'चित्रागंदा' (1895) तथा 'वग्रूवाहन' एवं 'जैसे को तैसा' आदि प्रमुख हैं . सामाजिक उपन्यासों में 'चतुरचंचला' (1893), 'भानुमति' (1884), 'नये बाबू', 'सास पतोहू', 'देवरानी-जेठानी दो बहन', 'तीन पतोहू', 'गृहलक्ष्मी', 'ठन-ठन गोपाल' आदि उपन्यासों से गहमरी जी ने विशेष प्रसिध्दि पाई. गहमरी जी ने इन उपन्यासों को मण्डला के रायबहादुर जगन्नाथ चौधरी को समर्पित किया था. जगन्नाथ चौथरी द्वारा लिखित 'हरिशचन्द्र' नाटक महाराजपुर में ही खेला गया था , निश्चित ही उसके लेखन में गहमर जी का साथ प्रेरक रहा होगा . 1866 से 1882 तक गहमरी जी का कार्यक्षेत्र महाराजपुर ही रहा. गहमरीजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. वे कवि, अनुवादक, उपन्यासकार, निबंधकार, नाटककार, कहानीकार के रूप में जाने जाते थे. आपने मुम्बई के बेकेटेश्वरी प्रेस में भी काम किया था। आप राजा रामपाल के आमंत्रण पर कालाकांकर भी गये थे। आपने महाराजपुर में रहते हुए मेरठ से प्रकाशित होने वाले 'साहित्य सरोज' पत्रिका का सम्पादन किया था और वहीं से आपने पहला जासूसी ढंग का मासिक-पत्र 'गुप्तकथा' नाम से निकाला था. फिर आप पाटन आ गये थे. 1897 में पुन: मुम्बई गये थे . 1899 में कोलकाता जाकर 'भारत मित्र' का स्थानापन्न संपादक बन कार्य किया था . 1900 में गहमर लौटे और अंत तक 'जासूस' नामक पत्रिका का सम्पादन करते रहे.गोपालराम गहमरी ने लगभग 64 मौलिक जासूसी उपन्यास लिखे , अनूदित उपन्यासों को मिला दें तो यह संख्या 200 पहुंच जाती है . यदि गहमरी जी के साहित्य के अध्ययन के बाद कोई शोधार्थी समुचित दृष्टि के साथ मण्डला का भ्रमण करे तो गहमरी जी के साहित्य पर मण्डला के परिवेश के प्रभाव का आकलन नई खोज कर सकता है .
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १ ,शिला कुन्ज , रामपुर , जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
दुनियां में नर्मदा ही एकमात्र ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की परम्परा है . यही नर्मदा मण्डला नगरी की तीन ओर से परिक्रमा करती है . नदी के एक तट पर मण्डला नगर है , नर्मदा से बंजर नदी के संगम पर खड़ा बुर्ज और किला है तो दूसरे तट पर महाराजपुर उपनगर है जहाँ मालगुजार चौधरी मुन्नालाल व जगन्नाथ चौधरी जी का भव्य महलनुमा प्रांगण है , मंदिर हैं . मण्डला के विश्व प्रसिद्ध जंगलो , नदी तट के प्राकृतिक दृश्य लेखकीय मन में रचनाओ का स्फुरण करते हैं . मण्डला से कोई 20 किलोमीटर की दूरी पर नर्मदा तट पर ही गौड राजाओ का रामनगर किला है व पास ही सुप्रसिद्ध करिया पहाड़ है , इस पहाड़ की विशेषता यह है कि लगभग 900 मीटर उँचे पहाड़ी पर सारे पत्थर पंचकोणीय 3 से 4 मीटर लम्बी बीम के आकार के हैं , ये पत्थर किसी भी मिट्टी से जुड़े नही हैं , अर्थात ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने काले पत्थरो की बीम बनवा कर उनका बेतरतीब संग्रह कर रखा हो पर यह प्राकृतिक है . गोपाल राम गहमरी जी का एक उपन्यास है " करिया पहाड़ " निश्चित ही यह इस पहाड़ से अभिप्रेरित पृष्ठभूमि पर लिखी हुई रचना है . मधुपुरी भी मण्डला के पास ही एक गांव है , गहमरी जी का एक उपन्यास "मधुपुरी के चोर" है . उनकी रचनाओ पर मण्डला का प्रभाव अलग विस्तृत शोध का विषय है .जिस पर कार्य किये जाने की जरूरत है . मैं मूलतः मण्डला का निवासी हूं . हमारा परिवार मण्डला के पुराने कुछ पढ़े लिखे परिवारो में से है . मेरे घर महलात के निकट ही श्री राम अग्रवाल पुस्तकालय है ,मैं इसका सदस्य था अपने बचपन में मैंने वहां खूब किताबें पढ़ी हैं ,उन दिनो उसका संचालन श्री गिरिजा शंकर अग्रवाल करते थे . उनसे मैंने स्व गोपालराम गहमरी जी के मण्डला में ही हिन्दी के पहले जासूसी उपन्यास लेखन का संस्मरण सुना था . शायद मैने तब गहमरी जी की कोई किताब पढ़ी भी थी . अतः जब गहमर के इस आयोजन में मुझे सम्मानित करने का प्रस्ताव आया तो मैं गहमर जी के विषय में और जानने की इच्छा से मना नही कर सका यद्यपि सामान्यतः मैं सम्मानो से दूर ही रहता हूं .
कहा जाता है कि एक बार सन् 1882 में मुन्नालाल जी चौधरी अपने एक रिश्तेदार के यहाँ गहमर गये थे. वहां पर गोपालराम नाम के एक बालक से उनकी मुलाकात हुई. बालक की प्रतिभा से प्रभावित होकर चौधरी जी उसे अपने साथ महाराजपुर ले आए . महाराजपुर आने के पहले गोपालराम जी मातृ-पितृविहीन हो चुके थे क्योंकि उन्होंने अपने उपन्यास 'सास पतोहू' (1899) में लिखा है कि बड़े लोगों के मुँह से बेटा या बेटी शब्द सुनते कैसा मीठा लगता है . चौधरी जी से उन्हें पितृवत संरक्षण मिला. गहमरी जी का कार्य महाराजपुर में जगन्नाथ चौधरी को पढ़ाना था , और मुन्नालाल जी के कार्य में सहयोग करना था. महाराजपुर में ही रहकर गहमर जी ने बंगला उपन्यासों का अनुवाद हिन्दी में किया . चौधरी जी के रिकार्ड में अभी भी उनके द्वारा किया हुआ पत्र-व्यवहार, अनुवाद कार्य संबंधी लेखा-जोखा मौजूद है. यहीं पर रहते हुए केहरपुर निवासी पंडित बालमुकुन्द परोहित से गहमरी जी का परिचय हुआ. पुरोहित जी उस समय सागर में तहसीलदार थे. गहमरी जी ने अपना उपन्यास 'सास पतोहू' पुरोहित जी को ही समर्पित किया है. महाराजपुर के चौधरी बाड़ा में रहते हुए गहमरी जी ने 'शोणितचक', 'घटना घटाटोप', 'माधवीकंकण' उपन्यासों की रचना की. इसी समय मंडल महाराजपुर में 'कंठ कोकिला' नामक साहित्यिक संस्था का गठन हुआ, जिसमें बाबू जगन्नाथ प्रसाद मिश्र, पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय, पं. रेवाशंकर चौबे, गोपाल कवि, सेठ भद्देलाल जी अग्रवाल, चौधरी जगन्नाथ प्रसाद के साथ गहमरी जी भी सदस्य थे. उस समय गहमरी जी के द्वारा अनेक नाटक भी अनुदित किए गए जिसमें 'विद्या विनोद' (1892), 'देशदशा' (1892), 'यौवनयोगिनी' (1893), 'दादा और मैं' (1893), 'चित्रागंदा' (1895) तथा 'वग्रूवाहन' एवं 'जैसे को तैसा' आदि प्रमुख हैं . सामाजिक उपन्यासों में 'चतुरचंचला' (1893), 'भानुमति' (1884), 'नये बाबू', 'सास पतोहू', 'देवरानी-जेठानी दो बहन', 'तीन पतोहू', 'गृहलक्ष्मी', 'ठन-ठन गोपाल' आदि उपन्यासों से गहमरी जी ने विशेष प्रसिध्दि पाई. गहमरी जी ने इन उपन्यासों को मण्डला के रायबहादुर जगन्नाथ चौधरी को समर्पित किया था. जगन्नाथ चौथरी द्वारा लिखित 'हरिशचन्द्र' नाटक महाराजपुर में ही खेला गया था , निश्चित ही उसके लेखन में गहमर जी का साथ प्रेरक रहा होगा . 1866 से 1882 तक गहमरी जी का कार्यक्षेत्र महाराजपुर ही रहा. गहमरीजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. वे कवि, अनुवादक, उपन्यासकार, निबंधकार, नाटककार, कहानीकार के रूप में जाने जाते थे. आपने मुम्बई के बेकेटेश्वरी प्रेस में भी काम किया था। आप राजा रामपाल के आमंत्रण पर कालाकांकर भी गये थे। आपने महाराजपुर में रहते हुए मेरठ से प्रकाशित होने वाले 'साहित्य सरोज' पत्रिका का सम्पादन किया था और वहीं से आपने पहला जासूसी ढंग का मासिक-पत्र 'गुप्तकथा' नाम से निकाला था. फिर आप पाटन आ गये थे. 1897 में पुन: मुम्बई गये थे . 1899 में कोलकाता जाकर 'भारत मित्र' का स्थानापन्न संपादक बन कार्य किया था . 1900 में गहमर लौटे और अंत तक 'जासूस' नामक पत्रिका का सम्पादन करते रहे.गोपालराम गहमरी ने लगभग 64 मौलिक जासूसी उपन्यास लिखे , अनूदित उपन्यासों को मिला दें तो यह संख्या 200 पहुंच जाती है . यदि गहमरी जी के साहित्य के अध्ययन के बाद कोई शोधार्थी समुचित दृष्टि के साथ मण्डला का भ्रमण करे तो गहमरी जी के साहित्य पर मण्डला के परिवेश के प्रभाव का आकलन नई खोज कर सकता है .
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