Saturday, 5 June 2021

आत्म साक्षात्कार

 आत्म साक्षात्कार

प्रतिबिम्ब ‌‍...

विवेक रंजन श्रीवास्तव "विनम्र"      

बंगला नम्बर ए १ , विद्युत मंडल कालोनी , रामपुर , जबलपुर ४८२००८


हर बार एक नया ही चेहरा कैद करता है कैमरा मेरा ...

खुद अपने आप को अब तक

कहाँ जान पाया हूं,  

खुद की खुद में तलाश जारी है

हर बार एक नया ही रूप कैद करता है कैमरा मेरा

प्याज के छिलकों की या

पत्ता गोभी की परतों सा

वही डी एन ए किंतु

हर आवरण अलग आकार में ,

नयी नमी नई चमक लिये हुये

किसी गिरगिट सा,

या शायद केलिडेस्कोप के दोबारा कभी

पिछले से न बनने वाले चित्रों सा  

अक्स है मेरा .

झील की अथाह जल राशि के किनारे बैठा

में देखता हूं खुद का

प्रतिबिम्ब .

सोचता हूं मिल गया मैं अपने आप को

पर

जब तक इस खूबसूरत

चित्र को पकड़ पाऊं

एक कंकरी जल में

पड़ती है

और मेरा चेहरा बदल जाता है

अनंत

उठती गिरती दूर तक

जाती

लहरों में गुम हो जाता हूं मैं .  


कोई बता दो हमारे बारे में हम खुद बताएं भी तो क्या ...


जलाभिषेक गागर से बूंद बूंद ...

बिन्दु रूप परिचय

१९५९ में मण्डला के एक साहित्यिक परिवार में जन्म .

माँ ... स्व दयावती श्रीवास्तव ...सेवा निवृत प्राचार्या

पिता ... प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध ... वरिष्ठ साहित्यकार

पत्नी ... श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव ... स्वतंत्र लेखिका

इंजीनियरिंग की पोस्ट ग्रेडुएट शिक्षा के बाद विद्युत मण्डल में शासकीय सेवा . संप्रति जबलपुर मुख्यालय में मुख्य अभियंता के रूप में सेवारत . परमाणु बिजली घर चुटका जिला मण्डला के प्रारंभिक सर्वेक्षण से स्वीकृति , सहित अनेक उल्लेखनीय लघु पन बिजली परियोजनाओ , १३२ व ३३ कि वो उपकेंद्रो , केंद्रीय प्रशिक्षण केंद्र जबलपुर आदि के निर्माण का तकनीकी गौरव . बिजली का बदलता परिदृश्य , जल जंगल जमीन आदि तकनीकी किताबें . हिन्दी में वैज्ञानिक विषयों पर निरंतर लेखन , हि्ंदी ब्लागिंग .

१९९२ में नई कविताओ की पहली किताब  आक्रोश  तार सप्तक अर्ध शती समारोह में भोपाल मे विमोचित , इस पुस्तक को दिव्य काव्य अलंकरण मिला ..

व्यंग्य की किताबें रामभरोसे , कौआ कान ले गया , मेरे प्रिय व्यंग्य , धन्नो बसंती और बसंत  , बकवास काम की , जय हो भ्रष्टाचार की ,समस्या का पंजीकरण , खटर पटर व अन्य  प्रिंट व किंडल आदि प्लेटफार्म पर .

मिली भगत , एवं लाकडाउन  नाम से  सँयुक्त वैश्विक व्यंग्य संग्रह का संपादन .

व्यंग्य के नवल स्वर , आलोक पौराणिक व्यंग्य का ए टी एम , बता दूं क्या , अब तक 75 , इक्कीसवीं सदी के 131 श्रेष्ठ व्यंग्यकार , 251 श्रेष्ठ व्यंग्यकार ,  निभा आदि संग्रहो में सहभागिता

हिन्दोस्तां हमारा , जादू शिक्षा का नाटक संग्रह चर्चित व म. प्र. साहित्य अकादमी से सम्मानित, पुरस्कृत

पाठक मंच के माध्यम से नियमित पुस्तक समीक्षक

https://e-abhivyakti.com के साहित्य सम्पादक

म प्र साहित्य अकादमी ,पाथेय , मंथन ,वर्तिका , हिन्दी साहित्य सम्मेलन ,  तुलसी साहित्य अकादमी व अनेक साहित्यिक़ संस्थाओं , सामाजिक लेखन के लिये रेड एण्ड व्हाईट सम्मान से सम्मानित .

वर्तिका पंजीकृत साहित्यिक सामाजिक संस्था के संयोजक

टी वी , रेडियो , यू ट्यूब , पत्र पत्रिकाओ में निरंतर प्रकाशन .

ब्लॉग

http://vivekkevyang.blogspot.com

व अन्य ब्लॉग

संपर्क

readerswriteback@gmail.com


और जानना है , तो पढ़िये ...

जो जाना खुद के बारे में मम्मी पापा से ...

कान्हा राष्ट्रीय अभयारण्य के लिये विश्व प्रसिद्ध , गौंड़ , बैगा , आदिवासी बहुल जिले मण्डला में जिला मुख्यालय की बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक शाला में साहित्यकार व लोकप्रिय व्याख्याता श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव "विदग्ध" होस्टल वार्डन थे . उनकी पत्नी  श्रीमती दयावती श्रीवास्तव भी मण्डला के ही रानी रामगढ़ उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में व्याख्याता थीं . अपनी कुण्डली में पढ़ा है , भुनसारे प्रातः ५ बजकर २५ मिनट पर , २८.जुलाई.१९५९ को सूर्य रश्मियों के आगमन के साथ ही रिमझिम बरसात के मौसम में इस दम्पति के घर मंडला में विवेक रंजन श्रीवास्तव का जन्म हुआ . मण्डला में तब बिजली आई आई ही थी . घरों में बिजली के नये नये  कनेक्शन हुये थे . मतलब बिजली के लट्टू की सुनहरी रोशन रोशनी से अपना जन्मजात नाता है . बिजली थी तो हमारे जन्म पर तांबे की जाली के एरियल और डायोड लैंम्प वाला बुश बैरन रेडियो खरीदा गया था . आज भी बाकायदा चालू हालात में पत्नी ने उसे ड्राइंग रूम में एंटीक पीस के रूप में सहेज रखा है . कुर्सी पर बैठे हुये एक प्यारे से बच्चे की हार्ड बोर्ड माउन्टेड बडी सी ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटो , जो घर पर फोटोग्राफर बुलवाकर खिंचवाई गई थी , घर पर है , जिसमें पेंसिल से निक नेम लिखा हुआ है " गुड्डा ".  जी हाँ , माँ  प्यार से आजीवन मुझे गुड्डा बुलाती रहीं .

विवेक रंजन अपनी उच्चशिक्षित एक बड़ी बहन तथा दो छोटी बहनो के इकलौते भाई हैं . बचपन से ही मेधावी छात्र के रूप में उन्होने अपनी पहचान बनाई .किशोरावस्था आते आते उन पर  माता पिता के साहित्यिक संस्कारो का प्रभाव स्पष्ट दिखने लगा . कक्षा चौथी  में जबलपुर के विद्यानगर स्कूल में जब महात्मा गांधी का पात्र अभिनित किया तो "मोहन" के इस रोल में वे ऐसे डूब गये कि मुख्य अतिथि ने उन्हें वहीं तुरंत ५१ रुपयो का नगद पुरस्कार दिया .लिखने की जरूरत नही कि वर्ष १९६८ में  ५१ रुपये क्या महत्व रखते थे . शायद तभी विवेक रंजन में नाटककार के बीज बोये जा चुके थे . जो आगे चल आज नाटक लेखक के रूप में मुखरित हुये .


अपने होश में ...

कक्षा छठवीं के विवेक रंजन के लेखक होने के प्रमाण मौजूद हैं , सरायपाली उच्चतर माध्यमिक शाला की शालेय पत्रिका "उन्मेष" में प्रकाशित मेरे लेख की कतरन मौजूद है . कक्षा आठवीं की बोर्ड परीक्षा में  मेरिट में स्थान मिला . हाईस्कूल की शिक्षा के लिये ग्रामीण प्रतिभावान छात्रवृत्ति मिली .  रायपुर अभियांत्रिकी महाविद्यालय से सिविल इजीनियरिंग में बी ई की परीक्षा आनर्स के साथ उत्तीर्ण की . कालेज की पत्रिका आलोक का लगातार संपादन , आकाशवाणी रायपुर के युववाणी कार्यक्रम में विज्ञान कथाओ की प्रस्तुतियां की . तत्कालीन युववाणी प्रभारी लक्ष्मेंद्र चौपड़ा जी थे . बाद के दिनों में रायपुर , जबलपुर व भोपाल के आकाशवाणी केन्द्रो से भी प्रसारण हुये . तभी से रेडियो रूपक भी लिख रहे हैं .स्मरण है रायपुर आकाशवाणी से १९७८ में युववाणी के  पहले प्रसारण के लिये  ३० रुपये का चैक प्राप्त हुआ था . पुरानी बातें मन में हुलास भर देतीं है . मेरी परिचर्चायें रायपुर के अखबारों महाकौशल , देशबन्धु और नवभारत आदि में छपा करती थीं , स्व अजीत जोगी तब जिलाधीश रायपुर थे , वे मूलतः मेकेनिकल इंजीनियर थे और उनकी पत्नी श्रीमती रेणु जोगी डाक्टर थीं . मैंने अजीत जोगी जी का साक्षात्कर किया था .  बाद में उन्हें अपने होस्टल डे पर अतिथि के रूप में भी बुलाया था . मंच संचालन मैं ही कर रहा था . कालेज की सांस्कृतिक गतिविधियो से जुड़े ही रहता था .इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स के स्टूडेंट चेप्टर व कालेज के फोटोग्राफी क्लब का अध्यक्ष भी रहा .  वे दिन थे जब डार्करूम में लाल लाइट में सिल्वर आयोडाइड से फिल्म धोई जाती थी . मुझे फोटोग्राफी में अनेक पुरस्कार भी मिले . उद्यानकी में भी रुचि है . बागवानी का शौक रहा , मेरे बनाये ४० वर्ष पुराने बरगद , पीपल आदि बोनसाई अभी भी मेरे बगीचे में मुझसे बातें करते हैं .


इंजीनियर विवेक ...

बी ई के तुरंत बाद फाउंडेशन इंजीनियरिंग में मौलाना आजाद रीजनल कालेज  भोपाल से स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त की . तुरंत ही १९८१ में मध्यप्रदेश विद्युत मण्डल में सहायक इंजीनियर के रूप में अपनी सेवायें प्रारंभ की थीं .सर्वे व अनुसंधान विभाग में इस युवा इंजीनियर ने अनेक लघु पन बिजली परियोजनाओ सहित १९८४ में परमाणु बिजलीघर चुटका की प्रारंभिक फिजिबिलिटी तैयार की , उल्लेखनीय है कि अब मण्डला जिले में यह महत्वपूर्ण बिजली परियोजना स्वीकृत हो चुकी है .  भीमगढ़ तथा चरगांव जटलापुर लघु पन बिजली परियोजनायें अभी तक लगातार विद्युत उत्पादन कर रही हैं . मेरा मानना है कि शिक्षा जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है , सेवारत रहते हुये मैंने इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी  से मैनेजमेंट मे डिप्लोमा , ब्यूरो आफ इनर्जी एफिशियेंसी से  इनर्जी मैनेजर की उपाधियां अर्जित की हैं . अब सेवानिवृति की कगार पर मुख्य अभियंता हूं .

दो से चार हाथ ...

  विवाह वरिष्ठ कवि स्व वासुदेव प्रसाद खरे की पुत्री स्वतंत्र लेखिका श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव से २२ जनवरी १९८७ को हुआ . जीवन संगीनी ने साहित्य यात्रा को और आगे बढ़ाया . पिता की भूमिका में भी सफल हैं ,  बच्चे इंजीनियर अनुव्रता एक प्रतिष्ठित मल्टी नेशनल संस्थान में दुबई में मैनेजर हैं , बेटी अनुभा ने लंदन स्कूल आफ इकानामिक्स से ला की पढ़ाई की है तथा वे ला एशोसियेट के रूप में कार्यरत हैं , बेटा अमिताभ भारत सरकार के एक मात्र प्रतिष्ठित विज्ञान संस्थान , इण्डियन इंस्टीट्यूट आफ साइंस बैंगलोर से पढ़कर , न्यूयार्क यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेज्युएशन के बाद न्यूयार्क में प्रतिष्ठित वैज्ञानिक है .

देश से बाहर भी ...

मेरा मानना है कि पर्यटन साहित्य का जनक होता है क्योकि देशाटन से अनुभव संसार समृद्ध होता है . मुझे भारत के शीर्ष जम्मू काश्मीर , हिमालय की बर्फ आच्छादित पर्वत श्रंखला के साथ सिक्किम पूर्वांचल , से कन्या कुमारी के लहराते समुद्र तक , कोलकोता के हावड़ा ब्रिज से मुम्बई के समुद्र सेतु  , गोवा के पश्चिम तट तक पर्यटन के अनेक अवसर मिले . श्रीलंका , भूटान , दुबई , अबूधाबी , अमेरिका में न्यूयार्क , वाशिंगटन , नियाग्रा फाल्स तक घूमने का सौभाग्य मिला है  . ढ़ेर से चित्र और डायरी नोट्स , रचना रूप में मुखरित होने के लिये मौके की तलाश में हैं .

गूगल में ढ़ूंढ़ा खुद को ...

भले मोहल्ले में कोई न जानता हो पर दुनियाभर में अपना नाम सर्च कर लो गूगल पर तो 1 सेकेंड में बहुत सा मिल जाएगा . वर्ष २००५ से ही जब हिन्दी ब्लाग बहुत नया था , हिन्दी में नियमियित ब्लागिंग कर रहा हूं .  व्यंग्य , कविता , व तकनीकी विषयो पर मेरे ब्लाग लोकप्रिय हैं . वेबदुनिया जो हिन्दी का सबसे पुराना पोर्टल है उसके सहित  अनेक अखबारो , बी बी सी , रेडियो डायचेवेली हिन्दी आदि के सामूहिक ब्लाग्स में भी लिखा . दुनिया की पहली ब्लागजीन "ब्लागर्स पार्क" थी . जिसमें ब्लाग पर प्रकाशित सामग्री में से चुनिंदा रचनायें पत्रिका के रूप में प्रकाशित की जाती थीं . इस पत्रिका के संपादक मण्डल का मानद सदस्य रहा .  हिन्दी ब्लागिंग पर कई कार्यशालायें करके अनेक युवा लेखको को ब्लाग जगत से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया है , ज्ञानवाणी से हिन्दी ब्लागिंग  पर  मेरी वार्ता बहुत सराही गई है . मुझे आर्कुट की याद है .   ब्लागस ,फेसबुक और अब ट्वीटर की माइक्रो ब्लागिंग से इंस्टाग्राम , लिंक्डिन सोशल मीडीया कि स्व संपादित दुनियां , फेक ई मेल आई डी का , लाईक , कमेंट , हैकिंग वाला संसार भी मजेदार है . बोलकर  , स्केन कर या बिना स्याही के पेन से मोबाईल स्क्रीन पर लिखना टेकसेवी होने के मजे बडे हैं .

अभिव्यक्ति का माध्यम कलम , कैमरा और कभी वीडीयो भी ...

        सुरभि टीवी सीरियल में मण्डला के जीवाश्मो पर मेरी लघु फिल्म का प्रसारण हुआ . हैलो बहुरंग में मेरी निर्मित लघु फिल्मो के लिये  युवा फिल्मकार का सम्मान भी मिला . किताबें  जल जंगल और जमीन , बिजली का बदलता परिदृश्य , कान्हा अभयारण्य परिचायिका , "रानी दुर्गावती" व "मण्डला परिचय" पर  तैयार फोल्डर पाठको में पसंद किये गये  . जिला पुरातत्व समिति मण्डला में सदस्य रहे . इंजीनियर होते हुये साहित्यकार के रूप में जटिल वैज्ञानिक विषयो पर सहज जन भाषा हिन्दी में नियमित अपनी कलम चलाई है  . म. प्र.  साहित्य अकादमी की पाठक मंच योजना के मण्डला व जबलपुर शहर में लम्बे समय तक सक्रिय संयोजक रहा .   मण्डला  में हिन्दी साहित्य समिति मण्डला , साहित्य विकास परिषद एवं तुलसी मानस परिषद के सचिव के रूप में निरंतर सक्रिय रहा .  अभियान के साथ कई राष्ट्रीय स्तर के सफल आयोजन किये .      

 रचना प्रक्रिया ... मन से कवि , स्वभाव से व्यंग्यकार  

मूलतः व्यंग्य , लेख , विज्ञान विषयक लेख , बाल नाटक ,विज्ञान कथा , कविता , समीक्षा आदि मेरी अभिव्यक्ति की प्रमुख विधायें हैं . मैंने नाटक संवाद शैली में ही लिखे हैं . विज्ञान कथायें वर्णनात्मक शैली की हैं . व्यंग्य की कुछ रचनायें मिश्रित तरीके से अभिव्यक्त हुई हैं . व्यंग्य रचनायें प्रतीको और संकेतो की मांग करती हैं . मैं सरलतम भाषा , छोटे वाक्य विन्यास , का प्रयोग करता हूं . उद्देश्य यह होता है कि बात पाठक तक आसानी से पहुंच सके . जिस विषय पर लिखने का मेरा मन बनता है , उसे मन में वैचारिक स्तर पर खूब गूंथता हूं , यह भी पूर्वानुमान लगाता हूं कि वह रचना कितनी पसंद की जावेगी . मेरी रचनायें कविता या कहानी भी नितांत कपोल कल्पना नही होती .मेरा मानना है कि कल्पना की कोई प्रासंगिकता वर्तमान के संदर्भ में अवश्य ही होनी चाहिये . मेरी अनेक रचनाओ में धार्मिक पौराणिक प्रसंगो का चित्रण मैंने वर्तमान संदर्भो में किया है . रचना को मन में परिपक्व होने देता हूं , सामान्यतः अकेले घूमते हुये , अधनींद में , सुबह बिस्तर पर , वैचारिक स्तर पर सारी रचना का ताना बाना बन जाता है फिर जब मूड बनता है तो सीधे कम्प्यूटर पर लिख डालता हूं . आजकल कागज पर हाथ से मेरा लिखा हुआ कम ही है . मेरा मानना है कि किसी भी विधा का अंतिम ध्येय उसकी उपयोगिता होनी चाहिये .यह बिल्कुल सही है कि रचना आत्म सुख देती है , किन्तु उसमें समाज कल्याण अंतर्निहित होना ही चाहिये अन्यथा रचना निरर्थक रह जाती है . समाज की कुरीतियो , विसंगतियो पर प्रहार करने तथा पाठको का ज्ञान वर्धन व उन्हें सोचने के लिये ही वैचारिक सामग्री देना मेरा ध्येय होता है .मेरी रचना का विस्तार कई बार अमिधा में सीधे सीधे जानकारी देकर होता है , तो कई बार प्रतीक रूप से पात्रो का चयन करता हूं . कुछ बाल नाटको में मैने नदी ,पहाड़ ,वृक्षो को बोलता हुआ भी रचा है . मुझे लगता है अभिव्यक्ति की विधा तथा विषय के अनुरूप इस तरह का चयन कई बार आवश्यक होता है , जब जड़ पात्रो को चेतन स्वरूप में वर्णित करना पड़ता है . रचना की संप्रेषणीयता संवाद शैली से बेहतर बन जाती है इसलिये यह प्रक्रिया भी अनेक बार अपनानी पड़ती है .मैं समझता हूं कि कोई भी रचना जितनी छोटी हो उतनी बेहतर होती है ,न्यूनतम शब्दों में अधिकतम वैचारिक विस्तार दे सकना रचना की सफलता माना जा सकता है .  विषय का परिचय , विस्तार और उपसंहार ऐसा किया जाना चाहिये कि प्रवाहमान भाषा में सरल शब्दो में पाठक उसे समझ सकें .नन्हें पाठको के लिये लघु रचना , किशोर और युवा पाठको के लिये किंचित विस्तार पूर्वक तथ्यात्मक तर्को के माध्यम से रचना जरूरी होती है .

शीर्षक जो प्रवेश द्वार होते हैं रचना का ..

मेरी अधिकांश रचनाओ के शीर्षक रचना पूरी हो जाने के बाद ही चुने गये हैं . एक ही रचना के कई शीर्षक अच्छे लगते हैं . कभी  रचना के ही किसी वाक्य के हिस्से को शीर्षक बना देता हूं . शीर्षक ऐसा होना जरूरी लगता है जिसमें रचना की पूरी ध्वनि आती हो .

व्यंग्य लेखन के लिए विषय...

  मैं सायास बहुत कम लिखता हूं , कोई विषय भीतर ही भीतर पकता रहता है और कभी सुबह सबेरे अभिव्यक्त हो लेता है तो मन को सुकून मिल जाता है . विषय और व्यंग्य दोनो एक दूसरे के अनुपूरक हैं , विषय उद्देश्य है और व्यंग्य माध्यम . मुझे लगता है कि कोई रचना कभी भी फुल एण्ड फाइनल परफेक्ट हो ही नही सकती , खुद के लिखे को जब भी दोबारा पढ़ो कुछ न कुछ तो सुधार हो ही जाता है .  चित्र का कैनवास बड़ा होना चाहिये , व्यक्ति गत मतभेद के छोटे से टुकड़े पर क्या  कालिख पोतनी .  व्यंग्य की ताकत का इस्तमाल बड़ा होना चाहिये .

शब्दो के धागे कितने लम्बे हों रचना के चरखे पर ...

मैं लघुकथा या बाल कथा ५०० शब्दों तक समेट लेता हूं , वहीं आम पाठको के लिये विस्तार से २५०० शब्दों में भी लिखता हूं . संपादक की मांग के अनुरूप भी रचना का विस्तार जरूरी होता है . व्यंग्य की अभिव्यक्ति क्षमता असीम है पर एक व्यंग्य लेख की शब्द सीमा १००० से १५०० शब्द पर्याप्त लगती है . कम्प्यूटर पर लिखने का लाभ यह मिलता है कि एक क्लिक पर पता चल जाता है कि कितने शब्द लिखे जा चुके है . कई बार तो पाठको की या संपादक की मांग पर वांछित विषय पर वांछित शब्द सीमा में लिखना पड़ा है . मैंने पाया है कि अनेक बार अखबार की खबरों को पढ़ते हुये या रेडियो सुनते हुये कथानक का मूल विचार मन में कौंधता है , जो एक नई रचना बुन देता है .

पठन पाठन और लेखन , समीक्षा , संपादन ...

व्यंग्य सर्वाधिक प्रिय है . नियमित पठन पाठन करता हूं , हर सप्ताह किसी पढ़ी गई किताब की परिचयात्मक संक्षिप्त चर्चा भी कर लेता हूं . नाटक के लिये मुझे साहित्य अकादमी से पुरस्कार मिल चुका है . बाल नाटको की पुस्तके आ गई हैं . इस सबके साथ ही बाल विज्ञान कथायें लिखी हैं  . कविता तो एक प्रिय विधा है ही .पुस्तक मेलो में शायद अधिकाधिक बिकने वाला साहित्य आज बाल साहित्य ही है . बच्चो में अच्छे संस्कार देना हर माता पिता की इच्छा होती है , जो भी माता पिता समर्थ होते हैं , वे सहज ही बाल साहित्य की किताबें बच्चो के लिये खरीद देते हैं . यह और बात है कि बच्चे अपने पाठ्यक्रम की पुस्तको में इतना अधिक व्यस्त हैं कि उन्हें इतर साहित्य के लिये समय ही नही मिल पा रहा .आज अखबारो के साहित्य परिशिष्ट ही आम पाठक की साहित्य की भूख मिटा रहे हैं .पत्रिकाओ की प्रसार संख्या बहुत कम हुई है .मैं साप्ताहिक रूप से किसी किताब की समीक्षा लंबे समय से कर रहा हूं . चयनित ६५ समीक्षाओ की मेरी एक किताब बातें किताबों की किंडल पर सुलभ है , इसका प्रिंट वर्शन आने को प्रेस में है . विभागीय पत्रिका विद्युत ब्रम्होति का लंबे समय तक  संपादन किया , मेरे संपादन में इसे पुरस्कार भी मिला अन्य कई पत्रिकाओ का संपादन अतिथि संपादक के रूप में भी जब तब किया .  वेब पोर्टल नई पीढ़ी को साहित्य सुलभ कर रहे हैं . किन्तु मोबाईल पर पढ़ना सीमित होता है , हार्ड कापी में किताब पढ़ने का आनन्द ही अलग होता है .  शासन को साहित्य की खरीदी करके पुस्तकालयो को समृद्ध करने की जरूरत है .  साहित्य मुझे विरासत में मिला है .मेरे पूज्य पिताजी प्रो चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध हिन्दी संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान हैं . माँ की भी किताबें प्रकाशित हैं , पत्नी कल्पना स्वतंत्र लेखिका हैं , वे मेरी हर रचना की प्रथम श्रोता होती हैं . उनकी प्रेरणा से मेरा उत्साह निरंतर बना रहता है . मेरी किशोरावस्था मण्डला में मां नर्मदा के तट पर , मेकल पर्वतो के सुरम्य जंगलो के परिवेश में बीती है . मुझे याद है हाईस्कूल पूरा करते करते मैंने जिला पुस्तकालय मण्डला , व श्रीराम अग्रवाल पुस्तकालय मण्डला की लगभग सारी साहित्यिक किताबें पढ़ डाली थी . तरन्नुम में पढ़ी जाती श्रंगार की कवितायें सुनने देर रात तक कवि सम्मेलनो और मुशायरों में बैठा रहा हूं .

साहित्य विचार देता है ...

  साहित्य , अपनी भूमिका स्वयं निर्धारित करता रहा है . कोई भी काम विचार के बिना नही होता .  . कभी पत्रिकाओ का बोलबाला था , अब ई प्लेटफार्म बढ़ गये हैं , जिनने पत्रिकाओ को स्थानापन्न कर दिया है . ई बुक्स आ रही हैं , पर आज भी प्रकाशित किताबो और साहित्य का महत्व निर्विवाद है . साहित्य हमेशा से राजाश्रय की चाह रखता है , क्योंकि विचार अमूल्य जरूर होते हैं , पर उसका मूल्य कोई चुकाना नही चाहता . सरकार को साहित्यिक विस्तार की गतिविधियो को और बढ़ाने की जरूरत है .मैं  देखता हूं , नई पीढ़ी छपना तो चाहती है , पर स्वयं पढ़ना नही चाहती . इससे वैचारिक परिपक्वता का अभाव दिखता है . जब १०० लेख पढ़ें तब एक लिखें , देखिये फिर कैसे आप हाथों हाथ लिये जाते हैं . गूगल त्वरित जानकारी तो दे सकता है , ज्ञान नही .  ज्ञान मौलिक होता है , नई पीढ़ी में मैं इसी मौलिकता को देखना चाहता हूं . समय के साथ पुराने रचनाकारो को नये लेखक खो कर स्थानापन्न कर देते हैं , जीवन निरंतरता का ही दूसरा नाम है . अपनी रचनाओ के जरिये ही कबीर , परसाई , शरद जोशी , त्यागी जी आज भी जिंदा हैं तो ऐसा मौलिक मूल्यवान शाश्वत लेखन आज भी हो सकता है , यह हमारे लिये खुला चैलेंज है . साहित्य के माध्यम से हम सब एक इंद्रधनुषी वैश्विक बेहतर समय रच सकें मेरी यही कामना है .

समकालीन व्यंग्य पर ...

  मैने बचपन में एक कविता लिखी थी जो संभवतः धर्मयुग में बाल स्तंभ में छपी भी थी " बिल्ली बोली म्यांऊ म्यांऊ , मुझको भूख लगी है नानी दे दो दूध मलाई खाऊं,....   अब तो जिसका बहुमत है चलता है उसका ही शासन . चूहे राज कर रहे हैं ... बिल्ली के पास महज एक वोट है , चूहे संख्याबल में ज्यादा हैं . व्यंग्य ही क्या देश , दुनियां , समाज हर जगह जो मूल्यों में पतन दृष्टिगोचर हो रहा है उसका कारण यही है कि बुरी मुद्रा, अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर रही है .मानवीय प्रवृत्तियां स्वार्थ के चलते रूप बदल बदल कर व्याप्त हैं , भारत ही क्या विश्व में और यही विसंगतियां  व्यंग्य का टार्गेट हैं . व्यंग्य के टार्गेट्स पूरे भारत में कोरोना की तरह पसरे हुए हैं जो म्यूटेशन करके तरह तरह के रूपों में हमें परेशान कर रहे है .राजनीती जीवन के हर क्षेत्र में हावी है . हम स्वयं चार नमूनो में से किसी को स्वयं अपने ऊपर हुक्म गांठने के लिये चुनने की व्यवस्था के हिस्से हैं . असीमित अधिकारो से राजनेता का बौराना अवश्य संभावी है , यहीं विसंगतियो का जन्म होता , और व्यंग्य का प्रतिवाद भी उपजने को विवश होता है . अखबार जो इन दिनो संपादकीय पन्नो पर व्यंग्य के पोषक बने हुये हैं , समसामयिक राजनैतिक व्यंग्य को तरजीह देते हैं . और देखादेखी व्यंग्यकार राजनीतिक व्यंग्य की ओर आकर्षित होता है . मैं राजनैतिक व्यंग्यो में भी मर्यादा , इशारो और सीधे नाम न लिये जाने का पक्षधर हूं .

व्यंग्य नाटक ...

  नुक्कड़ नाटक इन दिनो लोकप्रिय विधा है . और व्यंग्य नाटको की व्यापक संभावना इसी क्षेत्र में अधिक दिखती है . लेखको का नाटक लेखन के प्रति लगाव दर्शको के प्रतिसाद पर निर्भर होता है . जबलपुर में हमारे विद्युत मण्डल परिसर में भव्य तरंग प्रेक्षागृह है , जिसमें प्रति वर्ष न्यूनतम २ राष्ट्रीय स्तर के नाट्य समारोह होते हैं , सीजन टिकिट मिलना कठिन होता है . बंगाल , महाराष्ट्र , दिल्ली में भी नाटक के प्रति चेतना अपेक्षाकृत अधिक है . यह जरूर है कि यह क्षेत्र उपेक्षित है , पर व्यापक संभावनायें भी हैं .हिन्दी नाटको के क्षेत्र में बहुत काम होना चाहिये . नाटक प्रभावी दृश्य श्रव्य माध्यम है . पिताश्री बताते हैं कि जब वे छोटे थे तो  नाटक मंडलियां हुआ करती थीं जो सरकस की तरह शहरों में घूम घूम कर नाटक , प्रहसन प्रस्तुत किया करती थीं . जल नाद मेरा एक लम्बा नाटक है. जो जल के महत्व पौराणिक मिथको पर केंद्रित है .

अविश्वसनीय समय ...

कौआ कान ले गया मेरा संग्रह था . जिसकी भूमिका वरिष्ठ व्यंग्य पुरोधा हरि जोशी जी ने लिखी थी . उसमें कौवा कान ले गया शीर्षक व्यंग्य के आधार पर ही संग्रह का नाम रखा था .अफवाहो के बाजार को दंगाई हमेशा से अपने हित में बदलते रहे हैं , अब तकनीक ने यह आसान कर दिया है , पर अब तकनीक ही उन्हें बेनकाब करने के काम भी आ रही है . व्यंग्यकार की सब सुनने लगें तो फिर बात ही क्या है , पर फिर भी हमें आशा वान बने रहकर सा हित लेखन करते रहना होगा . निराश होकर कलम डालना हल नही है . लोगों को उनके मफलर में छिपे कान का अहसास करवाने के लिये पुरजोर लेखन जारी रहेगा . अजब समय है आज जब तक एक खबर पर भरोसा करो प्रति पक्ष से उसका सप्रमाण खंडन आ जाता है . अतः आज अपने विवेक को जागृत रखना बहुत जरूरी है . मेरी किताब "समस्या का समाधान व अन्य व्यंग्य " की भूमिका डा ज्ञान चतुर्वेदी जी ने लिखी , उन्होने लिखा है कि व्यंग्यकार को अपनी विधा को गंभीरता से बरतना चाहिये , मेरी रचनाओ में उन्हें वह गंभीरता मिली , मैं इस से मुग्ध हूं .

हास्य और व्यंग्य ...

यह व्यंग्यकार की व्यक्तिगत रुचि , विषय का चयन , और लेखन के उद्देश्य पर निर्भर है . हास्य प्रधान रचना करना भी सबके बस की बात नही होती . कई तो अमिधा से ही नही निकल पाते , व्यंजना और लक्षणा का समुचित उपयोग ही व्यंग्य कौशल है . करुणा व्यंग्य को हथियार बना कर प्रहार करने हेतु प्रेरित करती ही है .हर रचनाकार पहले कवि ही होता है , प्रत्यक्ष न भी सही , भावना से तो कवि हुये बिना विसंगतियां नजर ही नही आती . मेरा पहला कविता संग्रह १९९२ में आक्रोश आया था , जो तारसप्तक अर्धशती समारोह में १९९२ में विमोचित हुआ था  .आज भी पुरानी फिल्में देखते हुये मेरे आंसू निकल आते हैं , मतलब मैं तो शतप्रतिशत कवि हुआ . ये और बात है कि जब मैं व्यंग्यकार होता हूं तो शत प्रतिशत व्यंग्यकार ही होता हूं .

व्यंग्य विधा पर प्रश्न चिन्ह ...

  मेरी मूल धारा में व्यंग्य १९८१ से है .व्यंग्य के वर्तमान परिदृश्य पर दूरदर्शन भोपाल में एक चर्चा में मैंने तर्क सहित स्थापित किया था कि व्यंग्य अब विधा के रूप में सुस्थापित है . किसी भी विधा में व्यंग्य का प्रयोग उस विधा को और भी मुखर , व अभिव्यक्ति हेतु सहज बना देता है .  बहस तो हर विधा को लेकर की जा सकती है , ललित निबंध को ही ले लीजीये , जिसे विद्वान स्वतंत्र विधा नही मानते थे , यह हम व्यंग्यकारो का दायित्व है कि हम इतना अच्छा व भरपूर लिखें कि आलोचक स्वीकारें कि व्यंग्य उनकी समझ में स्वतंत्र विधा है .व्यंग्य लेखन में क्या नही होना चाहिये यह  सवाल भी किया जाता है ,  सीधा सा उत्तर है कि  व्यक्तिगत कटाक्ष नही होना चाहिये , इसकी अपेक्षा व्यक्ति की गलत प्रवृति पर मर्यादित अपरोक्ष प्रहार व्यंग्य का विषय बनाया जा सकता है . व्यंग्य में सकारात्मकता को समर्थन की संभावना ढ़ूंढ़ना जरूरी लगता है . जैसे  लाकडाउन में सोनू सूद के द्वारा किये गये जन हितैषी कार्यो के समर्थन में  प्रयोगधर्मी व्यंग्य लेख हो सकता है .

व्यंग्य में नये संभावना सोपान ...

आवश्यकता है कि व्यंग्य में गुणवत्ता आधार बने .नवाचार हो . मेरे एक व्यंग्य का हिस्सा है जिसमें मैंने लिखा है कि जल्दी ही साफ्टवेयर से व्यंग्य लिखे जायेंगे . यह बिल्कुल संभव भी है . १९८६ के आस पास मैने लिखा था " ऐसे तय करेगा शादियां कम्प्यूटर " आज हम देख रहे हैं कि ढ़ेरो मेट्रोमोनियल साइट्स सफलता से काम कर रही हैं . अपनी सेवानिवृति के बाद आप सब के सहयोग से मेरा मन है कि साफ्टवेयर जनित व्यंग्य पर कुछ ठोस काम कर सकूं . आप विषय डालें ,शब्द सीमा डालें लेखकीय भावना शून्य हो सकता है , पर कम्प्यूटर जनित व्यंग्य तो बन सकता है .व्यंग्य के मानकों में  अपरोक्ष प्रहार , हास्य , करुणा , पंच , भाषा , शैली , विषय प्रवर्तन , उद्देश्य , निचोड़ , बहुत कुछ हो सकता है जिस पर बढ़ियां व्यंग्य की स्केलिंग की जा सकती है । मन्तव्य यह कि मजा भी आये , शिक्षा भी मिले  , जिस पर प्रहार हो वह तिलमिलाए भी तो बढिया व्यंग्य कहा जा सकता है .

लांघेगा कोई स्थापित ऊंचाईयां ...

एक नही अनेक  अपनी अपनी तरह से व्यंग्यार्थी बने हुये हैं , पुस्तकें आ रही हैं , पत्रिकायें आ रही हैं , लिखा जा रहा है , पढ़ा जा रहा है शोध हो रहे हैं , नये माध्यमो की पहुंच वैश्विक है , परसाई जी की त्वरित पहुंच वैसी नही थी जैसी आज संसाधनो की मदद से हमारी है . प्रायः बातें होती हैं कि परसाई या शरद जोशी की ऊंचाई तक आज कोई पहुंच ही नही सकता . मैं सोचता हूं ऐसा क्यो मानना कि कोई परसाई जी तक नही पहुंच सकता , जिस दिन कोई वह ऊंचाई छू लेगा परसाई जी की आत्मा को ही सर्वाधिक सुखानुभुति होगी .

ज्यादा लिख डाला देर रात हो रही है , अब बस खुद से शेष बातें फिर कभी .

विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १ , शिला कुंज , नयागांव , जबलपुर , ४८२००८

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