आलेख
डॉ. शंकर पुणतांबेकर के साहित्य में समाज
विवेक रंजन श्रीवास्तव
व्यंग्यकार, समालोचक
आजकल न्यूयॉर्क में
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात का भारतीय समाज गहन अंतर्विरोधों से ग्रस्त था। एक ओर लोकतंत्र, समाजवाद, न्याय और प्रगति के महान आदर्श थे, तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार, जातिवाद, सत्ता-लोलुपता और आर्थिक विषमता का कठोर यथार्थ। इसी युग में डॉ. शंकर पुणतांबेकर ने अपनी लेखनी उठाई। उनके लिए व्यंग्य कोरी मनोरंजन की विधा नहीं रही , बल्कि सामाजिक सुधार का एक गंभीर रचनात्मक औज़ार था। उनकी परिभाषा में, “व्यंग्य वही सच्चा होता है, जो हँसाने के साथ साथ सोचने पर भी मजबूर करे।” यह दृष्टि उनके समग्र लेखन का मूलमंत्र बनी। मूलतः एक मराठी भाषी होते हुए भी हिंदी को अपनी साहित्य साधना का माध्यम बनाने वाले पुणतांबेकर जी ने उपन्यास, कहानी, निबंध, नाटक और एक अनूठे ‘व्यंग्य अमरकोश’ के माध्यम से समकालीन विसंगतियों पर करारे प्रहार किए। उनका लेखन स्वतंत्रता के बाद के भारत के ‘मोहभंग’ और जनसाधारण की पीड़ा का दर्पण है, जिसमें समाज का बदरंग चेहरा बिना किसी लाग लपेट के सामने लाने में वे सफल रहे हैं।
स्वतंत्रोत्तर भारत का राजनीतिक यथार्थ: पाखंड, सत्ता और मोहभंग
पुणतांबेकर जी के व्यंग्य का प्राथमिक लक्ष्य स्वतंत्र भारत की राजनीतिक व्यवस्था थी, जहाँ आजादी से पहले जनसेवा के आदर्श का स्थान देखते देखते सत्ता संघर्ष और भ्रष्टाचार ने ले लिया था। उन्होंने नेताओं के चरित्र और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के खोखलेपन को बेनकाब किया।
नेतृत्व का पतन और खोखले आदर्श: उनकी रचनाओं में नेता ‘जनसेवक’ के छद्म वेश में भौतिक सुख-सुविधाओं में डूबे दिखाई देते हैं। वे व्यंग्यपूर्वक टिप्पणी करते हैं कि “हर बीरबल को अकबर नहीं मिलता,” अर्थात् हर सच्चे और बुद्धिमान सलाहकार को उचित मंच नहीं मिल पाता, जबकि सत्ता अवसरवादियों के हाथों में सिमटती चली जाती है। स्वतंत्रता सेनानियों के आदर्शों से नई पीढ़ी के नेताओं के विच्छेद को वे गहरी पीड़ा के साथ चित्रित करते हैं।
लोकतंत्र की विडंबना: ‘आम आदमी’ जैसी लघुकथाओं के माध्यम से उन्होंने लोकतंत्र की मूल विडंबना को उजागर किया है, जहाँ मतदाता चुनाव के समय ‘राजा’ बना दिया जाता है, किंतु सत्ता मिलते ही उसकी उपेक्षा शुरू हो जाती है। सरकारी योजनाओं का लाभ उसे तब तक नहीं मिल पाता, जब तक कि भ्रष्ट प्रशासनिक तंत्र और नेता उसे ‘लूट’ न लें।
अपराधीकृत राजनीति का चित्रण: उनके उपन्यास ‘एक मंत्री स्वर्गलोक में’ में राजनीतिक दुराचरण और भ्रष्टाचार को स्वर्ग की पौराणिक पृष्ठभूमि में रखकर एक तीखा व्यंग्यात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। यह रचना दर्शाती है कि कैसे राजनीति सिद्धांतों से हटकर व्यक्तिगत लाभ का माध्यम बन गई।
सामाजिक संरचनाओं का विखंडन: जाति, धर्म और रूढ़ियाँ
संविधानिक समानता के बावजूद, स्वतंत्रोत्तर भारत के सामाजिक जीवन में जाति और धर्म के पुराने बंधन गहरे पैठे हुए थे। पुणतांबेकर जी ने इन सामाजिक विषमताओं और धार्मिक पाखंड पर भी अपनी कलम चलाई है।
जातिगत भेदभाव और पाखंड:
उनकी रचनाओं में उच्च जातियों के द्वारा दलितों के प्रति कथित सहानुभूति के पीछे छिपे पाखंड को बेपर्दा किया गया है। ‘दरखास्त’ जैसे नाटकों में एक दलित युवक की नौकरी के लिए होने वाले बेबस संघर्ष को दर्शाया गया है, जो औपचारिक समानता और वास्तविक भेदभाव के अंतर को स्पष्ट करता है।
धार्मिक आडंबरों पर प्रहार:
उनकी रचना ‘रावण तुम बाहर आओ’ में धार्मिक कर्मकांडों और अंधविश्वासों की मनमानी व्याख्याओं पर करारा प्रहार किया गया है। वे दिखाते हैं कि कैसे धर्म, ईमानदारी और नैतिकता से अलग होकर केवल एक दिखावे और सामाजिक वर्चस्व के साधन के रूप में कार्य करने लगा है।
विडंबना है कि धर्म का यह विकृत रूप आज भी वैसा ही घना कोहरा बना दिखता है, जो पुणतांबेकर जी की प्रासंगिकता को स्पष्ट करता है।
व्यापक सामाजिक दृष्टि:
उनकी दृष्टि केवल हिंदू समाज तक सीमित नहीं थी। ‘एक नफरत कथा’ जैसी रचनाओं में उन्होंने साम्प्रदायिकता की जहरीली मानसिकता पर भी व्यंग्य किया है, जो स्वतंत्र भारत के लिए एक गंभीर चुनौती बनी हुई है।
शैलीगत विशिष्टताएँ एवं साहित्यिक अवदान
पुणतांबेकर जी का व्यंग्य न केवल उनकी विषयवस्तु, बल्कि उनकी शैलीगत मौलिकता के कारण भी हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखता है।
परसाई स्कूल की बौद्धिक विरासत:
उन पर हरिशंकर परसाई के विचारों एवं रचनात्मकता का गहरा प्रभाव था और उन्हें ‘परसाई स्कूल’ का एक महत्वपूर्ण लेखक माना जाता है। वे तार्किक विवेचन, बौद्धिक गहराई और सामाजिक विषयों पर एक गंभीर तथा निर्भीक दृष्टिकोण रखते थे।
भाषा एवं रूप का नवाचार:
उनकी भाषा सरल, प्रवाहमयी किंतु अत्यंत प्रभावशाली है। मराठी भाषा की लय ने उनकी हिंदी को एक विशिष्ट मोड़ दिया। उन्होंने व्यंग्य कोश (‘व्यंग्य अमरकोश’) जैसी एक अनूठी विधा का सृजन किया, जिसमें लगभग 9500 शब्दों की व्यंग्यपूर्ण व्याख्या की गई है। यह कोश केवल शब्दार्थ नहीं देता, बल्कि उन शब्दों के पीछे छिपे सामाजिक विरोधाभास को उजागर करता है।
रूपकात्मक शक्ति:
उनकी रचना ‘चित्र’ इस बात का उत्कृष्ट उदाहरण है कि कैसे वे जटिल वैश्विक-राजनीतिक एवं सामाजिक विमर्श (जैसे शीत युद्ध, धर्म का राजनीतिकरण, नस्लभेद) को एक सांकेतिक और रूपकात्मक कथा के माध्यम से प्रस्तुत करने में सक्षम थे। एक चित्रकार के माध्यम से गोर्बाचेव, शंकराचार्य और नेल्सन मंडेला से हुई काल्पनिक वार्तालाप यह दर्शाती है कि कैसे कला एवं नीति में ‘वर्ण’ और ‘रंग’ के बीच का अंतर समाज के गहरे सत्य को उद्घाटित करता है।
निष्कर्ष: एक स्थायी प्रासंगिकता
डॉ. शंकर पुणतांबेकर का व्यंग्य साहित्य स्वतंत्रोत्तर भारत के सामाजिक राजनीतिक परिदृश्य का एक ऐसा विश्वसनीय अभिलेख है, जिसकी प्रासंगिकता आज भी कम नहीं हुई है। उन्होंने केवल लक्षण बताए ही नहीं, बल्कि रोग के मूल कारणों , मानवीय लोभ, सत्ता का नशा, नैतिकता का ह्रास और बौद्धिक अवसरवाद की पहचान करवाई।
उनका यह कथन कि "हास्य’, दर्द भूलने का नशा जगाता है, तो ‘व्यंग्य’, नशा भूलने का दर्द जगाता है,” उनकी समग्र साहित्यिक दृष्टि को रेखांकित करता है। आज जब राजनीति, धर्म और समाज के क्षेत्र में पाखंड के नए नए रूप सामने आ रहे हैं, पुणतांबेकर जी का साहित्य आत्ममंथन और सतर्कता का आह्वान करता है। वे हिंदी व्यंग्य की ऐसी कड़ी हैं, जिसने व्यंग्य को हल्के फुल्के मनोरंजन के स्तर से उठाकर एक गंभीर सामाजिक बौद्धिक विमर्श का दर्जा दिलाया। इस अर्थ में, उनका रचना संसार न केवल अतीत का दर्पण है, बल्कि वर्तमान के विश्लेषण और भविष्य के निर्माण के लिए एक अनिवार्य मानदंड भी है।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
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