Wednesday 16 December, 2020

पुस्तक चर्चा , तिष्यरक्षिता

 


पुस्तक चर्चा
तिष्यरक्षिता
खण्ड काव्य
कवि डा संजीव कुमार
पृष्ठ १३२ , मूल्य २०० रु
IASBN 9789389856859
वर्ष २०२०
इंडिया नेटबुक्स , नोयडा
चर्चाकार ..विवेक रंजन श्रीवास्तव , शिला कुंज ,
नयागांव ,जबलपुर ४८२००८
डा संजीव कुमार के नव प्रकाशित खण्ड काव्य तिष्यरक्षिता को समझने के लिये हमें तिष्यरक्षिता की कथा की किंचित पृष्ठभूमि की जानकारी जरूरी है . इसके लिये हमें काल्पनिक रूप से अवचेतन में स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट अशोक के समय में उतारना होगा . अर्थात  304 बी सी ई से  232 बी सी ई की कालावधि , आज से कोई 2300 वर्षो पहले . तब के देश , काल , परिवेश , सामाजिक परिस्थितियो की समझ तिष्यरक्षिता के व्यवहार की नैतिकता व कथा के ताने बाने की किंचित जानकारी  लेखन के उद्देश्य व काव्य के साहित्यिक आनंद हेतु आवश्यक है .  
ऐतिहासिक पात्रो पर केंद्रित अनेक रचनायें हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं . तिष्यरक्षिता , भारतीय मौर्य राजवंश के महान चक्रवर्ती सम्राट अशोक की पांचवी पत्नी थी . जो मूलतः सम्राट की ही चौथी पत्नी असन्ध मित्रा की परिचारिका थी . उसके सौंदर्य से प्रभावित होकर अशोक ने आयु में बड़ा अंतर होते हुये भी उससे विवाह किया था . पाली साहित्य में उल्लेख मिलता है कि तिष्यरक्षिता बौद्ध धर्म की समर्थक नहीं थी .  वह स्वभाव से अत्यंत कामातुर थी .
अशोक की तीसरी पत्नी पद्मावती का पुत्र  कुणाल था . जिसकी  आँखें बहुत सुंदर थीं . सम्राट अशोक ने अघोषित रूप से कुणाल को अपना उत्तराधिकारी मान लिया था . कुणाल तिष्यरक्षिता का समवयस्क था . उसकी आंखो पर मुग्ध होकर उसने उससे प्रणय प्रस्ताव किया . किंतु कुणाल ने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया .  तिष्यरक्षिता अपने सौंदर्य के इस अपमान  को भुला न सकी .  जब एक बार अशोक बीमार पड़ा तब तिष्यरक्षिता ने उसकी  सेवा कर उससे मुंह मांगा वर प्राप्त करने का वचन  ले लिया . एक बार तक्षशिला में विद्रोह होने पर जब कुणाल उसे दबाने के लिए भेजा गया तब तिष्यरक्षियता ने अपने वरदान में सम्राट, अशोक की राजमुद्रा प्राप्तकर तक्षशिला के मंत्रियों को कुणाल की आँखें निकाल लेने तथा उसे मार डालने की मुद्रांकित आज्ञा लिख भेजी .  इस हेतु अनिच्छुक मंत्रियों ने जनप्रिय कुणाल की आँखें तो निकलवा ली परंतु उसके प्राण छोड़ दिए .  अशोक को जब इसका पता चला तो उसने तिष्यरक्षिता को दंडस्वरूप जीवित जला देने की आज्ञा दी .
त्रिया चरित्र की यही कथा खण्ड काव्य का रोचक कथानक है . जिसमें इतिहास , मनोविज्ञान , साहित्यिक कल्पना सभी कुछ समाहित करते हुये डा संजीव कुमार ने पठनीय , विचारणीय , मनन करने योग्य , प्रश्नचिन्ह खड़े करता खण्ड काव्य लिखा है . उन्होने अपनी वैचारिक उहापोह को अभिव्यक्त करने के लिये  अकविता को विधा के रूप में चुना है .तत्सम शब्दो का प्रवाहमान प्रयोग कर  १६ लम्बी भाव अकविताओ में मनोव्यथा की सारी कथा बड़ी कुशलता से कह डाली है .
कुछ पंक्तियां उधृत करता हूं
क्रोध भरी नारी
होती है कठिन ,
और प्रतिशोध के लिये
 वह ठान ले , तो
परिणाम हो सकते हैं
महाभयंकर .
वह हो प्रणय निवेदक तो
कुछ भी कर सकती है वह  
क्रोध में प्रतिशोध में
या
यूं तो मनुष्य सोचता है
मैं शक्तिमान
मैं सुखशाली
मैं मेधामय
मैं बलशाली
पर सत्य ही है
जीवन में कोई कितना भी
सोचे मन में सब नियति का है
निश्चित विधान .

     राम के समय में रावण की बहन सूर्पनखा , पौराणिक संदर्भो में अहिल्या की कथा , गुरू पत्नी पर मोहित चंद्रमा की कथा , कृष्ण के समय में महाभारत के अनेकानेक विवाहेतर संबंध , स्त्री पुरुष संबंधो की आज की मान्य सामाजिक नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह हैं . दूसरी ओर वर्तमान स्त्री स्वातंत्र्य के पाश्चात्य मापदण्डो में भी सामाजिक बंधनो को तोड़ डालने की उत्श्रंखलता इस खण्ड काव्य की कथा वस्तु को प्रासंगिक बना देती है . पढ़िये और स्वयं निर्णय कीजीये की तिष्यरक्षिता कितनी सही थी कितनी गलत . उसकी शारीरिक भूख कितनी नैतिक थी कितनी अनैतिक . उसकी प्रतिशोध की भावना कुंठा थी या स्त्री मनोविज्ञान ? ऐसे सवालो से जूझने को छोड़ता कण्ड काव्य लिखने हेतु डा संजीव बढ़ाई के सुपात्र हैं .

 चर्चाकार ..विवेक रंजन श्रीवास्तव , शिला कुंज ,
नयागांव ,जबलपुर ४८२००८

Thursday 27 August, 2020

बुन्देली की बात

 बुंदेली और स्व डॉ पूरनचंद श्रीवास्तव जी जैसे बुंदेली विद्वानो की सुप्रतिष्ठा जरूरी  

 .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , शिला कुंज , नयागांव ,जबलपुर ४८२००८

ईसुरी बुंदेलखंड के सुप्रसिद्ध लोक कवि हैं ,उनकी रचनाओं में ग्राम्य संस्कृति एवं सौंदर्य का चित्रण है। उनकी ख्‍याति फाग के रूप में लिखी गई रचनाओं के लिए सर्वाधिक है,  उनकी रचनाओं में बुन्देली लोक जीवन की सरसता, मादकता और सरलता और रागयुक्त संस्कृति की रसीली रागिनी से जन मानस को मदमस्त करने की क्षमता है।

बुंदेली बुन्देलखण्ड में बोली जाती है। यह कहना कठिन है कि बुंदेली कितनी पुरानी बोली हैं लेकिन ठेठ बुंदेली के शब्द अनूठे हैं जो सादियों से आज तक प्रयोग में आ रहे हैं। बुंदेलखंडी के ढेरों शब्दों के अर्थ बंगला तथा मैथिली बोलने वाले आसानी से बता सकते हैं। प्राचीन काल में राजाओ के परस्पर व्यवहार में  बुंदेली में पत्र व्यवहार, संदेश, बीजक, राजपत्र, मैत्री संधियों के अभिलेख तक सुलभ  है। बुंदेली में वैविध्य है, इसमें बांदा का अक्खड़पन है और नरसिंहपुर की मधुरता भी है। वर्तमान बुंदेलखंड क्षेत्र में अनेक जनजातियां निवास करती थीं। इनमें कोल, निषाद, पुलिंद, किराद, नाग, सभी की अपनी स्वतंत्र भाषाएं थी, जो विचारों अभिव्यक्तियों की माध्यम थीं। भरतमुनि के नाट्य शास्‍त्र में भी बुंदेली बोली का उल्लेख मिलता है .  सन एक हजार ईस्वी में बुंदेली पूर्व अपभ्रंश के उदाहरण प्राप्त होते हैं। जिसमें देशज शब्दों की बहुलता थी। पं॰ किशोरी लाल वाजपेयी, लिखित हिंदी शब्दानुशासन के अनुसार हिंदी एक स्वतंत्र भाषा है, उसकी प्रकृति संस्कृत तथा अपभ्रंश से भिन्न है। बुंदेली प्राकृत शौरसेनी तथा संस्कृत जन्य है।  बुंदेली की अपनी चाल,  प्रकृति तथा वाक्य विन्यास की अपनी मौलिक शैली है। भवभूति उत्तर रामचरित के ग्रामीणों की भाषा विंध्‍येली प्राचीन बुंदेली ही थी। आशय मात्र यह है कि बुंदेली एक प्राचीन , संपन्न , बोली ही नही परिपूर्ण लोकभाषा है . आज भी बुंदेलखण्ड क्षेत्र में घरो में बुंदेली खूब बोली जाती है . क्षेत्रीय आकाशवाणी केंद्रो ने इसकी मिठास संजोई हुयी हैं .

ऐसी लोकभाषा के उत्थान , संरक्षण व नव प्रवर्तन का कार्य तभी हो सकता है जब क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों ,संस्थाओ , पढ़े लिखे विद्वानो के  द्वारा बुंदेली में नया रचा जावे . बुंदेली में कार्यक्रम हों . जनमानस में बुंदेली के प्रति किसी तरह की हीन भावना न पनपने दी जावे , वरन उन्हें अपनी माटी की इस सोंधी गंध , अपनापन ली हुई भाषा के प्रति गर्व की अनुभूति हो . प्रसन्नता है कि बुंदेली भाषा परिषद , गुंजन कला सदन , वर्तिका जैसी संस्थाओ ने यह जिम्मेदारी उठाई हुई है . प्रति वर्ष १ सितम्बर को स्व डा पूरन चंद श्रीवास्तव जी के जन्म दिवस के सु अवसर पर बुंदेली पर केंद्रित अनेक आयोजन गुंजन कला सदन के माध्यम से होते हैं .

आवश्यक है कि बुंदेली के विद्वान लेखक , कवि , शिक्षाविद स्व पूरन चंद श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व , विशाल कृतित्व से नई पीढ़ी को परिचय कराया जाते रहे . जमाना इंटरनेट का है . इस कोरोना काल में सास्कृतिक  आयोजन तक यू ट्यूब , व्हाट्सअप ग्रुप्स व फेसबुक के माध्यम से हो रहे हैं , किंतु बुंदेली के विषय में , उसके लेकको , कवियों , साहित्य के संदर्भ में इंटरनेट पर जानकारी नगण्य है .

स्व पूरन चंद श्रीवास्तव जी का जन्म १ सितम्बर १९१६ को ग्राम रिपटहा , तत्कालीन जिला जबलपुर अब कटनी में हुआ था . कायस्थ परिवारों में शिक्षा के महत्व को हमेशा से महत्व दिया जाता रहा है , उन्होने अनवरत अपनी शिक्षा जारी रखी , और पी एच डी की उपाधि अर्जित की .वे हितकारिणी महाविद्यालय जबलपुर से जुड़े रहे और विभिन्न पदोन्तियां प्रापत करते हुये प्राचार्य पद से १९७६ में सेवानिवृत हुये . यह उनका छोटा सा आजीविका पक्ष था . पर इस सबसे अधिक वे मन से बहुत बड़ साहित्यकार थे . बुंदेली लोक भाषा उनकी अभिरुचि का प्रिय विषय था . उन्होंने बुंदेली में और बुंदेली के विषय में खूब लिखा . रानी दुर्गावती बुंदेलखण्ड का गौरव हैं . वे संभवतः विश्व की पहली महिला योद्धा हैं जिनने रण भूमि में स्वयं के प्राण न्यौछावर किये हैं . रानी दुर्गावती पर श्रीवास्तव जी का खण्ड काव्य बहु चर्चित महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है . भोंरहा पीपर उनका एक और बुंदेली काव्य संग्रह है . भूगोल उनका अति प्रिय विषय था और उन्होने भूगोल की आधा दर्जन पुस्तके लिखि , जो शालाओ में पढ़ाई जाती रही हैं . इसके सिवाय अपनी लम्बी रचना यात्रा में पर्यावरण , शिक्षा पर भी उनकी किताबें तथा विभिन्न साहित्यिक विषयों पर स्फुट शोध लेख , साक्षात्कार , अनेक प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओ में प्रकाशन आकाशवाणी से प्रसारण तथा संगोष्ठियो में सक्रिय भागीदारी उनके व्यक्तित्व के हिस्से रहे हैं . मिलन , गुंजन कला सदन , बुंदेली साहित्य परिषद , आंचलिक साहित्य परिषद जैसी अनेकानेक संस्थायें उन्हें सम्मानित कर स्वयं गौरवांवित होती रही हैं . वे उस युग के यात्री रहे हैं जब आत्म प्रशंसा और स्वप्रचार श्रेयस्कर नही माना जाता था , एक शिक्षक के रूप में उनके संपर्क में जाने कितने लोग आते गये और वे पारस की तरह सबको संस्कार देते हुये मौन साधक बने रहे .

उनके कुछ चर्चित बुंदेली  गीत उधृत कर रहा हूं ...


कारी बदरिया उनआई....... ️

 कारी बदरिया उनआई,  हां काजर की झलकार ।

सोंधी सोंधी धरती हो गई,  हरियारी मन भाई,खितहारे के रोम रोम में,  हरख-हिलोर समाई ।ऊम झूम सर सर-सर बरसै,  झिम्मर झिमक झिमकियाँ ।लपक-झपक बीजुरिया मारै,  चिहुकन भरी मिलकियां ।रेला-मेला निरख छबीली-  टटिया टार दुवार,कारी बदरिया उनआई,हां काजर की झलकार ।

औंटा बैठ बजावै बनसी,  लहरी सुरमत छोरा ।  अटक-मटक गौनहरी झूलैं,  अमुवा परो हिंडोरा ।खुटलैया बारिन पै लहकी,  त्योरैया गन्नाई ।खोल किवरियाँ ओ महाराजा  सावन की झर आई  ऊँचे सुर गा अरी बुझाले,  प्रानन लगी दमार,कारी बदरिया उनआई,  हां काजर की झलकार ।

मेंहदी रुचनियाँ केसरिया,  देवैं गोरी हाँतन ।हाल-फूल बिछुआ ठमकावैं  भादों कारी रातन ।माती फुहार झिंझरी सें झमकै  लूमै लेय बलैयाँ-घुंचुअंन दबक दंदा कें चिहुंकें,  प्यारी लाल मुनैयाँ ।हुलक-मलक नैनूँ होले री,  चटको परत कुँवार,कारी बदरिया उनआई,  हाँ काजर की झलकार ।

इस बुंदेली गीत के माध्यम से उनका पर्यावरण प्रेम स्पष्ट परिलक्षित होता है .


इसी तरह उनकी  एक बुन्देली कविता में जो दृश्य उनहोंने प्रस्तुत किया है वह सजीव दिखता है .

बिसराम घरी भर कर लो जू...-------------

बिसराम घरी भर कर लो जू, झपरे महुआ की छैंयां,ढील ढाल हर धरौ धरी पर,  पोंछौ माथ पसीना ।तपी दुफरिया देह झांवरी,  कर्रो क्वांर महीना ।भैंसें परीं डबरियन लोरें,   नदी तीर गई गैयाँ ।बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां ।

सतगजरा की सोंधी रोटीं,  मिरच हरीरी मेवा ।खटुवा के पातन की चटनी,  रुच को बनों कलेवा ।करहा नारे को नीर डाभको,  औगुन पेट पचैयाँ ।बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां ।

लखिया-बिंदिया के पांउन उरझें,  एजू डीम-डिगलियां ।हफरा चलत प्यास के मारें,  बात बड़ी अलभलियां ।दया करो निज पै बैलों पै,  मोरे राम गुसैंयां ।बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां ।


 वे बुन्देली लोकसाहित्य एवं भाषा विज्ञान के विद्वान थे . सीता हरण के बाद श्रीराम की मनः स्थिति को दर्शाता उनका एक बुन्देली गीत यह स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त है कि राम चरित मानस के वे कितने गहरे अध्येता थे .

अकल-विकल हैं प्रान राम के----------------

अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ ।फिरैं नाँय से माँय बिसूरत,  करें झाँवरी मुइयाँ ।

पूछत फिरैं सिंसुपा साल्हें,  बरसज साज बहेरा ।धवा सिहारू महुआ-कहुआ,  पाकर बाँस लमेरा ।

वन तुलसी वनहास माबरी,  देखी री कहुँ सीता ।दूब छिछलनूं बरियारी ओ,  हिन्नी-मिरगी भीता ।

खाई खंदक टुंघ टौरियाँ,   नादिया नारे बोलौ ।घिरनपरेई पंडुक गलगल,  कंठ - पिटक तौ खोलौ  ।ओ बिरछन की छापक छंइयाँ,  कित है जनक-मुनइयाँ ?अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ ।

उपटा खांय टिहुनिया जावें,  चलत कमर कर धारें ।थके-बिदाने बैठ सिला पै,  अपलक नजर पसारें ।

मनी उतारें लखनलाल जू,  डूबे घुन्न-घुनीता ।रचिये कौन उपाय पाइये,  कैसें म्यारुल सीता ।

आसमान फट परो थीगरा,  कैसे कौन लगावै ।संभु त्रिलोचन बसी भवानी,  का विध कौन जगावै ।कौन काप-पसगैयत हेरें,  हे धरनी महि भुंइयाँ ।अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ ।


बुंदेली भाषा का भविष्य नई पीढ़ी के हाथों में है , अब वैश्विक विस्तार के सूचना संसाधन कम्प्यूटर व मोबाईल में निहित हैं , समय की मांग है कि स्व डा पूरन चंद श्रीवास्तव जैसे बुंदेली के विद्वानो को उनका समुचित श्रेय व स्थान , प्रतिष्ठा मिले व बुंदेली भाषा की व्यापक समृद्धि हेतु और काम किया जावे .

विवेक रंजन श्रीवास्तव  

Sunday 5 July, 2020

अकाब --/ प्रबोध गोविल , पुस्तक चर्चा


पुस्तक समीक्षा
अकाब
उपन्यास
लेखक प्रबोध कुमार गोविल
दिशा प्रकाशन दिल्ली
मूल्य २०० रु
पृष्ठ १२८

हिन्दी में समसामयिक मुद्दो पर कम ही उपन्यास  लिखे जा रहे हैं . ऐसे समय में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टावर पर अलकायदा के हमले के संदर्भ को लेकर कहानी बुनते हुये , ग्लोबल विलेज बनती दुनियां से पात्र चयन कर "अकाब" लिखा गया है . जिसमें जापान से प्रारंभ नायक की यात्रा , न्यूयार्क और जम्मू काश्मीर तक का सफर करती है . एक मूलतः जापानी मसाज बाय के जीवन परिदृश्य को  कहानी में बखूबी उतारा गया है . भाषा रोचक है .वर्णन इस तरह है कि पाठक के सम्मुख घटना चित्र खिंचता चला जाता है .  वैश्विक परिदृश्य में उन्मुक्त फिल्मी सितारा स्त्री के चरित्र का वर्णन सजीव है .
न्यूयार्क शहर का वर्णन करते हुये लेखक लिखता है " पत्थरो के साम्राज्य में शीशे जड़कर सभ्यता की पराकाष्ठा मिट्टी को भुलाये बैठी थी " कांक्रीट के नये जंगलो के संदर्भ में यह वर्णन दुबई से लेकर मुम्बई और न्यूयार्क से लेकर टोकियो तक खरा है . पर लिखने का यह सामर्थ्य तभी संभव है जब लेखक ने स्वयं विश्व भ्रमण किया हो  और भीतर तक महानगरो में गुमशुदा मिट्टी को महसूसा हो . इसी तरह वे लिखते हैं " चंद्रमा इन बिल्डिगो के गुंजलक के बीच ताक झांककर ही दिख पाता था . शहर आसमान के चांद का मोहताज भी नहीं था . जिसने भी बहुमंजिला इमारतो में रुपहली बिजली की चमक दमक देखी है वह इन शब्दो के भावार्थ समझ सकता है . जिस उपन्यास के पात्रो के नाम तनिष्क , मसरू ओस्से , आसानिका , सेलिना और शेख साहब, जान अल्तमश  हों , आप समझ सकते हैं उसकी कहानी वैश्विक कैनवास पर ही लिखी  होगी .प्रबोध एक जगह लिखते हैं " एसिया के कुछ देशों की प्रवृत्ति थी कि यहां यूरोप या अमेरिका के देशों में स्थापित मूल्य ज्यादा प्रामाणिक माने जाते हैं . " यह लेखक का अनुभूत यथार्थ जान पड़ता है . ट्विन टावर पर अलकायदा के हमले के संदर्भ में वर्णन है " विश्व की दो सभ्यताओं के बीच वैमनस्य की पराकाष्ठा के इस हादसे में हजारों लोगों ने अपनी जान बेवजह गंवाई . " स्टेच्यू आफ लिबर्टी के शहर में हुआ यह संकीर्ण मानसिकता का हमला सचमुच सभ्यता पर पोती गई कालिख थी . आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक जनमत इसी हमले के बाद बन सका है .  काश्मीर में नायक को मसरू ओस्से की पूर्व में कभी भी न मिली हुयी पत्नी व बेटी से मिल जाना कहानी की नाटकीयता है .मसाज प्रक्रिया के उन्मुक्त वर्णन में बरती गई साब्दिक शालीनता उपन्यास के साहित्यिक स्तर को बनाये रखती है . अस्तु उपन्यास का विन्यास , कथा , रोचक है .  उपन्यास एक बार पठनीय है . लेखक व दिशा प्रकाशन इसके लिये बधाई के पात्र हैं  . मैं दिशा प्रकाशन के मधुदीप जी से लम्बे समय से सुपरिचित हूं . अकाब पक्षी का प्रतीक विमानो के लिये किया गया है , वे ही विमान जो दूरीयो को घण्टो में समेटकर सारी पृ्थ्वी को जोड़ रहे हैं पर जिनका इस्तेमाल ओसामा बिन लादेन ने ट्विन टावर पर हमले के लिये किया था .
vivek ranjan shrivastava

Sunday 19 January, 2020


गाडरवाड़ा में चेतना का राष्ट्रीय पुस्तक पुरस्कार आयोजन

शक्कर नदी के तट पर बसा , ओशो की जन्मभूमि , अरहर दाल और गुड़ उत्पादन के लिए प्रसिद्ध गाडरवाड़ा शहर साहित्य के लिए भी सुप्रसिद्ध है । चेतना संस्था के युवा साथी श्री कुशलेन्द्र श्रीवास्तव , श्री विजय बेशर्म , नरेन्द्र श्रीवास्तव , व टीम ने राष्ट्रीय स्तर पर किताबों के लिए पुरस्कार समारोह का आयोजन किया ।
विवेक रंजन श्रीवास्तव मुख्य अतिथि के रुप मे सम्मानित किये गए ।   सिमट रही शक्कर नदी को पुनः उर्जित करने का सुझाव मुख्य अतिथि ने दिया , जिसे व्यापक सराहना मिली । आयोजन में साहित्य भी भेंट किया गया , जो महत्वपूर्ण रहा , माला , शाल तो प्रत्येक कार्यक्रम में लिए दिए जाते ही हैं । श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव की कृति अनुगुंजन सबको भेंट स्वरूप प्रदान की गई ।