Saturday, 21 March 2009

मृगतृष्णा दे झूठा लालच मन को नित भरमाती जाती !

मृगतृष्णा के आकर्षण में विवश विश्व फँसता जाता है !
बच पाने की इच्छा रख भी नहीं मोह से बच पाता है!!

रंग रूप के चटख दिखावे मन में सहज ललक उकसाते
सुन्दर मनमोहक सपनों का प्रिय वितान एक सज जाता है!!

तर्क वितर्को की उलझन में बुद्धि न कुछ निर्णय कर पाती !
जहाँ देखती उसी दिशा में भ्रम में फँस बढ़ती चकराती !!

वास्तविकता पर परदा डाले भ्रम छलता बन मायावी !
अभिलाषा को नये रंग दे नयनों में बसता जाता है !!

सारा जग यह रंग भूमि है मनोभाव परदे रतनारे !
व्यक्ति पात्र, जीवन नाटक है सुख दुख उजियारे अँधियारे !!

काल चक्र का परिवर्तन करता अभिनय रचता घटनायें !
प्यार बढ़ाती मृग मरीचिका तृप्ति नहीं कोई पाता है !!

ऊपर से संतोष दिखा भी हर अन्तर हरदम प्यासा है !
हरएक आज के साथ जन्मती कल की कोई सुन्दर आशा है !!

मृगतृष्णा दे झूठा लालच मन को नित भरमाती जाती !
मानव मृग सा आतुर प्यासा भागा भागा पछताता है !!

आकुल व्याकुल मानव का मन स्थिर न कभी भी रह पाता है !
सपनों की मादक रुनझुन में सारा जीवन कट जाता है !!

कभी खुमारी कभी वेदना कभी लिये अलसाई चेतना !
मृगतृष्णा में पागल मानव मनचाहा कब कर पाता है

मृगतृष्णा के बड़े जाल में विवश फँसा मन घबराता है !
बच पाने की इच्छा रख भी कहाँ कभी भी बच पाता है

प्रो सी बी श्रीवास्तव विदग्ध

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