बाल कहानी
मन्नू ने जीता मन
विवेक रंजन श्रीवास्तव
न्यूयॉर्क
जंगल के एक हरे-भरे कोने में मन्नू नाम का एक बंदर रहता था। वह बहुत चंचल था। उसका मन हमेशा इधर उधर भटकता रहता, जैसे वृक्ष पर फुदकती गिलहरी हो। एक पल में वह आम के पेड़ पर होता, तो दूसरे ही पल बरगद की लटकती जड़ पकड़ लेता। जो कुछ दिखा, उसकी तरफ बिना समझे दौड़ पड़ना ,मन्नू की आदत थी।
अप्रैल का महीना आया तो जंगल में नए पके आमों की मीठी खुशबू फैली। सभी जानवरों ने तय किया था कि आम सबमें बराबर बाँटे जाएँगे। पर मन्नू का चंचल मन न माना । उसने रात में ही चुपके से आम तोड़ डाले । अगली सुबह जब यह बात पता चली, तो सब जानवर मन्नू पर बहुत नाराज़ हुए। मन्नू को इससे बहुत दुख हुआ । उसने पेड़ के नीचे बैठे बूढ़े और समझदार बजरंगी भालू से रोते रोते मदद माँगी।
बजरंगी ने मन्नू को समझाया, "बेटा, जो अपनी चंचल इंद्रियों पर काबू पा लेता है, वही हर मुश्किल पर जीत पाता है। तुम्हारा मन अभी तक तुम्हारे वश में नहीं है। इसे साधो।"
मन्नू ने पूछा, "पर कैसे?"
बजरंगी मुस्कुराए, "चलो, मैं तुम्हें रास्ता दिखाता हूँ।"
पहले उन्होंने मन्नू के सामने रसभरे केले रखे। "इन्हें तीन दिन सिर्फ़ देखो," बजरंगी बोले। पहला दिन बहुत कठिन था। मन्नू का मन ललचाता, लेकिन वह हिला नहीं। दूसरे दिन उसने खुद से कहा, "मैं इसे कर सकता हूँ।" तीसरे दिन तक केले देखकर भी उसका मन शांत रहा। उसने स्वाद की लालसा पर जीत पा ली थी।
फिर बजरंगी ने उसे एक निचली डाल पर बैठने को कहा। "बारिश रुकने तक यहीं रहो," उन्होंने कहा। बादल घिर आए और ठंडी बारिश होने लगी। मन्नू का मन कहने लगा, "ऊपर चलो, वहाँ सुरक्षित जगह है!" पर मन्नू बजरंगी दादा के कहे अनुसार वहीं रुका रहा, शांत और स्थिर। बारिश रुकी, तो उसे खुद लगा जैसे उसने अपनी चुलबुली आदत पर जीत पा ली हो। बजरंगी भालू ने मन्नू की पीठ थपथपा कर उसकी प्रशंसा की , तो उसका हौसला बढ़ गया।
अंत में, बजरंगी ने उसे एक अँधेरी गुफा में रात बिताने भेजा। अंदर चमगादड़ों की अजीब सी आवाजें थीं। डर के मारे मन्नू का दिल धक-धक कर रहा था। पर उसने गहरी साँस ली और याद किया बजरंगी का कहा, "डर तभी तक है, जब तक तुम उससे डरते हो।" वह पूरी रात वहाँ रहा। सुबह की पहली किरण के साथ ही उसका डर भी ग़ायब हो गया।
बजरंगी दादा के सबक पूरे करके मन्नू समझ गया कि जीत बाहर नहीं, अपने भीतर से हासिल होती है।
इसके कुछ ही दिन बाद, जंगल में भयानक आग लग गई। धुआँ और चिंगारियाँ हर तरफ फैलने लगीं। सभी जानवर घबराकर इधर उधर भागने लगे। तभी मन्नू आगे बढ़ा। उसका मन अब पहले जैसा चंचल नहीं था।
उसमें शांत और स्थिर दिमाग से विपदा से जूझने का हौसला आ गया था।
उसने तेज आवाज़ में कहा, "डरो मत! घबराने से कुछ नहीं होगा, सब मेरे पीछे आओ!" उसने हाथियों के दल से नदी से पानी लाने को कहा, गिलहरियों को छोटे जानवरों को सुरक्षित स्थान पर ले जाने को कहा, और बाकी सबको रेत और हरे पत्तों से आग रोकने को कहा। सबने मिलकर काम किया और आग पर काबू पा लिया गया।
अब मन्नू रात को आम खा जाने वाला चंचल बंदर नहीं रहा , वह जंगल का समझदार नेता बन गया। उसने सबका मन जीत लिया था, पर मन्नू जानता था कि इसके लिए सबसे पहले उसने खुद बजरंगी भालू दादा से अपने मन पर खुद काबू करना सीखा था ।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
न्यूयॉर्क
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