Saturday 31 August, 2024

बड़ा सामूहिक संकलन

 पुस्तक चर्चा

व्यंग्य का बहुरंगी अब तक का सबसे बड़ा सामूहिक संकलन


२१ वीं सदी के श्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय २५१ व्यंग्यकार  

प्रकाशक.. इण्डिया नेट बुक्स , नोयडा
अमेज़न व फ़्लिपकार्ट पर भी उपलब्ध
संपादन .. डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित

हिन्दी जगत में साझे साहित्यिक संकलनो की प्रारंभिक परम्परा तार सप्तक से शुरू हुई थी . वर्तमान अपठनीयता के युग में साहित्यिक किताबें न्यूनतम संख्या में प्रकाशित हो रही हैं , यद्यपि आज भी व्यंग्य के पाठक बहुतायत में हैं . इस कृति के संपादक द्वय डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित ने व्यंग्य के व्हाट्स अप समूह का सदुपयोग करते हुये यह सर्वथा नवाचारी सफल प्रयोग कर दिखाया है .तकनीक के प्रयोग से  इस वैश्विक व्यंग्य संकलन का प्रकाशन ३ माह के न्यूनतम समय में पूरा हुआ है . नवीनतम हिन्दी साफ्टवेयर के प्रयोग से इस किताब की प्रूफ रीडिंग कम्प्यूटर से ही संपन्न की गई है . किताब भारी डिमांड में है तथा प्रतिभागी लेखको को मात्र ८० रु के कूरियर चार्ज पर घर पहुंचाकर भेंट की जा रही है .   तार सप्तक से प्रारंभ साझा प्रकाशन की परम्परा का अब तक का चरमोत्कर्ष है व्यंग्य का बहुरंगी कलेवर वाला ,अब तक का सबसे बड़ा सामूहिक व्यंग्य संकलन "२१ वीं सदी के श्रेष्ठ २५१ व्यंग्यकार " . ६०० से अधिक पृष्ठों के इस ग्रंथ का शोध महत्व बन गया है . इससे पहले डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित "अब तक ७५ " , व उसके बाद "इक्कीसवीं सदी के १३१ श्रेष्ठ व्यंग्यकार " सामूहिक व्यंग्य संकलनो का संपादन , प्रकाशन भी सफलता पूर्वक कर चुके हैं .  
  व्यंग्य अभिव्यक्ति की एक विशिष्ट विधा है . व्यंग्यकार अपनी दृष्टि से समाज को देखता है और समाज में किस तरह से सुधार हो सके इस हेतु व्यंग्य के माध्यम से विसंगतियां उठाता है . संग्रह की रचनाएं समाज के सभी वर्ग के विविध विषयों का प्रतिनिधित्व करती हैं . एक साथ विश्व के 251 व्यंग्यकारों की रचनाएं एक ही संकलन में सामने आने से पाठकों को एक व्यापक फलक पर वर्तमान व्यंग्य की दशा दिशा का एक साथ अवलोकन करने का सुअवसर मिलता है . व्यंग्य प्रस्तुति में टंकण हेतु केंद्रीय हिन्दी निदेशालय की देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण के दिशा निर्देश अपनाये गये हैं . रचनाओ के संपादन में आधार भूत मानव मूल्यों , जातिवाद , नारी के प्रति सम्मान , जैसे बिन्दुओ पर गंभीरता से ध्यान रखा गया है , जिससे ग्रंथ शाश्वत महत्व का बन सका है .
"इक्कीसवीं सदी के 251 अंतरराष्ट्रीय श्रेष्ठ व्यंग्यकार" में व्यंग्य के पुरोधा परसाई की नगरी जबलपुर से इंजी विवेक रंजन श्रीवास्तव , इंजी सुरेंद्र सिंह पवार , इंजी राकेश सोहम , श्री रमेश सैनी , श्री जयप्रकाश पाण्डे , श्री रमाकांत ताम्रकार की विभिन्न किंचित दीर्घजीवी विषयों की रचनायें शामिल हैं . मॉरीशस स्थित विश्व हिंदी सचिवालय द्वारा विश्व को पाँच भौगोलिक क्षेत्रो  में बाँटकर अंतरराष्ट्रीय व्यंग्य लेखन प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था . संकलन में इस प्रतियोगिता के विजेताओं में से सभी प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले व्यंग्यकारों कुसुम नैपसिक (अमेरिका),  मधु कुमारी चौरसिया (युनाइटेड किंगडम),  वीणा सिन्हा (नेपाल),  चांदनी रामधनी‘लवना’ (मॉरीशस),  राकेश शर्मा (भारत) जिन्होंने प्रथम पुरस्कार जीते और आस्था नवल (अमेरिका),  धर्मपाल महेंद्र जैन (कनाडा),  रोहित कुमार 'हैप्पी' (न्यूज़ीलैंड),  रीता कौशल (ऑस्ट्रेलिया) की रचनायें भी संकलित हैं . इनके अलावा विदेश से शामिल होने वाले व्यंग्यकार हैं- तेजेन्द्र शर्मा (युनाइटेड किंगडम),  प्रीता व्यास (न्यूज़ीलैंड),  स्नेहा देव (दुबई),  शैलजा सक्सेना,  समीर लाल 'समीर' और हरि कादियानी (कनाडा) एवं हरिहर झा (ऑस्ट्रेलिया)  इस तरह  की भागीदारी से यह संकलन सही मायनों में अंतरराष्ट्रीय संकलन बन गया है.
          भारत से इस संकलन में 19 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के व्यंग्यकारों ने हिस्सेदारी की है.  मध्य प्रदेश के 65 ,उत्तर प्रदेश  के 39 ,  नई दिल्ली  के  32 , राजस्थान के 32,  महाराष्ट्र  के 18 , छत्तीसगढ़  के 12 ,  हिमाचल प्रदेश के 8 , बिहार के 6 , हरियाणा के 4 , चंडीगढ़ के 3 , झारखंड  के 4 , उत्तराखंड के 4 , कर्नाटक के 4,  पंजाब के 2 , पश्चिम बंगाल के 2 , तेलंगाना से 2 , तमिलनाडु से 1 , गोवा से 1 और  जम्मू-कश्मीर से 1 व्यंग्यकारों के व्यंग्य हैं .
     यदि स्त्री और पुरुष लेखकों की बात करें तो इसमें 51 व्यंग्य लेखिकाएँ शामिल हुई हैं. इस बहु-रंगी व्यंग्य संचयन में जहां डॉ सूर्यबाला, हरि जोशी,  हरीश नवल, सुरेश कांत, सूरज प्रकाश, प्रमोद ताम्बट, जवाहर चौधरी, अंजनी चौहान, अनुराग वाजपेयी, अरविंद तिवारी, विवेक रंजन श्रीवास्तव , विनोद साव,शांतिलाल जैन, श्याम सखा श्याम, मुकेश नेमा, सुधाकर अदीब, स्नेहलता पाठक, स्वाति श्वेता, सुनीता शानू जैसे सुस्थापित व चर्चित हस्ताक्षरो के व्यंग्य  भी पढ़ने मिलते हैं, वही नवोदित व्यंग्यकारों  की रचनाएं एक साथ पढ़ने को सुलभ है
संवेदना की व्यापकता , भाव भाषा शैली और अभिव्यक्ति की दृष्टि से व्यंग्य एक विशिष्ट विधा व अभिव्यक्ति का लोकप्रिय माध्यम है . प्रत्येक अखबार संपादकीय पन्नो पर व्यंग्य छापता है . पाठक चटकारे लेकर रुचि पूर्वक व्यंग्य पढ़ते हैं .  इस ग्रंथ में व्यंग्य की विविध शैलियां उभर कर सामने आई है जो शोधार्थियों के लिए निश्चित ही गंभीर शोध और अनुशीलन का विषय होगी . इस महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्य की अनुगूंज हिन्दी साहित्य जगत में हमेशा रहेगी .

-- विवेक रंजन श्रीवास्तव

Friday 30 August, 2024

इन्हीं औरतों की कड़ी हूँ मैं, पारा पारा

 पुस्तकचर्चा 

पारा पारा (उपन्यास )
लेखिका.. प्रत्यक्षा 
राजकमल पेपरबैक्स 
संस्करण २०२२ , मूल्य २५०रु , पृष्ठ २३० 

 "मैं इन्हीं औरतों की कड़ी हूँ

। मुझमें मोहब्बत और भय समुचित मात्रा में है । मैं आज़ाद होना चाहती हूँ, इस शरीर से, इस मन से , मैं सिर्फ़ मैं बनना चाहती  हूँ, अपनी मर्जी की मालिक, अपने फ़ैसले लेने की अधिकारी, चाहे ग़लत हो सही, अपने तरीके से जीवन जीने की आज़ादी । किसी भी शील से परे। किसी में टैग के परे । मैं अच्छी औरत बुरी औरत नहीं बनना चाहती। मैं सिर्फ़ औरत रहना  चाहती हूँ, जीवन शालीनता से जीना चाहती हूँ, दूसरों को दिलदारी और समझ देना चाहती हूँ और उतना ही उनसे लेना चाहती हूँ। मैं नहीं चाहती कि किसी से मुझे शिक्षा मिले, नौकरी मिले, बस में सीट मिले, क्यू में आगे जाने का विशेष अधिकार मिले। मैं देवी नहीं बनना चाहती, त्याग की मूर्ति नहीं बनना चाहती, अबला बेचारी नहीं रहना चाहती। मैं जैसा पोरस ने सिकन्दर को उसके प्रश्न “तुम मुझसे कैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हो" के जवाब में कहा था, "वैसा ही जैसे एक राजा किसी दूसरे राजा के साथ रखता है, " बस ठीक वैसा ही व्यवहार मेरी आकांक्षाओं में है, जैसे एक पुरुष दूसरे पुरुष के साथ रखता है जैसे एक स्त्री दूसरी स्त्री के साथ रखती है, जैसे एक इनसान किसी दूसरे इनसान के साथ पूरी मानवीयता में रखता है।मैं दिन-रात कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहती। मैं दिन-रात अपने को साबित करते रहने की जद्दोजहद में नहीं गुजारना चाहती। मैं अपना जीवन सार्थक तरीक़े से अपने लिए बिताना चाहती हूँ, एक परिपूर्ण जीवन जहाँ परिवार के अलावा ख़ुद के अन्तरलोक में कोई ऐसी समझ और उससे उपजे सुख की नदी बहती हो,  कि जब अन्त आए तो लगे कि समय जाया नहीं किया, कि ऊर्जा व्यर्थ नहीं की, कि जीवन जिया।मैं प्रगतिशील कहलाने के लिए पश्चिमी कपड़े पहनूँ, गाड़ी चलाऊँ, सिगरेट शराब पियूं देर रत आवारागर्दी करुं  ऐसे स्टीरियो टाइप में नहीं फसंना चाहती। “     … पारा पारा से ही 

न्यूयार्क में भारतीय एम्बेसी  में  प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन और झिलमिल-अमेरिका द्वारा आयोजित कार्यक्रम में अनूप भार्गव Anoop Bhargava जी के सौजन्य से पारा पारा की लेखिका प्रत्यक्षा Pratyaksha जी से साक्षात्कार करने का सुअवसर मिला।  नव प्रकाशित पारा पारा पर केंद्रित आयोजन था. पारा पारा पर तो  बातचीत  हुई ही  ब्लॉगिंग के प्रारम्भिक दिनो से शुरू हो कर  प्रत्यक्षा के कविता लेखन , चित्रकारी ,  कहानियों और उनके पिछले उपन्यासो पर भी चर्चा की।  समीक्षा के लिए   प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन के सौजन्य से पारा पारा की प्रति प्राप्त हुई। मैनें पूरी किताब पढ़ने का मजा  लिया।  मजा इसलिए लिख  रहा हूँ क्योंकि  प्रत्यक्षा की भाषा में कविता है।  उनके वाक्य विन्यास , गद्य व्याकरण की परिधि से मुक्त हैं।  स्त्री विमर्श पर मैं लम्बे समय से लिख  पढ़ रहा हूँ , पारा पारा में लेखिका ने शताब्दियों का नारी विमर्श , इतिहास , भूगोल , सामाजिक सन्दर्भ , वैज्ञानिकता , आधुनिकता ,हस्त लिखित चिट्ठियो से  ईमेल तक सब कुछ काव्य की तरह सीमित शब्दों में समेटने में सफलता पाई है। उनका अध्ययन , अनुभव , ज्ञान परिपक्व है।  वे विदेश भ्रमण के संस्मरण , संस्कृत , संस्कृति , अंग्रेजी , साहित्य , कला सब कुछ मिला जुला अपनी ही स्टाइल में पन्ने दर पन्ने बुनती चलती हैं।    उपन्यास के कथानक तथा  कथ्य मे  पाठक वैचारिक स्तर पर कुछ इस तरह घूमता , डूबता  उतरता रहता है , मानो हेलोवीन में  घर के सामने सजाये गए मकड़ी के जाले में फंसी मकड़ी हो।  उपन्यास का भाषाई प्रवाह , कविता की ठंडी हवा के थपेड़े देता पाठक के सारे बौद्धिक वैचारिक द्वन्द को पात्रों के साथ सोचने समझने को उलझाता भी है तो धूप का एक टुकड़ा नई वैचारिक रौशनी देता है , जिसमे स्त्री वस्तु नहीं बनना चाहती , वह आरक्षण की कृपा नहीं चाहती , वह सिर्फ स्त्री होना चाहती है । स्त्री विमर्श पर पारा पारा एक सशक्त उपन्यास बन पड़ा है। यह उपन्यास एक वैश्विक  परिदृश्य उपस्थित करता है।  इसमें १८७४ का वर्णन है तो आज के ईमेल वाले ज़माने का भी।  स्त्री की निजता के सामान  टेम्पून का वर्णन है तो रायबहादुर की लीलावती के जमाने और बालिका वधु नन्ना का भी। रचना में कथा , उपकथा , कथ्य ,वर्णन , चरित्र , हीरो , हीरोइन, रचना विन्यास , आदि उपन्यास के सारे तत्व प्रखरता से  मौजूद मिलते हैं। प्रयोगधर्मिता है शैली , में और अभिव्यक्ति में, लेखन की स्टाइल में भाषा और बुनावट में ।

मैंने उपन्यास पढ़ते हुए कुछ अंश अपने पाठको के लिए अंडरलाइन किये हैं जिन्हें यथावत नीचे उदृत कर रहा हूँ।  
“..... और इस तरह वो माँ पहले बनीं, बीवी बनने की बारी तो बहुत बाद में आई । विवाह के तुरंत बाद किसी ज़रूरी मुहिम पर राय बहादुर निकल गए थे। किसी बड़ी ने बताया था किस तरह रोता बालक बहू की गोद में चुपा गया था। इस बात की आश्वस्ति पर तसल्ली कर वो निकल पड़े थे। घर में मालकिन है इस बात की तसल्ली।”
 
“...... एक बार उसने मुझे कहा था-
 
 "To take a photograph is to align the head, the eye and the heart. It's a way of life." वो सपने में हमेशा मुस्कुराते दिखते हैं। तस्वीरों में नहीं।
 
 अच्छी तस्वीर लेना उम्दा ज़िन्दगी जीने जैसा है दिल-दिमाग़ और आँख सब एक सुर में...वो सपने में ऐसे ही दिखते हैं। हँसते हुए भी नहीं, उदास भी नहीं और थोड़ा गहरे सोचने पर, शायद मुस्कुराते हुए भी नहीं । “
 
इन पैराग्राफ्स मे आप देख सकते हैं कि प्रत्यक्षा के वाक्य गद्य कविता  हैं।  उनकी अभिव्यक्ति में नाटकीयता है , लेखन  हिंदी अंग्रेजी सम्मिश्रित है।  
 
इसी तरह ये अंश पढ़िए। … 
 
“ मैं निपट अकेली अपने भारी-भरकम बड़े सूटकेस और डफल बैग के साथ सुनसान स्टेशन पर अकेली रह गई थी, हिचकिचाहट दुविधा और घबड़ाहट में।
 लम्बी फ़्लाइट ने मुझे थका डाला था और रात के ग्यारह बज रहे थे। सामान मेरे पैरों के सामने पड़ा था और मुझे आगे क्या करना है की कोई ख़बर न थी। मैं जैसे गुम गई थी। अनजान जगह, अनजान भाषा किस शिद्दत से अपने घर होना चाहती थी अपने कमरे में। एक पल को मैंने आँखें मूँद ली थीं। अफ्रीकी मूल के दो लड़के मिनियेचर एफिल टावर बेच रहे थे, की-रिंग और बॉटल ओपनर और तमाम ऐसी अल्लम-गल्लम चीजें जो टूरिस्ट न चाहते हुए भी यादगारी के लिए ख़रीद लेते हैं। अचानक मुझे किसी दोस्त की चेतावनी याद आई, ऐसे और वैसे लोगों से दूर रहना, ठग ली जाओगी। या रास्ते की जानकारियाँ सिर्फ़ बूढ़ी औरतों से पूछना और अपने वॉलेट और पासपोर्ट को पाउच में कपड़ों में छुपाकर चलना । मैं यहाँ अनाथ थी। कोई अपना न था, मेरे सर पर कोई छत न थी। “
 
भले ही प्रत्यक्षा  ने पारा पारा को हीरा , तारा , लीलावती , कुसुमलता , भुवन , जितेन , निर्मल , तारिक , नैन , अनुसूया वगैरह कई कई पात्रों  के माध्यम से बुना है , और  हीरा उपनयास की मुख्य पात्र हैं।  पर जितना मैंने प्रत्यक्षा को  थोड़ा बहुत समझा है मुझे लगता है कि  यह उनकी स्वयं की कहानी भले ही न हो पर पात्रों  की अभिव्यक्ति मे वे खुद पूरी तरह अधिरोपित हैं।  उनके  व्यक्तिगत अनुभव् ही उपन्यास  के पात्रों के माध्यम से सफलता पूर्वक सार्वजनिक हुए हैं।  लेखिका के विचारों का , उनके अंतरमन  का ऐसा साहित्यिक लोकव्यापीकरण ही रचनाकार की सफलता है. 
उपन्यास के चैप्टर्स पात्रों  के अनुभव विशेष पर हैं। मसलन “ दुनिया टेढ़ी खड़ी और मैं बस उसे सीधा करना चाहती थी। .. हीरा  “ या   “ नील रतन  नीलांजना.. नैन “  . स्वाभाविक है कि उपन्यास कई सिटिग में रचा गया होगा, जो गहराई से पढ़ने पर समझ आता है . 
पुराने समय मे ग्रामीण परिवेश में खटमल , बिच्छू , जोंक , वगैरह प्राणी उसी तरह घरों में मिल जाते थे जैसे आज मच्छर या मख्खी , एक प्रसंग में वे लिखती हैं “ तुम्हारे पापा का नसीब अच्छा था , बिच्छू पाजामें से फिसलता जमीं पर आ गिरा “ यह उदृत करने का आशय मात्र इतना है की प्रत्यक्षा का आब्जर्वेशन और उसे उपन्यास के हिस्से के रूप मे पुनर्प्रस्तुत करने का उनका सामर्थ्य परिपक्वता से मुखरित हुआ है।  १९९२ के बावरी विध्वंस पर लिखते हुये एक ऐतिहासिक चूक लेखिका से हुई है वे लिखती हैं की हजारों लोग इस हिंसा कि बलि चढ़ गए जबकि यह आन रिकार्ड है की बावरी विध्वंस के दौरान १७ लोग मारे गए थे , हजारों तो कतई नहीं। 
 
मैं उपन्यास का कथा सार बिलकुल उजागर नहीं करूंगा , बल्कि मैं चाहूंगा कि आप पारा पारा खरीदें और स्वयं पढ़ें।  मुझे भरोसा है एक बार मन लगा तो आप समूचा उपन्यास पढ़कर ही दम लेंगे , प्रेम त्रिकोण में नारी मन की मुखरता से नए वैचारिक सूत्र खोजिये।  नारी विमर्श पर बेहतरीन किताब बड़े दिनों में आई है और इसे आपको पढ़ना चाहिए। 

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल
वर्तमान मे 
न्यूजर्सी अमेरिका 
 

विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया (जीवनी)

 पुस्तक चर्चा



विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया
(जीवनी)
आई एस बी एन ८१.७७६१.०१९.८
सुरेंद्र सिंह पवार
समन्वय प्रकाशन अभियान , जबलपुर
मूल्य  १२५ रु
चर्चा .... विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  , जे के रोड , भोपाल ४६२०२३
मो ७०००३७५७९८


  मुझे भारत रत्न मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया जी के जीवन पर लिखी गई कई किताबें पढ़ने मिली हैं । मानव जीवन में विज्ञान के विकास को मूर्त रूप देने में इंजीनियर्स का योगदान रहा है और हमेशा बना रहेगा । किन्तु बदलते परिवेश में भ्रष्टाचार के चलते इंजीनियर्स को रुपया बनाने की मशीन समझने की भूल हो रही है ।  भौतिकवाद की इस आपाधापी में राजनैतिक दबाव में तकनीक से समझौते कर लेना इंजीनियर्स की स्वयं की गलती है । देखना होगा कि निहित स्वार्थों के लिये तकनीक पर राजनीति हावी न होने पावे । भारत रत्न मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया तकनीक के प्रति समर्पित इंजीनियर थे , उनका जीवन न केवल इंजीनियर्स के लिये वरन प्रत्येक युवा के लिये प्रेरणा है ।
सुरेंद्र सिंह पवार एक कुशल शब्द शिल्पी हैं । वे नियमित रूप से हिन्दी साहित्य जगत की महत्वपूर्ण त्रैमासिक पत्रिका साहित्य संस्कार का संपादन कर रहे हैं , उन्होने इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स की वार्षिक बहुभाषी पत्रिका अभियंता बंधु का संपादन भी किया है । विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया में उन्होंने विषय वस्तु को शाश्वत , पाठकोपयोगी , और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है । यह जीवनी केंद्रित कृति हाल ही समन्वय प्रकाशन जबलपुर से छपी है । योजनाबद्ध तरीके से विश्वेश्वरैया जी पर प्रामाणिक सामग्री संजोई गई है । महान अभियंता की जीवन यात्रा को १२ अध्यायों में बांटकर रोचक फार्मेट में पाठको के लिये प्रस्तुत किया है । प्रासंगिक फोटोग्राफ के संग प्रकाशन से जीवनी अधिक ग्राह्य बन सकी है ।  विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया उन पर केंद्रित सहज , प्रवाहमान शैली में , हिन्दी में पहली विशद जीवनी है । किसी के जीवन पर लिखने हेतु रचनाकार को उसके समय परिवेश और परिस्थितियों में मानसिक रूप से उतरकर तादात्म्य स्थापित करना वांछित होता है । विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया में सुरेंद्र सिंह पवार ने विश्वेश्वरैया जी के प्रति समुचित तथ्य रखने में सफलता पाई है ।
पहले अध्याय में विश्वेश्वरैया जी की १०१ वर्षो के सुदीर्घ जीवन , उनके घर परिवार की जानकारियां संजोई गई हैं । किताब के अंत में संदर्भो का उल्लेख भी है , जो शोधार्थियों के लिये उपयोगी होगा । दूसरा अध्याय विश्वेश्वरैया जी के ब्रिटिश सरकार के रूप में कार्यकाल पर केंद्रित किया गया है । इसमें उनके द्वारा डिजाइन की गई सिंचाई की ब्लाक पद्धति , खडकवासला झील के लिये बनवाया गया स्वचलित गेट , सिंध प्रांत में सख्खर पर निर्मित बांध और नहरें ,आदि कार्यों की जानकारियां समाहित की गई हैं । उल्लेखनीय है कि विश्वेश्वरैया जी ने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर हैदराबाद में मूसा नदी पर बाढ़ नियंत्रण , उस्मान सागर तथा हिमायत सागर के निर्माण कार्यों में भागीदारी की थी , यह सब तीसरे अध्याया का हिस्सा है । चौथे और पांचवे अध्याय में उनके मैसूर के कार्यकाल में निर्मित सुप्रसिद्ध कृष्ण राज सागर डैम , बृंदावन गार्डन विषयक जानकारियां तथा मैसूर रियासत के दीवान के रूप में किये गये शिक्षा , रेल , बंदरगाह स्टील वर्क्स आदि कार्य वर्णित हैं । छठा अध्याय उनकी विदेश यात्राओ की रोचक बातें बताता है । सातवें अध्याय में देश के विभिन्न हिस्सों में कंसल्टैंट के रूप में किये गये विश्वैश्वरैया जी के अनेक कार्यो पर प्रकाश डाला गया है । आठवां अध्याय उनके लोकप्रिय व्यक्तित्व के बारे में लिखा गया है । महात्मा गांधी तब एक राष्ट्र पुरुष के रूप में मुखरित हो चुके थे , उनके साथ विश्वेश्वरैया की भेंट के वर्णन यहां मिलते हैं । नौं वें अध्याय में विश्वेश्वरैया जी के भाषण , भात के आर्थिक विकास की उनकी सोच , तथा उनके जीवन की सुस्मृतियां संजोई गई हैं । विश्वेश्वरैया जी को देश विदेश से अनेकानेक सम्मान मानद उपाधियां , मिलीं उन्हें भारत रत्न प्रदान किया गया , उन पर डाक टिकिट जारी की गई । ये जानकारियां दसवें अध्याय का पाठ्य हैं । ग्यारवें अध्याय में गूगल द्वारा उन्हें प्रदत्त सम्मान , उनके जन्म दिवस पर इंजीनियर्स डे का प्रति वर्ष आयोजन , तथा उनकी अंतिम यात्रा का वर्णन है । बारहवां और अंतिम अध्याय परिशिष्ट है जिसमें अनेक महत्वपूर्ण संदर्भ प्रस्तुत किये गये हैं ।
१९०२ में एक मैसूर वासी नाम से युवा  विश्वेश्वरैया ने तकनीकी शिक्षा के संदर्भ में उनके विचार एक पत्रक के रूप में लिखे थे । इससे उनके वृहद सिद्धांत , स्व नहीं समाज की झलक मिलती है । उन्होंने कहीं लिखा कि मैं काम रते करते मरना चाहता हूं , वे जीवन पर्यंत सक्रिय रहे । उनकी दीर्घ आयु का राज भी यही है कि उन्होंने स्वयं पर जंग नहीं लगने दी , वे इस्पात की तरह सदा चमचमाते रहे ।  कुल मिलाकर स्पष्ट दिखता है कि सुरेंद्र सिंह पवार ने एक श्रम साध्य कार्य कर हिन्दी में विश्वेश्वरैया जी की जीवनी लिखने का बड़ा कार्य किया है , जो सदैव संदर्भ बना रहेगा । त्रुटि रहित साफ सुथरी प्रिंट में स्वच्छसफेद कागज पर पूर्ण डिमाई आकार की १३६ पृष्ठीय किताब मात्र १०० रु में सुलभ है । मेरा सुझाव है कि इसे सभी इंजीनियरिंग कालेजों में अवश्य खरीदा जाना चाहिये । यदि भीतर के चेप्टर्स में भी अनुक्रम के अध्याय नम्बर डाल दिये जाते तो रिफरेंस लेने में और सरलता होती , अगले एडीशन में यह सुधार वांछित है । अस्तु खरीदिये , पढ़िये ।

चर्चा .... विवेक रंजन श्रीवास्तव

Thursday 29 August, 2024

इत्ती सी बात में बड़ी बड़ी बातें

 

व्यंग्य संग्रह ... इत्ती सी बात
लेखक .. विजी श्रीवास्तव , भोपाल
प्रकाशक .. वनिका पब्लीकेशन , बिजनौर
पृष्ठ ..२२४ , मूल्य ३५० रु

चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए २३३ . ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी , भोपाल , ४६२०२३


सतीश शुक्ल का उपन्यास "इत्ती सी बात" नाम से ही प्रकाशित हुआ था ,जिसमें दो दोस्तों की कहानियां थी । १९८१ में एक फिल्म आई थी "इतनी सी बात" पारिवारिक ड्रामा था । कोरोना के बाद एक फिल्म आई ‘इत्तू सी बात’ जिस की कहानी इत्ती सी है कि अपनी प्रेमिका से आई लव यू सुनने के लिए एक युवा को आईफोन का जुगाड़ करना है। कहने का आशय यह कि "इत्ती सी बात" में ऐसी बड़ी बातें समाई होती हैं जो बार बार रचनाकारों को आकर्षित करती रहती हैं । व्यंजना के धनी विजी श्रीवास्तव का व्यंग्य संग्रह इत्ती सी बात २०१९ में आया । पिछले लंबे समय से मेरे तकिये के पास था , और मैं इसे मजे लेकर चबा चबा कर पढ़ता रहा । आज आजाद ख्याल विजी भाई का जनमदिन भी है और देश की आजादी की भी वर्षगांठ है , सोचा इत्ती सी बात पर कुछ चर्चा करके विजी जी को बधाई दे दूं । अस्तु ।
व्यंग्य पुरोधा डा ज्ञान सर ने लिखा है कि विजी किसी महत्वाकांक्षा के बिना एक बड़े से व्यंग्य लेखक हैं । व्यंग्य यात्रा के सारथी डा प्रेम जनमेजय जी विजी को अपनी पसंद का लेखक बताते हैं । किताब में सम्मलित स्फुट रूप से लिखे गये विभिन्न विषयों के ७२ व्यंग्य लेखों पर व्यंग्य के प्रखर आलोचक सुभाष चंदर जी किताब को सार्थक व्यंग्य की बानगी बताते हैं , व्यंग्य के अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ आलोक पुराणिक ने विजी की व्यंग्य साधना को सहज निरुपित किया है । अनूप शुक्ल इन्हें बिना लाग लपेट के लिखे गये बताते हैं । और शांति लाल जैन जी ने इन व्यंग्य लेखों की भाषा में नटखट चुलबुलापान दूंढ़ निकाला है । समकाल के व्यंग्य परिदृश्य के इस  प्रमाणीकरण के बाद लिखने को शेष कम बचता है । स्वयं विजी अपने बिगड़े बोल में किताब को कैक्टस का गुलदस्ता बताते हैं ।
विजी चाहते तो इतने स्तरीय कलेवर से कम से कम दो किताबें प्रकाशित कर सकते थे । लंबे समय का विविध स्फुट लेखन किताब में संग्रहित है । कुछ विषय जिन्हें मैंने पढ़ते हुये रेखांकित किया , का उल्लेख करता हूं " गुरु द्रोण तुम कहाँ हो" "सत्य जो ढूँढन मैं चला" "मुझे अवार्ड लौटाना है" "किसान की आत्मा धरने पर" "कट-कॉपी पेस्ट" "हिन्दी के आँसुओं का विश्लेषण" "विकास की चिंता और इकत्तीस मार्च " "हिन्दुस्तानी चैनल की बहस" "मौत का मुआवज़ा" "इत्ती सी बात"
" सब कुछ प्रायोजित है" "पेन देंगे भाईसाहब " .... प्रत्येक व्यंग्य दूसरे से कुछ बढ़कर लगा । पूरी किताब गुदगुदाती है , ऐसा लगता है कि ये मेरी अपनी अनुभुति है , बल्कि कई विषयों पर मैंने भी लिखा ही है , किसी दूसरी तरह किसी भिन्न शीर्षक से , पर यह तय है कि जिन मुद्दों पर संवेदनशील मन कचोटता है , उन पर विजी जी ने कलम चलाई है , बेबाकी से पूरी निष्ठुरता से बिना डरे , व्यंग्य के कौशल व्यंजना और लक्षणा के बोध के साथ संप्रेषण की योग्यता के साथ चलाई है । वे अपने लक्षित पाठकों तक कथ्य पहुंचाने में सफल पाये गये । सभी व्यंग्य छोटे हैं पर लक्ष्य बेधन में सफल हैं । शीर्षक व्यंग्य "इत्ती सी बात " से उधृत है " आजादी के इत्ते सालों बाद हमने विकास का जित्ता सफर तय किया है उत्ता तो हमने न जाने कब पीछे छोड़ दिया होता जो उत्ता लुटे न होते " कित्ती कित्ती कुर्बानियों से बने देश में इत्ती इत्ती सी बात पर झगड़ने से हम कित्ता कित्ता खुद का नुकसान कर लेते हैं " ऐसी सरल शैली में इत्ती वाजिब चिंता विजी के विजन और सोच बताती है ।  
"बड़े बाबू की पर्सनल डायरी"  में विजी एक नये तरीके से दायरी के पन्नो को व्यंग्य बनाने की क्षमता प्रदर्शित करते हुये एक सर्वथा भिन्न शैली में लिखते हैं । इसी भांति " तोड़ी नाखो, फोड़ी नाखो, भूको करी नाखो " नाट्य संवाद शैली का व्यंग्य है । अमिताभ बच्चन और किसान चैनल में भी उन्होंने नवीनता का बोध करवाया है , सुप्रसिद्ध टी वी कार्यक्रम के बी सी की तर्ज पर कटाक्ष से भरपूर सवाल हैं जो किसान के परिदृश्य में करुणा , संवेदना और दर्द से पाठक को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकते । वे अपनी आजीविका में कृषि जगत से जुड़े हुये हैं और उन्होंने जो कुछ बहुत पास से देखा उसे पाठको को उसी भाव से संप्रेषित करने में सफलता अर्जित की है । "रेप से बेअसर रेपो" कटु सचाई है ।  दुखद है कि विजी ने जो मुद्दे व्यंग्य के लिये चुने वे समाज का शाश्वत नासूर बन रहे हैं । कहा जाता है कि व्यंग्य की उम्र अधिक नहीं होती वह अखबारी होता है , किंतु व्यंग्यकार की दृष्टि , और उसकी अभिव्यक्ति सशक्त हो तो व्यंग्य दीर्घ जीवी बन जाता है , क्योंकि मूल मानवीय और सामाजिक प्रवृतियां किंबहुना स्वरूप बदल बदल कर वही बनी हुई हैं । किताब चर्चा योग्य है , खरीदकर पढ़ना घाटे का सौदा बिल्कुल नहीं है । किताब का अंतिम पैरा पढ़वाता हूं " अजीबो गरीब कहानियों की जलेबी , फेकम फाँक पगे घेवर , गठजोड़ का खत्टा चिरपरा मिक्चर , किसी को पच नहीं रहा । .... चूरण की जरूरत किसे है ? जनता को या उन्हें जिनकी न लीलने की सीमा न उगलने का शउर है । "न लीलने की सीमा न उगलने का शउर " से ।


विवेक रंजन श्रीवास्तव

नीदरलैंड की लोक कथायें

    पुस्तक चर्चा

नीदरलैंड की लोक कथायें


हिन्दी प्रस्तुति डा ॠतु शर्मा
वंश पब्लिकेशन , रायपुर , भोपाल
पहला संस्करण २०२३ , पृष्ठ १०८ , मूल्य २५०रु
ISBN 978-81-19395-86-6

चर्चा ... विवेक रंजन श्रीवास्तव , ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी , भोपाल ४६२०२३


प्रत्येक संस्कृति में लोक कथायें पीढ़ियों से मौखिक रूप से कही जाने वाली कहानियों के रूप में प्रचलन में हैं । सामान्यतः परिवार के बुजुर्ग बच्चों को ये कहानियां सुनाया करते हैं और इस तरह बिना लिखे हुये भी सदियों से जन श्रुति साहित्य की ये कहानियां किंचित सामयिक परिवर्तनो के साथ यथावत चली आ रही है।  इन कहानियों के मूल लेखक अज्ञात हैं । किन्तु लोक कथायें सांस्कृतिक परिचय देती हैं । आर्थर की लोक कथाओ को  ईमानदारी, वफादारी और जिम्मेदारी के ब्रिटिश मूल्यों को अंग्रेजो की राष्ट्रीय पहचान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है । भारत में पंचतंत्र की कहानियां नैतिक शिक्षा की पाठशाला ही हैं , उनसे भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का परिचय भी मिलता है । लोक कथायें बच्चों के अवचेतन मन में संस्कारों का प्रतिरोपण भी करती हैं । समय के साथ एकल परिवारों के चलते लोककथाओ के पीढ़ी दर पीढ़ी पारंपरिक प्रवाह पर विराम लग रहे हैं अतः नये प्रकाशन संसाधनो से उनका विस्तार आवश्यक हो चला है । विभिन्न भाषाओ में अनुवाद का महत्व निर्विवाद है । आज की ग्लोबल विलेज वाली दुनियां में अनुवाद अलग अलग संस्कृतियों को पहचानने के साथ ही सामाजिक सद्भाव के लिए भी महत्वपूर्ण है। अनुवाद ही एकमात्र ऐसा माध्यम है जिसके जरिये क्षेत्रीयताके संकुचित दायरे टूटते हैं । यूरोपियन देशों में नीदरलैंड्स में  फ्रांसीसी, अंग्रेज़ी और जर्मन भी समझी जाती है ।
प्रस्तुत पुस्तक नीदरलैंड की लोक कथायें में डा ॠतु शर्मा ने बहुत महत्वपूर्ण कार्य करते हुये छै लोककथायें नीदरलैंड से , दो स्वीडन से ,   इटली से तथा जर्मनी से एक एक कहानी चुनी । डा ॠतु शर्मा ने कोई लेखकीय नहीं लिखा है । यह स्पष्ट नहीं है कि ये लोककथायें लेखिका ने  कहां से ले कर हिन्दी अनुवाद किया है । कहानियों को हिन्दी में बच्चों के लिये सहज सरल भाषा में प्रस्तुत करने में लेखिका को सफलता मिली है । यद्यपि कहानियों को किंचित अधिक विस्तार से कहा गया है । जादुई पोशाक , चांदी का सिक्का , बुद्धू दांनचे , स्वर्ग का उपवन , तिकोनी ठुड्डी वाला राजकुमार , और दो लैंपपोस्ट की प्रेम कहानी नीदर लैंड की कहानियां हैं । जिनके शीर्षक ही बता रहे हैं कि उनमें कल्पना , फैंटेसी , चांदी के सिक्के और लैंप पोस्ट जैंसी जड़ वस्तुओ का मानवीकरण , थोड़ी शिक्षा , थोड़ा कथा तत्व पढ़ने मिलता है । स्वीडन की लोककथायें नन्हीं ईदा के जादुई फूल और रेत वाला कहानीकार हैं । इटली की लोक कहानी तीन सिद्धांत और जर्मन लोक कथा तीन सोने के बाल के हिन्दी रूप पढ़ने मिले ।
इस तरह  का साहित्य जितना ज्यादा प्रकाशित हो बेहतर है । वंश पब्लिकेशन , छत्तीसगढ़ , मध्यप्रदेश सहित हिनदी बैल्ट के राज्यो में अपने नये नये प्रकाशनो के जरिये गरिमामय स्थान अर्जित कर रहा उदयीमान प्रकाशन है । वे उनके सिस्टर कन्सर्न ज्ञानमुद्रा के साथ लेखको के तथा किताबों के परिचय पर किताबें भी निकाल रहे हैँ । मेरी मंगल कामनाये । यह पुस्तक विश्व साहित्य को पढ़ने की दृष्टि से बहुउपयोगी और पठनीय है ।


जमीनी हकीकत पर "औघड़"एक उम्दा उपन्यास

 पुस्तक चर्चा

औघड़
उपन्यासकार .नीलोत्पल मृणाल
प्रकाशक ...हिन्द युग्म  , नोएडा
पृष्ठ ..३८८, मूल्य २०० रु

चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए २३३ . ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी , भोपाल , ४६२०२३

हिन्द युग्म “नई वाली हिंदी” का जश्न मनाने वाला , युवाओ द्वारा प्रारंभ की गई साहित्यिक यात्रा का मंच है । ब्लागिंग के प्रारंभिक दिनों में शैलेश भारतवासी ने हिन्दयुग्म प्रकाशन शुरु किया था । काव्य पल्लवन ब्लाग से मैं भी हिन्द युग्म के प्रारंभिक समय से जुडा रहा हूं । हिन्द युग्म ने कई हिट्स साहित्य जगत को दिये हैं । नीलोत्पल का "औघड़" भी उनमें से एक है । मलखानपुर गांव के इकतीस शब्द दृश्य बेबाकी से यथार्थ बयानी करते हैं । नीलोत्पल की लेखनी में प्रवाह है ।
चाय की गुमटी वाले मुरारी, पंडित जी , जग्गू दा , जगदीश यादव , डागदर साहब , गणेशी , आदि आदि चरित्र पात्रों के संग कथानक के नायक सामंतवाद के प्रतिनिधि पुरोषत्तम सिंह और फूंकन सिंह वर्सेस पेशाब की धार को हथियार बनाकर जमीदार की हवेली पर प्रहार करने वाला औघड़ गंजेड़ी बिरंचिया ... सब को बड़ी सहजता से "औघड़" में पिरो कर प्रस्तुत किया गया है । बिना नायिका के भी उपन्यास पाठक को अपने साथ बनाये रखने में पूरी तरह सफल है ।
नीलोत्पल मृणाल नई पीढ़ी के लोकप्रिय लेखकों में से हैं , उन्हें साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार मिल चुका है । औघड़ लोकभाषा और उसी टोन में गांव की पृष्ठ भूमि पर लिखा गया उपन्यास है ।  
रोजमर्रा की ग्रामीण समस्याओ को रेखांकित किया गया है , उपन्यास अंश उधृत है " रमनी देवी ने कई बार कहा था कि रात-बिरात हरदम बाहर जाना पड़ता है। सुबह खेत जाओ तो लाज लगता है। कल के दिन घर में बहू आएगी तऽ ऊहो का ऐसे ही खेत जाएगी? काम भर के खाने-पीने का फसल हो ही जाता है। क्या घर में एक ठो लैटरिंग रूम नहीं बन सकता ? गरीब और किसान घर की औरत का इज्जत पानी नहीं है का? एक दिन रात को बलेसर के पतोह को दू-चार लफुआ मोटरसायकिल के लाइट मार रहा था। बेचारी कैसहूँ इज्जत ढक भागी। काहे नहीं बनवा देते हैं घर में लैटरिंग रूम ?"
इसी तरह भूत प्रेत टोना टुटके पर ग्रामीण नजरिये का अंदाजा इस अंश में देखिये "अरे, धीरे बोलिए ना आप। काहे हमारा प्राण लेने पर तुल गए हैं बाबा। अरे बाबा हम तो कह रहे हैं कि 1000 परसेंट भूत ही पकड़ा है चंदन बाबा को । लेकिन ई भूत हिंदू भूत है ही नहीं, महराज यह मुसलमान है, मुसलमान भूत। तब ना इतना उत्पात मचा रहा है। मुसलमानी भूत को क्या कर लेगा आपका जंतर-मंतर।" लटकु भंडारी ने यह बता जैसे ब्रह्मांड की उत्पत्ति का रहस्य खोलकर रख दिया हो।"
नीलोत्पल के वाक्य विन्यास व्याकरण की सीमाओ से परे बोलचाल की ग्रामीण भाषा में ही है ।
नमूना देखिये " गहरा साँवला रंग। हड्डी पर काम भर का माँस। यही बनावट थी वैजनाथ की। "
सहज दृश्य वर्णन में वे नये उपमान रचते हैं , " समय खेत जाते बैल की तरह चला जा रहा था " , "मुरारी ने अपने इस सार्थक वचन के साथ ही चर्चा को एक नया फलक प्रदान कर दिया था। चाय पर चर्चा, देश को कितनी सार्थक दिशा दे सकती है, यह यहाँ आकर देखा और समझा जा सकता था। दूरदर्शन और उसके समाज पर प्रभाव के इस सेमीनार का सत्र चल ही रहा था कि मस्जिद से अजान की आवाज आई, "अल्लाह हू अकबर... "लीजिए अजान हो गया। बैरागी पंडी जी के आने का हो गया टाइम।" मुरारी ने चाय का कप बढ़ाते हुए कहा। असल में बैरागी पंडी जी गाँव के ही मंदिर में पुजारी थे। अजान की आवाज अल्लाह तक जाने से पहले मंदिर के देवी-देवाताओं को मिल जाती थी। बैरागी पंडी जी को वर्षों से अजान की आवाज सुनकर उठने की आदत थी। यही उनका दैनिक अलार्म था। " .... यह गाँव ही था जहां आम कुत्ते भी हीरा , मोती , शेरा नाम से जाने जाते थे " .
उपन्यास में गांवो के सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे की विसंगतियां,  धार्मिक पाखंड, जात-पात, छुआछूत, महिलाओ की स्थिति का यथार्थ , अपराध और प्रसाशन के गठजोड़, झोलाछाप स्वास्थ्य व्यवस्था ,सामंतवादी सोच के खिलाफ मध्य वर्ग की चेतना आदि विषयों को पूरी गंभीरता से सामने लाने का प्रयास किया गया है।
बिरंचिया गंजेड़ी है । वह फूंकन सिंह की हवेली के सामने के नल से ही पानी पीकर पीछे की दीवार पर पेशाब कर उसे कमजोर करने की मशक्कत में लगा रहता है । उसके माध्यम से व्यंजना में बिटवीन द लाइन्स लेखक ने सामंतवाद के विरोध में बहुत कुछ अभिव्यक्त किया है । बिरंचिया की असामयिक मौत के 13 दिन बाद अंतिम पृष्ठ से उधृत है .... " रात के 11:30 बजे थे। पुरुषोत्तम सिंह की पत्नी आँगन में कुछ सामान लेने गई थी। तभी उसे लगा कि हाते के पास कुछ आकृति जैसी दिखी हो। उसने करीब जाकर दीवार के पार झाँका। झाँकते ही वह बदहवास उल्टे पाँव चिल्लाकर दौड़ी। घर के लोग तब तक लगभग सो चुके थे। आवाज सुनकर सबसे पहले पुरुषोत्तम सिंह हड़बड़ाकर जागे। "अरे क्या हुआ ? अरे हुआ क्या, काहे चिल्लाए हैं?" पुरुषोत्तम सिंह ने अपने कमरे से बाहर आकर पूछा। "अजी बिरंचिया। बिरंचिया को देखे हम। वहाँ है। वहाँ खड़ा है।" क्षणभर में पसीने से नहा चुकी, डर से थर-थर काँप रही पत्नी माला देवी ने बताया। "का ? दिमाग खराब है क्या तुम्हारा माँ!" तब तक उठकर आ चुका फूँकन सिंह अंदर के बरामदे से बोला। बाप-बेटे ने लाठी-टॉर्च लेकर पीछे जाकर देखा।
फूंकन सिंह लपक के दीवार पर चढ़ा और पुरुषोत्तम सिंह एक ऊँचा स्टूल लेकर टॉर्च मारने लगे। एक जगह टार्च जाते ही सिहर उठे दोनों। दीवार का एक कोना भीगा हुआ था। फूँकन सिंह तो देखते ही दीवार से कूदकर आँगन में आ गया था। पुरुषोत्तम सिंह ने काँपते कलेजे को सँभालते हुए एक बार सीधी रेखा में टार्च मारी। उन्हें भी लगा कि कोई आदमी काला कंबल ओढ़े दूर खेतों की ओर से निकल रहा है। पुरुषोत्तम सिंह को भी जो दिखा उस पर खुद भी यकीन नहीं कर पा रहे थे।... आखिर कौन था वो आदमी ? कोई तो था। बाप-बेटे अंदर से हिल चुके थे। पसीने से तरबतर, एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। दीवार अब भी खतरे में थी।
कुल जमा सहज भाषा में नाटकीयता से परे जमीनी हकीकत पर "औघड़"एक उम्दा उपन्यास

है । कूब पढ़ा जा रहा है , प्रिंट रिप्रिंट जारी है , अमेजन पर सुलभ है , आप भी पढ़िये ।
चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव

########

Wednesday 28 August, 2024

जलनाद, पानी के महत्व की पौराणिक कथाओं की नाट्य प्रस्तुति


 पुस्तक चर्चा

जलनाद ( लम्बा नाटक)
विवेक रंजन श्रीवास्तव
इण्डिया नेट बुक्स , नोएडा
मूल्य  १२५ रु
चर्चा .... विभूति खरे , बानेर ,पुणे

न केवल जीवन और पर्यावरण में जल का महत्व निर्विवाद है बल्कि जल श्रोत सांस्कृतिक एवं धार्मिक आयाम में भी गहरे रूप से जुड़े हुए हैं। पानी की कमी या नदियों की बाढ़ दोनो ही स्थितियां त्राहि त्राहि की स्थितियां पैदा कर देती है । इसीलिये लोगों के मन में पानी का महत्व स्थापित करने हेतु प्रत्येक धर्म में पानी की शुद्धता और बचत को लेकर अनेक कथानक गढ़े गये हैं । विवेक रंजन श्रीवास्तव अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मानो से पुरस्कृत बहुविध लेखक हैं । वे शिक्षा तथा पेशे से मूलतः इंजीनियर रहे हैं । उनकी लगभग २० किताबें विभिन्न विषयों पर प्रकाशित और चर्चित हैं । ये पुस्तकें ई प्लेटफार्म किंडल आदि पर भी सुलभ हैं । विवेक रंजन श्रीवास्तव को नाटक के लिये मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का प्रसिद्ध हरिकृष्ण प्रेमी सम्मान प्राप्त हो चुका है । उन्होंने १२ अंको का लम्बा नाटक "जलनाद" लिखकर स्टेज के जरिये पानी के प्रासंगिक महत्व को रेखांकित किया है । जल के देवता भगवान इंद्र को ही वरुण देव और भगवान झूलेलाल के नामों से भी प्रतिपादित किया गया है । मुस्लिम धर्म में भी पानी के पीर ,जिन्दह पीर की कल्पना है । भारत रत्न सर मोक्षगुण्डम विश्वैश्वरैया जी के महान कार्यों में से एक मैसूर का सुप्रसिद्ध नागार्जुन सागर बांध है। पानी भविष्य की एक बड़ी वैश्विक चुनौती है . भारत दुनियां का सर्वाधिक आबादी वाला देश बन चुका है , विश्व की जनसंख्या निरंतर बढ़ रही है ,इससे स्वच्छ जल की आवश्यकता बढ़ रही है . जलवायु परिवर्तन और जन सांख्यकीय वृद्धि के कारण जल स्त्रोतो पर जल दोहन का असाधारण दबाव बन रहा है . बारम्बार बादलो के फटने और अतिवर्षा से जल निकासी के मार्ग तटबंध तोड़कर बहते हैं ,बाढ़ से विनाश लीला के दृश्य बनते हैं .  समुद्र के जलस्तर में वृद्धि से आवासीय भूमि कम होती जा रही है , अनेक द्वीप डूबने के खतरे हैं । पेय जल की कमी से वैश्विक रुप से लोगो के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है .  विशेषज्ञों के अनुसार जल आपदा से बचने हेतु हमें अपने आचरण बदलने चाहिये ,जल उपयोग में मितव्ययता बरतनी चाहिये .पर वास्तविकता इससे कोसों दूर है । पानी के प्रति जन मानस में सही समझ विकसित करने तथा पानी को लेकर सुव्यवस्थित इंफ्रास्ट्रकचर बांध ,नहरें , पीने के पानी व सिंचाई के पानी की आपूर्ति की व्यवस्थायें ,वर्षा जल के संग्रहण तथा   शहरों से निकासी पर बहुत काम करने की जरूरत है .
थियेटर वह समुचित मीडिया है जो दर्शको को भावनात्मक और मानसिक रूप से एक समग्र अनुभव देते हुये,मानव जाति और उसके पूर्वजो की अनुष्ठानिक पृष्ठ भूमि और सांकेतिकता के साथ उनकी विविधता किन्तु पानी के साथ एक सार्वभौमिक सम्बंध का सही परिचय करवा सकता है . इस तरह हमारी विविध सांस्कृतिक समानताओ को ध्यान में रखते हुये दुनिया को देखने और बेहतर समझने का बड़ा दायरा इस कला प्रदर्शन का सांस्कृतिक तत्व है . अगले विश्वयुद्ध के लिये आतुर दुनियां को पानी का सार्वभौमिक महत्व तथा हम सबके पूर्वजो द्वारा पानी के महत्व की समझ की शिक्षा दोहराने से पानी वैश्विक एका स्थापित करने का माध्यम बन सकता है । औद्योगिक प्रगति ने नदियों के प्रदूषण का विष दिया है , यह नाटक इन सभी बिन्दुओ को रेखांकित करता है ।  
पहले अंक में धरती पर जीवन के प्रादुर्भाव के लिये पानी की आवश्यकता बताई गई है , हम सब जानते हैं कि वैज्ञानिक अनुसंधानो के अनुसार पानी में ही सर्वप्रथम जीवन प्रारंभ हुआ था । यही कारण है कि ब्रह्माण्ड में अन्य ग्रहों पर जहां भी वैज्ञानिक जीवन की संभावना तलाश रहे हैं सर्वप्रथम वे वहां पानी की उपस्थिति की जांच करते हैं । जल में जीवन सृजित करने की क्षमता होती है वहीं यह विनाश भी कर सकता है .पानी समस्त मानवता को जोडता है ,यह हम सबके लिये बराबरी से महत्व का तत्व है . विवेक जी के नाट्य लेखन की विशेषता है कि नाटक के न केवल संवाद लिखे गये हैं वरन् उन्होने दृश्य , मंच की साज सज्जा , म्युजिक , सूत्रधार के नेपथ्य व्यक्तव्य सब कुछ रेडी रूप से किताब में प्रस्तुत किये हैं । नाटक ज्ञानवर्धक और मनोरंजक है । काले वस्त्रों में मेघ , रेन ड्राप , नदी , समुद्र , धरती , सूर्य किरण , आदि को चरित्रो के रूप में रचकर उनसे अभिनय और नृत्य के मनोरम दृश्यों का निर्माण किया गया है जो दर्शकों को बांध रखने में सक्षम हैं । पौराणिक आख्यानों पर आधारित नाटक के अंक स्वतंत्र रूप से पूर्ण एकांकी हैं जो अलग से खुद एक छोटे नाटक की तरह प्रस्तुत किये जा सकते हैं ।  समुद्र मंथन के कथानक पर दूसरा अंक निर्मित है । तीसरा अंक बाल कृष्ण के द्वारा कालिका नाग के मद मर्दन पर आधारित है , जो नदियों के प्रदूषण के विरुद्ध संदेश देता है । नदियों के सामाजिक महत्व को रेखांकित करता "नर्मदा परिक्रमा" चौथा अंक है ।
भागवत में वरुण देवता के विश्राम में विघ्न के वृतांत की कहानी को नात्य परिवर्तन कर पांचवा अंक लिखा गया है , जो जल स्त्रोतो से छेड़छाड़ के विरुद्ध शिक्षा देता है । यह अंक कथक नृत्य नाटिका के रूप में प्रस्तुत किया जायेगा जिसमें संवाद न होकर नृत्य मुद्राओ से ही कथ्य कहा जायेगा । छठवें अंक में जल के दुरुपयोग के प्रति चेतना जागृत करने के लिये द्रौपदी द्वारा दुर्योधन के उपहास का प्रसंग उठाया गया है । सातवें अंक में कुंभ के मेलों के जरिये पानि के सामाजिक महत्व को रेखांकित किया गया है । आठवां अंक पुनः मेघदूत पर आधारित कथक नृत्य नाटिका है । जिसमें जल का मानवीकरण किया गया है । नौवें अंक का कथानक माण्डू के जल महल का है , जिसके माध्यम से वाटर हार्वेस्टिंग , के वैज्ञानिक संदेश को समझाया गया है । दसवें अंक का शीर्षक है नदी की मनोव्यथा । नदियों के प्रदूषण की वर्तमान स्थिति पर जन आव्हान के रूप में गीत और नृत्य नाटिका के मंचन द्वारा संदेश देने का यत्न इस अंक की कथा वस्तु है । ग्यारहवें अंक में बच्चों के खेल गोल गोल रानी इत्ता इत्ता पानी के जरिये हिन्दू और मुस्लिम धर्मों में पानी के महत्व पर संवाद हैं । बारहवें अंक में जलतरंग वाद्य यंत्र की प्रस्तुति के साथ काव्य वाचन है
हे जल देवता !
जो कुछ भी मुझमें अपवित्र हो
अशुभ हो
उसे बहा दे । ....
हे जल देवता
मेरा आचरण
अब तेरे जेसा हो
तेरा रसायन मुझमें समा जाये
तू आ
मुझे ओजस्वी बना । ....
जिस तरह जल सबका कल्याण करता है , जिस बर्तन में डालो वैसा ही रूप ले लेता है , ...... ॠग्वेद की सूक्ति के हिन्दी काव्य रूपांतर की ये अंतिम पंक्तियां नाटक का संदेश हैं ।

सबसे बड़ा , सबसे ऊंचा बांध की जो होड़ हमें दुबा रही है , भूकंप ला रही है जंगलों का विनाश और गांवो का विस्थापन हुआ है । इन विभिन्न  समस्याओ पर यह नाटक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रकाश डालता है तथा  बौद्धिकता को मथकर सवाल खड़े करने में सफल है । अब समय आ गया है कि जलाशयो ,वाटरबाडीज , शहरो के पास नदियो को ऊंचा नही गहरा किया जावे इन बिंदुओ पर काम हो . पानी के संरक्षण के हर सम्भव प्रयास करे जायें । पानी की इसी सार्व भौमिक भूमिका को ध्यान में रखते हुये इस आशा के साथ कि इसका नाट्य प्रदर्शन जल्दी ही आपके सम्मुख होगा । गाइड फिल्म का अल्ला मेघ दे पानी दे गुड़धानी दे ... जैसे अकाल और सूखे के कारुणिक दृश्य पुनः सच न हों यह चेतना जन मानस में जगाने के लिये जलनाद के लेखक विवेक रंजन श्रीवास्तव को बहुत बधाई । किताब किंडल पर भी सुलभ है ।   
चर्चा .... विभूति खरे , बानेर ,पुणे



मानसी ,, स्त्री की स्वयं की तलाश

 पुस्तक चर्चा

मानसी

उपन्यासकार .चन्द्रभान राही, भोपाल

प्रकाशक ...सर्वत्र , भोपाल

पृष्ठ ..२७८, मूल्य ३९९ रु


चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए २३३ . ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी , भोपाल , ४६२०२३


 पाश्चात्य समाज में स्त्रियों की भागीदारी को उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में रेखांकित किया जाने लगा था । इसी से विदेशी साहित्य में स्त्री विमर्श की शुरुआत  हुई । इसे फ़ेमिनिज़्म कहा गया । स्त्री अस्मिता , लिंग भेद , नारी-जागरण ,स्त्री जीवन की सामाजिक , मानसिक , शारीरिक समस्याओं का चित्रण साहित्यिक  रचनाओ में प्रमुखता से किया जाने लगा । यह विमर्श एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ है । आज भी स्त्री विमर्श के विषय, साहित्य के माध्यम से स्त्री पुरुष समानता , स्त्री दासता से मुक्ति के प्रश्नों के उत्तर खोजने की वैचारिक कविताओ , कहानियों , उपन्यास और प्रेरक लेखों के जरिये उठाए जाते हैं । स्त्री विमर्श पर शोध कार्य हो रहे हैं ।

मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष के विकास में स्त्रियों की अहम भूमिका को स्वीकार किया था । उन्होंने स्त्रियों को शोषित वर्ग का प्रतिनिधि माना था ।  महिला विमर्श को पश्चिम और भारतीय परिवेश मे अलग नजरियों से देखा गया । पश्चिम ने स्त्री पुरुष को समानता का अधिकार स्वीकार किया । दूसरी ओर भारतीय महाद्वीप में स्त्री पुरुष को सांस्कृतिक रूप से परस्पर अनुपूरक माना जाता रहा है । नार्याः यत्र पूज्यंते .. के वेद वाक्य का सहारा लेकर स्त्री को पुरुष से अधिक महत्व का सैद्धांतिक घोष किया जाता रहा , किन्तु व्यवहारिक पक्ष में आज भी विभिन्न सामाजिक कारणो से समाज के बड़े हिस्से में स्त्री भोग्या स्वरूप में ही दिखती है । कानून , नारी आंदोलन , स्त्री विमर्श यथार्थ के सम्मुख बौने रह गये हैं , और स्त्री विमर्श के साहित्य की प्रासंगिकता सुस्थापित है ।

विज्ञापन तथा फिल्मों ने स्त्री देह का ऐसा व्यापार स्थापित किया है कि पुरुष के कंधे से कंधा मिलाने की होड़ में स्त्रियां स्वेच्छा से अनावृत हो रही हैं । इंटरनेट ने स्त्रियों के संग खुला वैश्विक खिलवाड़ किया है । स्त्री मन को पढ़ने की , उसे मानसिक बराबरी देने के संदर्भ में , स्त्री को भी मनुष्य समझने में जो भी किंचित आशा दिखती है वह रचनाकारों से ही है । मुझे प्रसन्नता है कि चन्द्रभान राही जैसे लेखकों में इतना नैतिक साहस है कि वे इसी समाज में रहते हुये , समाज का नंगा सच भीतर से देख समझ कर मानसी जैसा बोल्ड उपन्यास लिखते हैं । मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी सम्मान सहित , तुलसी सम्मान ,शब्द शिखर सम्मान,  पवैया सम्मान , देवकीनंदन महेश्वरी स्मृति सम्मान ,श्रम श्री सम्मान ,  स्वर्गीय नर्मदा प्रसाद खरे सम्मान , पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन सम्मान ,  आदि आदि अनेक सम्मानो से समादृत बहुविध लेखक श्री चंद्रभान राही का साहित्यिक कृतित्व बहुत लंबा है । मैंने उनसे अनौपचारिक बातचीत में उनकी रचना प्रक्रिया को किंचित समझा है । वे टेबल कुर्सी लगाकर बंद कमरे में लिखने वाले फेंटेसी लेखक नहीं हैं । एक प्रोजेक्ट बनाकर वे सोद्देश्य रचना कर्म  करते हैं । अध्ययन , अनुभव और सामाजिक वास्तविकताओ को अपनी जीवंत अभिव्यक्ति शैली में वे कुशलता से पाठकों के लिये पृष्ठ दर पृष्ठ हर सुबह संजोते हैं , पुनर्पाठ कर स्वयं संपादित करते हैं और तब कहीं उनका उपन्यास साहित्य जगत में दस्तक देता है । अपनी नौकरी के साथ साथ वे अपना रचना कर्म निरपेक्ष भाव से करते दिखते हैं । स्वाभाविक रूप से इतनी गंभीरता से किये गये लेखन को उनके पाठक हाथों हाथ लेते हैं । वे उन लेखकों में से हैं जो अपठनीयता के इस युग में भी किताबों से रायल्टी अर्जित कर रहे हैं ।

“मर्द, एक स्त्री से दर्द लेकर आता है, दूसरी स्त्री के पास दर्द कम करने के लिए।”  स्त्री, स्त्री है तो एक घरवाली और एक बाहरवाली, दो भागों में कैसे बँट गई ? दोनों स्त्रियों के द्वारा मर्द को संतुष्ट किया जाता है लेकिन बदनाम कुछ ही स्त्रियाँ होती हैं। अनूठे शाब्दिक प्रयोग के साथ लिखे गये बोल्ड उपन्यास ‘मानसी' के लेखक चन्द्रभान 'राही' ने स्त्री मन की पीड़ा को लिखा है। स्त्री प्रेम के लिए मर्द को स्वीकारती है और मर्द, स्त्री के लिए प्रेम को स्वीकारता है। स्त्री प्रेम के वशीभूत होकर अपने सपनों को पूरा करने के लिए पहले दूसरे के सपनों को पूरा करती है। पुरुष प्रधान समाज के बीच स्त्री स्वयं उलझती चली जाती है। इच्छित पुरुष को पाने का असफल प्रयास करती स्त्री की आत्मकथा के माध्यम से प्रेम का मनोविज्ञान ही मानसी का कथानक है ।

स्त्री विमर्श आंदोलन ने स्त्री को कुछ स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनाया है। फिल्म, मॉडलिंग, मीडिया के साथ बिजनेस और नौकरी में महिलाओ की भागीदारी बढ़ रही है। किंतु, इसका दूसरा पक्ष बड़ा त्रासद है। उपभोक्तावाद ने कुछ युवतियों को कालगर्ल , स्कार्ट रैकेट का हिस्सा बना दिया है । ‘मी-टू’ अभियान की सच्चाईयां समाज को नंगा करती हैं । आये दिन रेप की वीभत्स्व घटनायें क्या कह रही हैं ? सफल-परिश्रमी युवतियों के चरित्र को संदिग्ध मान लिया जाता है। महिला को संरक्षण देने वाले और समाज की दृष्टि में स्त्री इंसान नहीं ‘रखैल’ घोषित कर दी जाती है। सफल स्त्रियों की आत्मकथाएं कटु जीवनानुभवों का सच हैं। पुरुषों का अहं साथी की योग्यता और सफलता को स्वीकार नहीं कर पाता है। पितृसत्ता स्त्री की आजादी और मुक्ति में बाधक है। आरक्षण महिलाओ की योग्यता और क्षमता को मुखरता देने के लिये वांछित है ।

इस उपन्यास के चरित्रों मुंडी , मुंडा , मुंडी का रूपांतरित स्वरूप मानसी , चकाचौंध की दुनियां वाली नैना ,गिरधारीलाल , दिवाकर , रवि को लेखक ने बहुत अच्छी तरह कथानक में पिरोया है । उन्होंने संभवतः आंचलिकता को रेखांकित करने के लिये उपन्यास की नायिका मुंडी उर्फ मानसी को आदिवासी अंचल से चुना है । यद्यपि चमत्कारिक रूप से मुंडी के व्यक्तित्व का यू टर्न  पाठक को थोड़ा अस्वाभाविक लग सकता है ।  किन्तु ज्यों ज्यों कहानी बढ़ती है नायिका की मनोदशा में संवेदनशील पाठक खो जाता है । पाठक को अपने परिवेश में ऐसे ही दृश्य समझ आते हैं , भले ही उसने वह सब अखबारी खबरों से देखे हों , स्वअनुभूत हों या दुनियांदारी ने सिखाये हों , पर स्त्री की विवशता पाठक के हृदय में करुणा उत्पन्न करती है । यह लेखकीय सफलता है ।

मुझे स्मरण है पहले जब मैं किताबें पढ़ा करता था तो शाश्वत मूल्य के पैराग्राफ लिख लिया करता था , अब तो माध्यम बदल रहे हैं , कई किताबें सुना करता हूं तो कई किंडल पर पढ़ने मिलती हैं । उपन्यास मानसी के वे पैराग्राफ जो रेखांकित किये जाने चाहिये , अपनी प्रारंभिक लेखकीय अभिव्यक्ति " कुछ तो देखा है " में चंद्रभान जी ने स्वयं संजो कर प्रस्तुत किये हैं । केवल इतना ही पढ़ने से सजग पाठक अपना कौतुहल रोक नहीं पायेंगे और विचारोत्तेजना उन्हें यह उपन्यास पूरा पढ़ने को प्रेरित करेगी , अतः कुछ अंश उधृत हैं ...

'स्त्री', जब बड़ी हो जाती है तो लोगों की निगाहों में आती है। लोग स्त्री को सराहते नहीं है। सहलाने लगते हैं। यहीं से मर्द की विकृत मानसिकता और औरत की समझदारी का जन्म होता है ।

'स्त्री' जब प्रेम के वशीभूत किसी मर्द के साथ होती है तो वह उस समय उसकी पसर्नल होती है। उसके पश्चात वही मर्द उसको 'वेश्या' का नाम धर देता है।

'स्त्री' को दो घण्टे के लिए होटल का कमरा कोई भी मर्द उपलब्ध करा देता है लेकिन जीवन भर के लिए छत उपलब्ध करना मर्द के लिए आसान नहीं।

'स्त्री' जब अपने देह के बदले रोटी को पाने की मशक्कत करे तब मर्द का वज़न उतना नहीं लगता जितना रोटी का लगता है। पेट की भूख मिटाने के खातिर स्त्री कब देह की भूख मिटाने लगती है उसे भी पता नहीं चलता ।

"स्त्री प्रतिदिन अपने ऊपर से न जाने कितने वज़नदार मर्दों को उतर जाने देती है। वो उतने वज़नदार नहीं लगते जितनी की रोटी लगती है।"

"मैं जब किसी कमरे में वस्त्र उतारती हूँ तो मेरे साथ एक मर्द भी होता है। सच कहती हूँ तब मैं उसकी पसर्नल होती हूँ। "

"मर्द घर की स्त्री से कहीं ज्यादा आनन्द, संतुष्टि और प्रेम बाहर की स्त्री से पाता है लेकिन बाहर की स्त्री को वो मान-सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं देता जो घर की स्त्री को देता है।"

"उन स्त्रियों का जीवन मर्द की प्रतीक्षा में कट जाता है, लेकिन उनकी ये प्रतीक्षा भी अलग अंदाज में होती है। घर की स्त्री भी मर्द की प्रतीक्षा करती है, उसका अपना अलग तरीका होता है।"

" दो घण्टे के साथ में उन स्त्री को सब कुछ मर्द से मिल जाता है। जिन्हें वो खुशी-खुशी स्वीकार कर लेती है। वहीं जीवन भर साथ रहने के पश्चात भी घर की स्त्री, मर्द से कहने से नहीं चूकती 'तुमने किया ही क्या है, मेरे तो नसीब फूट गए, तम्हारे साथ रहते-रहते। ज़िन्दगी बरबाद हो गई।'

'स्त्री', ग्लेमर की दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के खातिर खड़ी होती है। समाज कब उसकी अलग पहचान बना देता है स्वयं स्त्री को भी पता नहीं चल पाता।"

'स्त्री' कल भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही थी, आज भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही है। स्त्री समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए उन रास्तों पर कब चली जाती है जो जीवन को अंधकार की और मोड़ देता है।'स्त्री' कभी स्वेच्छा से तो कभी विवश होकर, मजबूरी के कारण मर्द का साथ चाहती है। मर्द का साथ होना ही स्त्री को आत्मबल, सम्बल देता है। स्त्री जब मर्द के पीछे होती है तो स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है। स्त्री जब मर्द के आगे होती है तो वह किसी कवच से कम नहीं होती। मर्द की संकीर्ण मानसिकता के कारण मर्द आज भी स्त्री को नग्न अवस्था में देखना पसंद करता है। स्त्री देह का आकर्षण, मर्द के लिए स्वर्णीय कल्पना लोक में जाने से कम प्रसन्नता का अवसर नहीं होता।"

मानसी' एक ऐसी स्त्री की आत्मकथा है जो आई तो थी दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के लिए लेकिन दुनियाँ ने उसकी अलग ही पहचान बना दी और नाम धर दिया 'वेश्या' है।'स्त्री' वेश्या की पहचान लेकर समाज में स्वच्छन्द नहीं घूम सकती। आज भी स्त्री को देवी स्वरूप की दृष्टी से देखने का चलन है। देखना और दिखाना दोनों में अंतर है। वही अंतर घर की स्त्री और बाहर की स्त्री में भी है।

घर की स्त्री और बाहर की स्त्री के साथ काम एक सा ही होता है। पर अलग-अलग नाम , अलग-अलग पहचान क्यों? "स्त्री, मर्द की भावना को समझ नहीं पाती या मर्द स्त्री को समझ नहीं पाता। स्त्री और मर्द के बीच प्रेम की खाईं को मिटा पाना किसी मर्द के बस की बात नहीं दिखती। यदि कहीं, कोई मर्द है, जो स्त्री की संतुष्टि का दावा करता है, तो वह मर्द वास्तव में समाज के लिए प्रणाम के योग्य है।"

लेखक बेबाकी से उन स्त्रियों का हृदय से आभार प्रकट करते हैं जिनके कारण उन्होंने स्त्री मन की भावनाओं तक पहुँच कर उन्हें समझने का प्रयास किया। और यह उपन्यास रचा । वे यह पुस्तक भी मैं उन स्त्रियों को समर्पित करते हैं जिन्होंने ऐसा जीवन जिया है। वे लिखते हैं उन स्त्रियों के साथ होते है, तो दूसरी दुनियाँ की अनुभूति होती है। उनकी दुनियाँ के आगे वास्तविक दुनिया मिथ्या लगती है। सच तो यही है कि उनको पता है कि हम ज़िन्दा क्यों हैं। मरने के लिए ज़िन्दा रहना कोई बड़ी बात नहीं है। बात तो तब है कि कुछ करने के लिए ज़िन्दा रहा जाए।

मुझे विश्वास है कि इस उपन्यास से चंद्रभान राही जी गंभीर स्त्रीविमर्श लेखक के रूप में साहित्य जगत में स्वीकार किये जायेंगे । उपन्यास अमेजन पर सुलभ है , पढ़कर मेरे साथ सहमति तय करिये ।


चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव