Saturday, 20 December 2025

रामचरितमानस में सीता का चरित्र आज के संदर्भ में

 रामचरितमानस में सीता का चरित्र आज के संदर्भ में 

विवेक रंजन श्रीवास्तव 

A 233,ओल्ड मिनाल रेजिडेंसी, भोपाल 462023



राम चरित मानस न केवल सांस्कृतिक धरोहर है, बल्कि एक जीवंत विमर्श का केंद्र भी, जहाँ आदर्श, आलोचना और पुनर्व्याख्या के तार एक-दूसरे से गुथे हुए हैं।

सीता मिथक से मनुष्यता की नारी यात्रा की प्रतीक जीवंत पात्र हैं।

 रामचरितमानस में सीता केवल राम की अनुगामिनी या त्याग की मूर्ति नहीं, बल्कि भारतीय नारी चेतना का वह प्रतीक हैं , जो मध्यकालीन सामाजिक संरचना से निकलकर आधुनिक स्त्री विमर्श तक फैली हुई हैं। उनके चरित्र में पातिव्रत्य, धैर्य, साहस और नैतिक दृढ़ता का संयोग इतना सूक्ष्म है कि वह एक ओर पारंपरिक मूल्यों को मजबूत करता है, तो दूसरी ओर समकालीन स्त्री अधिकारों के लोकतांत्रिक प्रश्नों को जन्म भी देता है और उनके उत्तर भी बताता है। आज के परिदृश्य में, जहाँ नारी स्वायत्तता, लिंग समानता और व्यक्तिगत गरिमा प्रमुख विमर्श केंद्र हैं, सीता का चरित्र हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या सदियों पुराना आदर्श आधुनिक स्त्री के लिए प्रासंगिक है, या उसे नये परिदृश्य में पुनर्पाठ की आवश्यकता है।

रामचरितमानस में सीता का चित्रण सहज और जीवनानुभूत चरित्र है । पुष्पवाटिका से स्वयंवर, वनवास, लंका में बंदिनी से अयोध्या की रानी तक, हर कथा पक्ष में वे तुलसी की रचना में शील, विनम्रता, सेवा भाव और पति निष्ठा की पराकाष्ठा हैं। तुलसी ने उन्हें अमृतमयी बनाया, जहाँ उनकी व्याकुलता राम के धनुष भंग पर, चित्रकूट में माता पिता से मिलन पर, या लंका में रावण के भांति भांति के प्रलोभन पर भी सदैव मर्यादित रहती है। यह आदर्श मध्ययुगीन समाज के अनुरूप था, जहाँ स्त्री का सर्वोच्च धर्म पतिव्रत्य माना गया। सीता सास,ससुर, देवरों की प्रिय , कठिनाइयों में धैर्यवान गृहिणी हैं, जो कुल की मर्यादा को हमेशा सर्वोपरि रखती हैं। तुलसी का यह विन्यास सामान्य नारी को तत्कालीन समाज में ऊँचा उठाने का प्रयास था, पर उनका पुरुषों से समान अपेक्षाएँ न रखना आधुनिक आलोचना का आधार बनता रहा है। समकालीन आलोचक तुलसीदास की नारी दृष्टि को दोहरी परतों वाला मानते हैं । उज्ज्वल चरित्र (सीता, अनुसूया, तारा) के साथ ही सामान्यीकृत नकारात्मक वक्तव्य, जो पितृ सत्तात्मक पूर्वाग्रह दर्शाते हैं। सीता की अग्निपरीक्षा और वन निर्वासन लोकापवाद के नाम पर होने वाले स्त्री दमन का प्रतीक दिखता है, जहाँ निर्दोष गर्भवती सीता को राज्य के व्यापक हित में राम को त्यागना पड़ता है। यह आदर्श व्यावहारिक रूप से अप्राप्य है, जिससे वास्तविक स्त्रियाँ अपराधबोध की शिकार होती हैं । पुरुषों पर कोई समान कर्तव्य भार प्रतिपादित नहीं है ,जो लैंगिक असंतुलन पैदा करता है। वैश्विक फेमिनिस्ट व्याख्याओं में सीता को शूर्पणखा, अहिल्या जैसी स्त्रियों के साथ जोड़कर साझा पीड़ा का प्रतीक बताया गया है।

किंतु सीता केवल सहनशील नहीं हैं । लंका में रावण के वैभव प्रलोभन का कठोर अस्वीकार, अग्निपरीक्षा में आत्मविश्वास, वाल्मीकि आश्रम में पुत्र पालन और पृथ्वी प्रवेश द्वारा अंतिम विद्रोह उन्हें स्वायत्त नैतिक शक्ति बनाते हैं। यहाँ उनकी लज्जाशीलता तेजस्विता से युक्त है, जो भारतीय संस्कृति में नारी गरिमा को नया आयाम देती है। सीता को अनुगामिनी होते हुए भी राम से स्वतंत्र निर्णय लेने वाली दिखाया गया है। वनवास की मांग, रावण का विरोध ,जो मौन प्रतिरोध का रूप लेता है , महत्वपूर्ण है। शास्त्रीय संदर्भों में वे राम की अर्धांग हैं, पर आधुनिक पुनर्पाठ उन्हें शक्ति स्वरूप बनाते हैं।

आज के बाजार प्रधान, वैश्विक समाज में सीता का संयम और निष्ठा उपभोक्तावादी संबंधों के विरुद्ध नैतिक आधार देती हैं, पर अंध अनुकरण खतरनाक है। स्त्री शिक्षा, करियर और स्वतंत्रता के दौर में वे साहस, आत्मसम्मान सिखाती हैं, किंतु त्याग के मॉडल को प्रश्नांकित करने की प्रेरणा भी देती हैं। रामचरितमानस की सीता आधुनिक नारी के लिए प्रेरणादायी, और वंदनीय है, पर समानता के संदर्भ में पुनर्विचार आवश्यक है। साहित्यिक रचनाओं (नाटक, उपन्यास) में उनका पुनरुत्थान स्त्री शक्ति को मजबूत कर रहा है। पारंपरिक व्याख्या में पातिव्रत्य सर्वोच्च धर्म और त्याग की मूर्ति है, जबकि समकालीन पुनर्पाठ में यह निष्ठा के साथ स्वायत्तता सहित है। अग्निपरीक्षा के चरित्र प्रमाण से पितृसत्ता का दमन बन जाती है, और वन निर्वासन मर्यादा रक्षा से अन्याय प्रतिरोध तक पहुँचता है।


रामचरितमानस की सीता परंपरा का पुल हैं। आस्था को मजबूत करती हुईं आलोचना को आमंत्रित करती हुईं। वर्तमान में वे हमें सिखाती हैं कि ग्रंथों को कठोर सत्य न मानकर संवाद के रूप में पढ़ें, मूल्य ग्रहण करें और संरचनात्मक कमियों पर सवाल उठाएँ। यही उनकी शाश्वत प्रासंगिकता है, जो भारतीय साहित्य को जीवंत रखती है।


विवेक रंजन श्रीवास्तव 

भोपाल

No comments: