Friday 13 September, 2024

व्यंग्य संग्रह ... नौकरी धूप सेंकने की

 

पुस्तक चर्चा
व्यंग्य संग्रह ... नौकरी धूप सेंकने की


लेखक ..सुदर्शन सोनी , भोपाल
प्रकाशक ...आईसेक्ट पब्लीकेशन , भोपाल
पृष्ठ ..२२४ , मूल्य २५० रु

चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए २३३ . ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी , भोपाल , ४६२०२३

  धूप से शरीर में विटामिन-D बनता है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की मानें, तो विटामिन डी प्राप्त करने के लिए सुबह 11 से 2 बजे के बीच धूप सबसे अधिक लाभकारी होती है। यह दिमाग को हेल्दी बनाती है और इम्यून सिस्टम को मजबूत करती है। आयुर्वेद के अनुसार, शरीर में पाचन का कार्य जठराग्नि द्वारा किया जाता है, जिसका मुख्य स्रोत सूर्य है। दोपहर में सूर्य अपने चरम पर होता है और उस समय तुलनात्मक रूप से जठराग्नि भी सक्रिय होती है। इस समय का भोजन अच्छी तरह से पचता है। सरकारी कर्मचारी जीवन में जो कुछ करते हैं , वह सरकार के लिये ही करते हैं । इस तरह से यदि तन मन स्वस्थ रखने के लिये वे नौकरी के समय में धूप सेंकतें हैं तो वह भी सरकारी काम ही हुआ , और इसमें किसी को कोई एतराज  नहीं होना चाहिये । सुदर्शन सोनी सरकारी अमले के आला अधिकारी रहे हैं , और उन्होंने धूप सेंकने की नौकरी को बहुत पास से , सरकारी तंत्र के भीतर से समझा है । व्यंग्य उनके खून में प्रवाहमान है , वे पांच व्यंग्य संग्रह साहित्य जगत को दे चुके हैं , व्यंग्य केंद्रित संस्था व्यंग्य भोजपाल चलाते हैं । वह सब जो उन्होने जीवन भर अनुभव किया समय समय पर व्यंग्य लेखों के रूप में स्वभावतः निसृत होता रहा । लेखकीय में उन्होंने स्वयं लिखा है " इस संग्रह की मेरी ५१ प्रतिनिधि रचनायें हैं जो मुझे काफी प्रिय हैं " । किसी भी रचना का सर्वोत्तम समीक्षक लेखक स्वयं ही होता है , इसलिये सुदर्शन सोनी की इस लेखकीय अभिव्यक्ति को "नौकरी धूप सेंकने की" व्यंग्य संग्रह का यू एस पी कहा जाना चाहिये । सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने किताब की भूमिका में लिखा है " सरकारी कर्मचारी धूप सेंक रहे हैं , दफ्तर ठप हैं , पर सरकार चल रही है , पब्लिक परेशान है । सरकार चलाने वाले चालू हैं वे काम के वक्त धूप सेंकते हैं । "
मैंने "नौकरी धूप सेंकने की" को पहले ई बुक के स्वरूप में पढ़ा , फिर लगा कि इसे तो फुरसत से आड़े टेढ़े लेटकर पढ़ने में मजा आयेगा तो किताब के रूप में लाकर पढ़ा । पढ़ता गया , रुचि बढ़ती गई और देर रात तक सारे व्यंग्य पढ़ ही डाले । लुप्त राष्ट्रीय आयटम बनाम नये राष्ट्रीय प्रतीक , व्यवस्था का मैक्रोस्कोप , भ्रष्टाचार का नख-शिख वर्णन , साधने की कला , गरीबी तेरा उपकार हम नहीं भूल पाएंगे , मेवा निवृत्ति , बाढ़ के फायदे , मीटिंग अधिकारी , नौकरी धूप सेकने की , सरकार के मार्ग , डिजिटाईजेशन और बड़े बाबू ,   एक अदद नाले के अधिकार क्षेत्र का विमर्श आदि अनुभूत सारकारी तंत्र की मारक रचनायें हैं । टीकाकरण से पहले कोचिंगकरण  से लेखक की व्यंग्य कल्पना की बानगी उधृत है " कुछ ऐसे भी लोग होंगे जो अजन्मे बच्चे की कोचिंग की व्यवस्था कर लेंगे " । लिखते रहने के लिये पढ़ते रहना जरूरी होता है , सुदर्शन जी पढ़ाकू हैं , और मौके पर अपने पढ़े का प्रयोग व्यंग्य की धार बनाने में करते हैं , आओ नरेगा-नरेगा खेलें  में वे लिखते हैं " ये ऐसा ही प्रश्न है जेसे फ्रांस की राजकुमारी ने फ्रासीसी क्रांति के समय कहा कि रोटी नहीं है तो ये केक क्यों नहीं खाते ?  "सर्वोच्च प्राथमिकता" सरकारी फाइलों की अनिवार्य तैग लाइन होती है , उस पर वे तीक्षण प्रहार करते हुये लिखते हैं कि सर्वोच्च प्राथमिकता रहना तो चाहती है सुशासन , रोजगार , समृद्धि , विकास के साथ पर व्यवस्था पूछे तो । व्यंग्य लेखों की भाषा को अलंकारिक या क्लिष्ट बनाकर सुदर्शन आम पाठक से दूर नहीं जाना चाहते , यही उनका अभिव्यक्ति कौशल है ।  
अगले जनम हमें मिडिल क्लास न कीजो , अनेक पतियों को एक नेक सलाह , हर नुक्कड़ पर एक पान व एक दांतों की दुकान ,महँगाई का शुक्ल पक्ष, अखबार का भविष्यफल,  आक्रोश जोन , पतियों का एक्सचेंज ऑफर , पत्नी के सात मूलभूत अधिकार , शर्म का शर्मसार होना वगैरह वे व्यंग्य हैं जो आफिस आते जाते उनकी पैनी दृष्टि से गुजरी सामाजिक विसंगतियों को लक्ष्य कर रचे गये हैं । वे पहले अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो व्यंग्य संग्रह लिख चुके हैं । डोडो का पॉटी संस्कार , जेनरेशन गैप इन कुत्तापालन इससंग्रह में उनकी पसंद के व्यंग्य हैं । अपनी साहित्यिक जमात पर भी उनके कटाक्ष कई लेखों में मिलते हैं उदाहरण स्वरूप एक पुरस्कार समारोह की झलकियां , ये भी गौरवान्वित हुए  , साहित्य की नगदी फसलें , श्रोता प्रोत्साहन योजना , वर्गीकरण साहित्यकारों का : एक तुच्छ प्रयास , सम्मानों की धुंध , आदि व्यंग्य अपने शीर्षक से ही अपनी कथा वस्तु का किंचित प्रागट्य कर रहे हैं ।
एक वोटर के हसीन सपने में वे फ्री बीज पर गहरा कटाक्ष करते हुये लिखते हैं " अब हमें कोई कार्य करने की जरूरत नहीं है वोट देना ही सबसे बड़ा कर्म है हमारे पास "  । संग्रह की प्रत्येक रचना लक्ष्यभेदी है । किताब पैसा वसूल है । पढ़ें और आनंद लें । किताब का अंतिम व्यंग्य है मीटिंग अधिकारी और अंतिम वाक्य है कि जब सत्कार अधिकारी हो सकता है तो मीटिंग अधिकारी क्यों नहीं हो सकता ? ऐसा हो तो बाकी लोग मीटिंग की चिंता से मुक्त होकर काम कर सकेंगे । काश इसे व्यंग्य नहीं अमिधा में ही समझा जाये , औेर वास्तव में काम हों केवल मीटिंग नहीं ।
विवेक रंजन श्रीवास्तव



Wednesday 11 September, 2024

"मैं खोजा मैं पाइयां" का हिन्दी जगत में स्वागत

 पुस्तक चर्चा

मैं खोजा मैं पाइयां


निबंध संग्रह ... सुरेश पटवा
प्रकाशक ... आईसेक्ट पब्लिकेशन  , भोपाल
पृष्ठ ..१३६, मूल्य २६० रु

चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए २३३ . ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी , भोपाल , ४६२०२३

"आनंद राहत देता है और मजा तनाव" ,
" जिनके पास आँख और कान हैं वे भी अंधे और बहरे हैं " ,
"इस जगत में हमारे लिये वही सत्य सार्थक है , जिसे स्वीकार कर भोग लेने की हममें योग्यता हो "
..... इसी किताब में सुरेश पटवा ।
ऊपर उधृत वाक्यांशो जैसे दार्शनिक , शाश्वत तथ्यों से इंटरनेट पर रजनीश साहित्य , बाबा जी के यूट्यूब चैनल , विकिपीडीया आदि में प्रचुर सामग्री सुलभ है , पर आजकल अपने मस्तिष्क में रखने की प्रवृत्ति हमसे छूटती जा रही है ।  पटवा जी एक अध्येता हैं , उनके संदर्भ विशद हैं और वे विषयानुकूल सामग्री ढ़ूंढ़ कर अपने पाठकों को रोचक पठनीय मटेरियल देने की कला में माहिर हैं । पटवा जी न केवल बहुविध रचना कर्मी हैं ,वरन वे विविध विषयों पर पुस्तक रूप में सतत प्रकाशित लेखक भी हैं । साहित्यिक आयोजनो में उनकी निरंतर भागीदारी रहती ही है । कबीर के दोहे " जिन खोजा तिन पाइयां शीर्षक से किंडल पर ओशो की एक पूरी किताब ही  सुलभ है । इसी का अवलंब लेकर इस किताब में संग्रहित नौ लेखों का संयुक्त शीर्षक "मैं खोजा मैं पाइयां" रखा गया है । शीर्षक ही किताब का गेटवे होता है , जो पाठक का प्रथम आकर्षण बनता है ।
मैं खोजा मैं पाइयां में "मैं की यात्रा का पथिक" , हिन्दी भाषा की उत्पत्ति और विकास , आजाद भारत में हिन्दी , "राष्ट्रभाषा , राजभाषा , संपर्क भाषा " , देवनागरी उत्पत्ति और विकास , खड़ी बोली की यात्रा , हिन्दी उर्दू का बहनौता , भारतीय ज्ञान परम्परा में पावस ॠतु वर्णन , तथा " हिन्दी साहित्य में गुलमोहर " शीर्षकों से कुल नौ लेख संग्रहित हैं ।
किताब आईसेक्ट पब्लीकेशन भोपाल से त्रुटिरहित छपी है । आईसेक्ट रवीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय का ही उपक्रम है । विश्वरंग के साहित्यिक सांस्कृतिक आयोजनो के चलते हिन्दी जगत में दुनियां भर में पहचान बना चुके इस संस्थान से "मैं खोजा मैं पाइयां" के प्रकाशन से किताब की पहुंच व्यापक हो गई है । देवनागरी की उत्पत्ति , हिन्दी भाषा की उत्पत्ति आदि लेखों में जिन विद्वानो के लेखों से सामग्री उधृत की गई है , वे संदर्भ भी दिये जाते तो प्रासंगिक उपयोगिता और भी बढ़ जाती । हिन्दी मास के अवसर पर प्रकाशित होकर आई इस पुस्तक से हिन्दी और देवनागरी पर प्रामाणिक जानकारियां मिलती हैं , जिसका उल्लेख साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश के निदेशक डा विकास दवे जी ने पुस्तक की प्रस्तावना में भी किया है । शाश्वत सत्य यही है कि बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता , खुद खोजना होता है , ज्ञान का खजाना तो बिखरा हुआ है । जो भी पूरे मन प्राण से जो कुछ खोजता है उसे वह मिलता ही है । सुरेश पटवा जी ने इस किताब के जरिये हिन्दी भाषा की उत्पत्ति , देवनागरी उत्पत्ति ,आदि शोध निबंध , साहित्य में गुलमोहर, ज्ञान परम्परा में पावस ॠतु वर्णन जैसे ललित निबंध तथा कई वैचारिक निबंध प्रस्तुत कर स्वयं की निबंध लेखन की दक्षता प्रमाणित कर दिखाई है । इस संदर्भ पुस्तक के प्रकाशन पर मैं सुरेश पटवा जी को हृदयतल से बधाई देता हूं और "मैं खोजा मैं पाइयां" का हिन्दी जगत में स्वागत करता हूं ।
 
  चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव  

गांधारी मौजूद है किन्तु वह प्रायः मौन है

 पुस्तक चर्चा

गांधारी


डा संजीव कुमार
प्रकाशन... इंडिया नेट बुक्स , नोएडा
पहला संस्करण २०२४ , पृष्ठ १०८ , मूल्य ३०० रु
ISBN 978-81-19854-50-9

चर्चा ... विवेक रंजन श्रीवास्तव 

  दुनियां में विभिन्न संस्कृतियों के भौतिक साक्ष्य और समानांतर सापेक्ष साहित्य के दर्शन होते हैं । भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से कहीं अधिक प्राचीन है । रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के दो अद्भुत महा ग्रंथ हैं । इन महान ग्रंथों में  धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ,आध्यात्मिक और वैचारिक ज्ञान की अनमोल थाथी है । महाभारत जाने कितनी कथायें उपकथायें ढ़ेरों पात्रों के माध्यम से  न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या के गुह्यतम रहस्यों को संजोये हुये है । परंपरागत रूप से, महाभारत की रचना का श्रेय वेदव्यास को दिया जाता है। धारणा है कि महाभारत महाकाव्य से संबंधित मूल घटनाएँ संभवतः 9 वीं और 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की हैं । महाभारत की रचना के बाद से ही अनेकानेक विद्वान सतत उसकी कथाओ का विशद अध्ययन , अनुसंधान , दार्शनिक विवेचनायें करते रहे हैं । वर्तमान में अनेकानेक कथावाचक देश विदेश में पुराणो , भागवत , रामकथा , महाभारत की कथाओ के अंश सुनाकर समाज में भक्ति का वातावरण बनाते दिखते हैं । विश्वविद्यालयों में महाभारत के कथानकों की विवेचनायें कर अनेक शोधार्थी निरंतर डाक्टरेट की उपाधियां प्राप्त करते हैं । प्रदर्शन के विभिन्न  माध्यमो में ढ़ेरों फिल्में , टी वी धारावाहिक , चित्रकला ,  साहित्य में महाभारत के कथानकों को समय समय पर विद्वजन अपनी समझ और बदलते सामाजिक परिवेश के अनुरूप अभिव्यक्त करते रहे हैं । न केवल हिन्दी में वरन विभिन्न भाषाओ के साहित्य पर महाभारत के चरित्रों और कथानको का व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है ।महाभारत कालजयी महाकाव्य है ।  इसके कथानकों को जितनी बार जितने तरीके से देखा जाता है, कुछ नया निकलता है।  हर समय, हर समाज अपना महाभारत रचता है और उसमें अपने अर्थ भरते हुए स्वयं को खोजता है। महाभारत पर अवलंबित हिन्दी साहित्य की रचनायें देखें तो डॉ॰ नरेन्द्र कोहली का प्रसिद्ध महाकाव्यात्मक उपन्यास महासमर , महाभारत के पात्रों पर आधारित रचनाओ में धर्मवीर भारती का अंधा युग  , आधे-अधूरे , संशय की रात , सीढ़ियों पर धूप , माधवी (नाटक), शकुंतला (राजा रवि वर्मा) , कीचकवधम , युगान्त , आदि जाने कितनी ही यादगार पुस्तकें साहित्य की धरोहर बन गयी हैं ।
गांधारी की बात करें तो गान्धारी उत्तर-पश्चिमी प्राकृत भाषा थी जो गांधार में बोली जाती थी। इस भाषा को खरोष्ठी लिपि में लिखा जाता था। इस भाषा में अनेक बौद्ध ग्रन्थ उपलब्ध हैं। अन्य प्राकृत भाषाओं की तरह गान्धारी भाषा भी वैदिक संस्कृत से उत्पन्न हुई भाषा है ।
नये परिवेश में समाज में स्त्रियों ने अपना स्थान बनाया , साहित्य में स्त्री विमर्श को महत्व मिला तो महाभारत की विभिन्न महिला पात्रों पर केंद्रित कृतियां सामने आईं । इसी क्रम में महाभारत की गांधारी के चरित्र पर केंद्रित साहित्य की चर्चा करें तो सुमन केशरी की पुस्तक नाटक गांधारी बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुई है । स्नेहलता स्वामी का उपन्यास गांधारी दिलिपराज प्रकाशन से आया है । डायमंड प्रकाशन से महासती गांधारी नाम का उपन्यास डा विनय का भी आया है । किंतु खण्ड काव्य के रूप में मेरे पढ़ने में पहली कृति डा संजीव कुमार की यह कृति ही है ।  भूमिका में डा संजीव कुमार ने स्वयं गांधारी के चरित्र पर सविस्तार प्रकाश डाला है । उल्लेखनीय है कि डा संजीव कुमार का भारतीय वांग्मय का अध्ययन बहुत व्यापक है । वे उसे आत्मसात कर चुके हैं । रचना कर्म के लिये वे वर्णित चरित्र में परकाया प्रवेश की कला जानते हैं । वे अपनी लेखनी की ताकत से आलोच्य चरित्र को अपने युग में उठा लाते हैं । मिथक के वर्तमान में इस आरोपण से डा संजीव की रचनायें बहुत प्रभावी और समय सापेक्ष बन जाती हैं । मुझे डा संजीव की अधिकांश पुस्तकों को गहराई से पढ़कर किताब की चर्चा करने का सुअवसर मिला । मैं कह सकता हूं कि उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति क्षमता विलक्षण है । वे अपने कल्पना लोक में वह रिक्तता भरना बखूबी जानते हैं जो महाकाव्य में जहाँ से मूल कथानक लिया जाता है , कहानी की जटिलता और चरित्रों की भीड़ भाड़ में अकथ्य रह गया होता है । डा संजीव कोणार्क जाते हैं तो वे मांदिर परिसर की मूर्तियों में जान भरकर उनको शब्द देने की क्षमता रखते हैं । मुझे अच्छा लगा कि इस कृति में उन्होंने अपने पाठकों के लिये गांधारी को जिया है ।
गांधारी पूरे महाभारत में प्रमुखता से मौजूद है किन्तु वह मौन है । गांधारी का जन्म गांधार के राजा सुधर्मा और सुबाला के घर हुआ था। राजनीति में रिश्तों की कहानी बहुत पुरानी है । भीष्म द्वारा गांधारी को कुरु साम्राज्य की बड़ी पुत्रवधू के रूप में चुना जाना भी राजनैतिक संधि और प्रभाव का परिणाम था । शायद यह समझौते केर रूप में स्वीकार किया गया यह किंचित बेमेल विवाह ही महाभारत के युद्ध का बीजारोपण था । गांधारी के भाई शकुनि के प्रतिशोध का कारण था । महाकाव्य में गांधारी का चरित्र उन ऊंचाईयो तक वर्णित है , जहां अपने पति के नेत्र न होने से वे भी जीवन पर्यंत आंखो पर पट्टी बांधकर अंधत्व का जीवन यापन करती हैं । गांधारी अनन्य शिव भक्त थीँ । दैवीय वरदान से वे  महाभारत के खलनायकों सौ पुत्रों कौरवों तथा एक बेटी दुशाला की माँ बनी ।  कुरुक्षेत्र युद्ध और कौरवों के समूल अंत के बाद , गांधारी ने कृष्ण को श्राप दिया, जिसके प्रभाव से यदु वंश का विनाश हुआ ।
अब आलोच्य कृति में गांधारी के मनोभावों को डा संजीव कुमार ने किस प्रकार निबाहा है , वह पढ़िये और मेरा भरोसा है कि ये अंश पढ़कर आप पुस्तक पढ़ने के लिये अपनी जिज्ञासा को बिना किताब बुलवाये रोक न सकेंगे । कुल जमा ७२ कविताओ में गांधारी के मनोभावों को सारे महाभारत से समेट कर सक्षम अभिव्यक्ति दे पाने में डा संजीव सफल हुये हैं । कवितायें कर्ता कारक के रूप में  लिखी गईं हैं । " मेरे पिता सुबल एवं माता सुधर्मा थीं , बताया गांधारी ने ... गांधार छोड़ते समय मैने याद किया आराध्य शिव शंकर को , और बैठ गई डोली में । निर्भीक और निडर । मेरी सखी सुनंदा और भ्राता शकुनी साथ थे , जो रहेंगे मेरे साथ ही ससुराल में । ......
एक अपहृत राजकुमारी निरीह ... जिसे एक जन्मांध की पत्नी बनकर जीना था ....
... और शामिल कर लिया आँखों की पट्टी को अपनी वेशभूषा में ....
...  शायद पट्टी बांधी थी तुमने अपने लिये ...
... न संभाल सकीं तुम बच्चे ... और माँ के नेत्रों से न देख पाये बच्चे दुनियां बन गये सारे जिद्दी और उद्दंड ...
... धृतराष्ट्र ने तुम्हें छोड़ दासी से बना लिये संबंध , परिणाम था युयुत्सु ...
.... खुली तो फिर भी रहेंगी मेरे मन की आँखें ...
इसी तरह की सशक्त अभिव्यक्ति कौशल के दर्शन होते हैं पूरी किताब में । गांधारी के चरित्र को रेखांकित करती इस काव्य कृति के लिये संजीव जी बधाई के सुपात्र हैं । खरीदिये , पढ़िये और इस वैचारिक कृति से परखिये स्त्री मनोभावों की ताकत को जो आजीवन अंधत्व का स्वेच्छा से चयन करने का सामर्थ्य रखती है तो समूचे यदुवंश को श्रापित कर नष्ट करने  पर विवश हो सकती है ।

चर्चा ... विवेक रंजन श्रीवास्तव



 

Sunday 8 September, 2024

 पुस्तक चर्चा

मानसी

उपन्यासकार .चन्द्रभान राही, भोपाल

प्रकाशक ...सर्वत्र , भोपाल

पृष्ठ ..२७८, मूल्य ३९९ रु



चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए २३३ . ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी , भोपाल , ४६२०२३


 पाश्चात्य समाज में स्त्रियों की भागीदारी को उन्नीसवीं शताब्दी के अंत और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में रेखांकित किया जाने लगा था । इसी से विदेशी साहित्य में स्त्री विमर्श की शुरुआत  हुई । इसे फ़ेमिनिज़्म कहा गया । स्त्री अस्मिता , लिंग भेद , नारी-जागरण ,स्त्री जीवन की सामाजिक , मानसिक , शारीरिक समस्याओं का चित्रण साहित्यिक  रचनाओ में प्रमुखता से किया जाने लगा । यह विमर्श एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में विकसित हुआ है । आज भी स्त्री विमर्श के विषय, साहित्य के माध्यम से स्त्री पुरुष समानता , स्त्री दासता से मुक्ति के प्रश्नों के उत्तर खोजने की वैचारिक कविताओ , कहानियों , उपन्यास और प्रेरक लेखों के जरिये उठाए जाते हैं । स्त्री विमर्श पर शोध कार्य हो रहे हैं ।

मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष के विकास में स्त्रियों की अहम भूमिका को स्वीकार किया था । उन्होंने स्त्रियों को शोषित वर्ग का प्रतिनिधि माना था ।  महिला विमर्श को पश्चिम और भारतीय परिवेश मे अलग नजरियों से देखा गया । पश्चिम ने स्त्री पुरुष को समानता का अधिकार स्वीकार किया । दूसरी ओर भारतीय महाद्वीप में स्त्री पुरुष को सांस्कृतिक रूप से परस्पर अनुपूरक माना जाता रहा है । नार्याः यत्र पूज्यंते .. के वेद वाक्य का सहारा लेकर स्त्री को पुरुष से अधिक महत्व का सैद्धांतिक घोष किया जाता रहा , किन्तु व्यवहारिक पक्ष में आज भी विभिन्न सामाजिक कारणो से समाज के बड़े हिस्से में स्त्री भोग्या स्वरूप में ही दिखती है । कानून , नारी आंदोलन , स्त्री विमर्श यथार्थ के सम्मुख बौने रह गये हैं , और स्त्री विमर्श के साहित्य की प्रासंगिकता सुस्थापित है ।

विज्ञापन तथा फिल्मों ने स्त्री देह का ऐसा व्यापार स्थापित किया है कि पुरुष के कंधे से कंधा मिलाने की होड़ में स्त्रियां स्वेच्छा से अनावृत हो रही हैं । इंटरनेट ने स्त्रियों के संग खुला वैश्विक खिलवाड़ किया है । स्त्री मन को पढ़ने की , उसे मानसिक बराबरी देने के संदर्भ में , स्त्री को भी मनुष्य समझने में जो भी किंचित आशा दिखती है वह रचनाकारों से ही है । मुझे प्रसन्नता है कि चन्द्रभान राही जैसे लेखकों में इतना नैतिक साहस है कि वे इसी समाज में रहते हुये , समाज का नंगा सच भीतर से देख समझ कर मानसी जैसा बोल्ड उपन्यास लिखते हैं । मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी सम्मान सहित , तुलसी सम्मान ,शब्द शिखर सम्मान,  पवैया सम्मान , देवकीनंदन महेश्वरी स्मृति सम्मान ,श्रम श्री सम्मान ,  स्वर्गीय नर्मदा प्रसाद खरे सम्मान , पंडित बालकृष्ण शर्मा नवीन सम्मान ,  आदि आदि अनेक सम्मानो से समादृत बहुविध लेखक श्री चंद्रभान राही का साहित्यिक कृतित्व बहुत लंबा है । मैंने उनसे अनौपचारिक बातचीत में उनकी रचना प्रक्रिया को किंचित समझा है । वे टेबल कुर्सी लगाकर बंद कमरे में लिखने वाले फेंटेसी लेखक नहीं हैं । एक प्रोजेक्ट बनाकर वे सोद्देश्य रचना कर्म  करते हैं । अध्ययन , अनुभव और सामाजिक वास्तविकताओ को अपनी जीवंत अभिव्यक्ति शैली में वे कुशलता से पाठकों के लिये पृष्ठ दर पृष्ठ हर सुबह संजोते हैं , पुनर्पाठ कर स्वयं संपादित करते हैं और तब कहीं उनका उपन्यास साहित्य जगत में दस्तक देता है । अपनी नौकरी के साथ साथ वे अपना रचना कर्म निरपेक्ष भाव से करते दिखते हैं । स्वाभाविक रूप से इतनी गंभीरता से किये गये लेखन को उनके पाठक हाथों हाथ लेते हैं । वे उन लेखकों में से हैं जो अपठनीयता के इस युग में भी किताबों से रायल्टी अर्जित कर रहे हैं ।

“मर्द, एक स्त्री से दर्द लेकर आता है, दूसरी स्त्री के पास दर्द कम करने के लिए।”  स्त्री, स्त्री है तो एक घरवाली और एक बाहरवाली, दो भागों में कैसे बँट गई ? दोनों स्त्रियों के द्वारा मर्द को संतुष्ट किया जाता है लेकिन बदनाम कुछ ही स्त्रियाँ होती हैं। अनूठे शाब्दिक प्रयोग के साथ लिखे गये बोल्ड उपन्यास ‘मानसी' के लेखक चन्द्रभान 'राही' ने स्त्री मन की पीड़ा को लिखा है। स्त्री प्रेम के लिए मर्द को स्वीकारती है और मर्द, स्त्री के लिए प्रेम को स्वीकारता है। स्त्री प्रेम के वशीभूत होकर अपने सपनों को पूरा करने के लिए पहले दूसरे के सपनों को पूरा करती है। पुरुष प्रधान समाज के बीच स्त्री स्वयं उलझती चली जाती है। इच्छित पुरुष को पाने का असफल प्रयास करती स्त्री की आत्मकथा के माध्यम से प्रेम का मनोविज्ञान ही मानसी का कथानक है ।

स्त्री विमर्श आंदोलन ने स्त्री को कुछ स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और शक्तिशाली बनाया है। फिल्म, मॉडलिंग, मीडिया के साथ बिजनेस और नौकरी में महिलाओ की भागीदारी बढ़ रही है। किंतु, इसका दूसरा पक्ष बड़ा त्रासद है। उपभोक्तावाद ने कुछ युवतियों को कालगर्ल , स्कार्ट रैकेट का हिस्सा बना दिया है । ‘मी-टू’ अभियान की सच्चाईयां समाज को नंगा करती हैं । आये दिन रेप की वीभत्स्व घटनायें क्या कह रही हैं ? सफल-परिश्रमी युवतियों के चरित्र को संदिग्ध मान लिया जाता है। महिला को संरक्षण देने वाले और समाज की दृष्टि में स्त्री इंसान नहीं ‘रखैल’ घोषित कर दी जाती है। सफल स्त्रियों की आत्मकथाएं कटु जीवनानुभवों का सच हैं। पुरुषों का अहं साथी की योग्यता और सफलता को स्वीकार नहीं कर पाता है। पितृसत्ता स्त्री की आजादी और मुक्ति में बाधक है। आरक्षण महिलाओ की योग्यता और क्षमता को मुखरता देने के लिये वांछित है ।

इस उपन्यास के चरित्रों मुंडी , मुंडा , मुंडी का रूपांतरित स्वरूप मानसी , चकाचौंध की दुनियां वाली नैना ,गिरधारीलाल , दिवाकर , रवि को लेखक ने बहुत अच्छी तरह कथानक में पिरोया है । उन्होंने संभवतः आंचलिकता को रेखांकित करने के लिये उपन्यास की नायिका मुंडी उर्फ मानसी को आदिवासी अंचल से चुना है । यद्यपि चमत्कारिक रूप से मुंडी के व्यक्तित्व का यू टर्न  पाठक को थोड़ा अस्वाभाविक लग सकता है ।  किन्तु ज्यों ज्यों कहानी बढ़ती है नायिका की मनोदशा में संवेदनशील पाठक खो जाता है । पाठक को अपने परिवेश में ऐसे ही दृश्य समझ आते हैं , भले ही उसने वह सब अखबारी खबरों से देखे हों , स्वअनुभूत हों या दुनियांदारी ने सिखाये हों , पर स्त्री की विवशता पाठक के हृदय में करुणा उत्पन्न करती है । यह लेखकीय सफलता है ।

मुझे स्मरण है पहले जब मैं किताबें पढ़ा करता था तो शाश्वत मूल्य के पैराग्राफ लिख लिया करता था , अब तो माध्यम बदल रहे हैं , कई किताबें सुना करता हूं तो कई किंडल पर पढ़ने मिलती हैं । उपन्यास मानसी के वे पैराग्राफ जो रेखांकित किये जाने चाहिये , अपनी प्रारंभिक लेखकीय अभिव्यक्ति " कुछ तो देखा है " में चंद्रभान जी ने स्वयं संजो कर प्रस्तुत किये हैं । केवल इतना ही पढ़ने से सजग पाठक अपना कौतुहल रोक नहीं पायेंगे और विचारोत्तेजना उन्हें यह उपन्यास पूरा पढ़ने को प्रेरित करेगी , अतः कुछ अंश उधृत हैं ...

'स्त्री', जब बड़ी हो जाती है तो लोगों की निगाहों में आती है। लोग स्त्री को सराहते नहीं है। सहलाने लगते हैं। यहीं से मर्द की विकृत मानसिकता और औरत की समझदारी का जन्म होता है ।

'स्त्री' जब प्रेम के वशीभूत किसी मर्द के साथ होती है तो वह उस समय उसकी पसर्नल होती है। उसके पश्चात वही मर्द उसको 'वेश्या' का नाम धर देता है।

'स्त्री' को दो घण्टे के लिए होटल का कमरा कोई भी मर्द उपलब्ध करा देता है लेकिन जीवन भर के लिए छत उपलब्ध करना मर्द के लिए आसान नहीं।

'स्त्री' जब अपने देह के बदले रोटी को पाने की मशक्कत करे तब मर्द का वज़न उतना नहीं लगता जितना रोटी का लगता है। पेट की भूख मिटाने के खातिर स्त्री कब देह की भूख मिटाने लगती है उसे भी पता नहीं चलता ।

"स्त्री प्रतिदिन अपने ऊपर से न जाने कितने वज़नदार मर्दों को उतर जाने देती है। वो उतने वज़नदार नहीं लगते जितनी की रोटी लगती है।"

"मैं जब किसी कमरे में वस्त्र उतारती हूँ तो मेरे साथ एक मर्द भी होता है। सच कहती हूँ तब मैं उसकी पसर्नल होती हूँ। "

"मर्द घर की स्त्री से कहीं ज्यादा आनन्द, संतुष्टि और प्रेम बाहर की स्त्री से पाता है लेकिन बाहर की स्त्री को वो मान-सम्मान और प्रतिष्ठा नहीं देता जो घर की स्त्री को देता है।"

"उन स्त्रियों का जीवन मर्द की प्रतीक्षा में कट जाता है, लेकिन उनकी ये प्रतीक्षा भी अलग अंदाज में होती है। घर की स्त्री भी मर्द की प्रतीक्षा करती है, उसका अपना अलग तरीका होता है।"

" दो घण्टे के साथ में उन स्त्री को सब कुछ मर्द से मिल जाता है। जिन्हें वो खुशी-खुशी स्वीकार कर लेती है। वहीं जीवन भर साथ रहने के पश्चात भी घर की स्त्री, मर्द से कहने से नहीं चूकती 'तुमने किया ही क्या है, मेरे तो नसीब फूट गए, तम्हारे साथ रहते-रहते। ज़िन्दगी बरबाद हो गई।'

'स्त्री', ग्लेमर की दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के खातिर खड़ी होती है। समाज कब उसकी अलग पहचान बना देता है स्वयं स्त्री को भी पता नहीं चल पाता।"

'स्त्री' कल भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही थी, आज भी अपना अस्तित्व ढूँढ़ रही है। स्त्री समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए उन रास्तों पर कब चली जाती है जो जीवन को अंधकार की और मोड़ देता है।'स्त्री' कभी स्वेच्छा से तो कभी विवश होकर, मजबूरी के कारण मर्द का साथ चाहती है। मर्द का साथ होना ही स्त्री को आत्मबल, सम्बल देता है। स्त्री जब मर्द के पीछे होती है तो स्वयं को सुरक्षित महसूस करती है। स्त्री जब मर्द के आगे होती है तो वह किसी कवच से कम नहीं होती। मर्द की संकीर्ण मानसिकता के कारण मर्द आज भी स्त्री को नग्न अवस्था में देखना पसंद करता है। स्त्री देह का आकर्षण, मर्द के लिए स्वर्णीय कल्पना लोक में जाने से कम प्रसन्नता का अवसर नहीं होता।"

मानसी' एक ऐसी स्त्री की आत्मकथा है जो आई तो थी दुनियाँ में अपनी पहचान बनाने के लिए लेकिन दुनियाँ ने उसकी अलग ही पहचान बना दी और नाम धर दिया 'वेश्या' है।'स्त्री' वेश्या की पहचान लेकर समाज में स्वच्छन्द नहीं घूम सकती। आज भी स्त्री को देवी स्वरूप की दृष्टी से देखने का चलन है। देखना और दिखाना दोनों में अंतर है। वही अंतर घर की स्त्री और बाहर की स्त्री में भी है।

घर की स्त्री और बाहर की स्त्री के साथ काम एक सा ही होता है। पर अलग-अलग नाम , अलग-अलग पहचान क्यों? "स्त्री, मर्द की भावना को समझ नहीं पाती या मर्द स्त्री को समझ नहीं पाता। स्त्री और मर्द के बीच प्रेम की खाईं को मिटा पाना किसी मर्द के बस की बात नहीं दिखती। यदि कहीं, कोई मर्द है, जो स्त्री की संतुष्टि का दावा करता है, तो वह मर्द वास्तव में समाज के लिए प्रणाम के योग्य है।"

लेखक बेबाकी से उन स्त्रियों का हृदय से आभार प्रकट करते हैं जिनके कारण उन्होंने स्त्री मन की भावनाओं तक पहुँच कर उन्हें समझने का प्रयास किया। और यह उपन्यास रचा । वे यह पुस्तक भी मैं उन स्त्रियों को समर्पित करते हैं जिन्होंने ऐसा जीवन जिया है। वे लिखते हैं उन स्त्रियों के साथ होते है, तो दूसरी दुनियाँ की अनुभूति होती है। उनकी दुनियाँ के आगे वास्तविक दुनिया मिथ्या लगती है। सच तो यही है कि उनको पता है कि हम ज़िन्दा क्यों हैं। मरने के लिए ज़िन्दा रहना कोई बड़ी बात नहीं है। बात तो तब है कि कुछ करने के लिए ज़िन्दा रहा जाए।

मुझे विश्वास है कि इस उपन्यास से चंद्रभान राही जी गंभीर स्त्रीविमर्श लेखक के रूप में साहित्य जगत में स्वीकार किये जायेंगे । उपन्यास अमेजन पर सुलभ है , पढ़कर मेरे साथ सहमति तय करिये ।


चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव

Friday 6 September, 2024

कुत्ते की वफादारी और कटखनापन अमिधा से हटकर, व्यंजना और लक्षणा में


 पुस्तक चर्चा

व्यंग्य संग्रह… अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो

लेखक..सुदर्शन सोनी, चार इमली, भोपाल

प्रकाशक…बोधि प्रकाशन जयपुर

पृष्ठ..१३६, मूल्य १५० रु

 

☆ व्यंग्य संग्रह… अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो – चर्चाकार…विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

 

कुत्ते की वफादारी और कटखनापन जब अमिधा से हटकर, व्यंजना और लक्षणा शक्ति के साथ इंसानो पर अधिरोपित किया जाता है तो व्यंग्य उत्पन्न होता है. मुझे स्मरण है कि इसी तरह का एक प्रयोग जबलपुर के विजय जी ने “सांड कैसे कैसे” व्यंग्य संग्रह में किया था, उन्होने सांडो के व्यवहार को समाज में ढ़ूंढ़ निकालने का अनूठा प्रयोग किया था. पाकिस्तान के आतंकियो पर मैंने भी “डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान…” एवं “मेरे पड़ोसी के कुत्ते” लिखे,  जिसकी  बहुत चर्चा व्यंग्य जगत में रही  है.  कुत्तों का  साहित्य में वर्णन बहुत पुराना है, युधिष्टर के साथ उनका कुत्ता भी स्वर्ग तक पहुंच चुका है. काका हाथरसी ने लिखा था..

पिल्ला बैठा कार में, मानुष ढोवें बोझ

भेद न इसका मिल सका, बहुत लगाई खोज

बहुत लगाई खोज, रोज़ साबुन से न्हाता

देवी जी के हाथ, दूध से रोटी खाता

कहँ ‘काका’ कवि, माँगत हूँ वर चिल्ला-चिल्ला

पुनर्जन्म में प्रभो! बनाना हमको पिल्ला

हाल ही पडोसी के एक मौलाना ने बाकायदा नेशनल टेलीविजन पर देश के आवारा कुत्तो को सजा धजा कर दूसरे देशों को मांस निर्यात करने का बेहतरीन प्लान किसी तथाकथित किताब के रिफरेंस से भी एप्रूव कर उनके वजीरे आजम को सुझाया है, जिसे वे उनके देश  की गरीबी दूर करने का नायाब फार्मूला बता रहे हैं. मुझे लगता है  शोले में बसंती को कुत्ते के सामने नाचने से मना क्या किया गया, कुत्तों ने  इसे पर्सनली ले लिया और उनकी वफादारी, खुंखारी में तब्दील हो गई. मैं अनेक लोगो को जानता हूं जिनके कुत्ते उनके परिवार के सदस्य से हैं.सोनी जी स्वयं एक डाग लवर हैं, उन्हीं के शब्दों में वे कुत्तेदार हैं, एक दो नही उन्होने सिरीज में राकी ही पाले हैं. एक अधिकारी के रूप में उन्होनें समाज, सरकार को कुछ ऊपर से, कुछ बेहतर तरीके से देखा समझा भी है. एक व्यंग्यकार के रूप में उनकी अनुभूतियों का लोकव्यापीकरण करने में वे बहुत सफल हुये हैं.  कुत्ते के इर्द गिर्द बुने विषयों पर  अलग अलग पृष्ठभूमि पर लिखे गये सभी चौंतीस व्यंग्य भले ही अलग अलग कालखण्ड में लिखे गये हैं किन्तु वे सब किताब को प्रासंगिक रूप से समृद्ध बना रहे हैं. यदि निरंतरता में एक ताने बाने एक ही फेब्रिक में ये व्यंग्य लिखे गये होते तो इस किताब में एक बढ़िया उपन्यास बनने की सारी संभावनायें थीं. आशा है सुदर्शन जी सेवानिवृति के बाद कुत्ते पर केंद्रित एक उपन्यास व्यंग्य जगत को देंगे, जिसका संभावित नाम उनके कुत्तों पर “राकी” ही होगा.

धैर्य की पाठशाला शीर्षक भी उन्हें कुत्तापालन और धैर्य कर देना था तो सारे व्यंग्य लेखो के शीर्षको में भी कुत्ता उपस्थित हो जाता. जेनेरेशन गैप इन कुत्तापालन, कम्फर्ट जोन व डागी,कुत्ताजन चार्टर, डोडो का पाटी संस्कार,  आदि शीर्षक ही स्पष्ट कर रहे हैं कि सोनी जी को आम आदमी की अंग्रेजी मिक्स्ड भाषा से परहेज नही है. उनकी व्यंग्यों में संस्मरण सा प्रवाह है. यूं तो सभी व्यंग्य प्रभावी हैं, गांधी मार्ग का कुत्ता, कुत्ता चिंतन, एक कुत्ते की आत्मकथा, उदारीकरण के दौर में कुत्ता आदि बढ़िया बन पड़े व्यंग्य हैं. किताब पठनीय है, श्वान प्रेमियो को भेंट करने योग्य है. न्यूयार्क में मुझे एक्सक्लूजिव डाग एसेसरीज एन्ड युटीलिटीज का सोरूम दिखा था “अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो ”  अंग्रेजी अनुवाद के साथ वहां रखे जाने योग्य मजेदार व्यंग्य संग्रह लगता है.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

सरदार पटेल के जीवन पर आधारित उपन्यास


एकता और शक्ति  (सरदार पटेल के जीवन पर आधारित उपन्यास)

 


एकता और शक्ति उपन्यास स्वतंत्र भारत के शिल्पकार  लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल के अप्रतिम योगदान पर आधारित कृति है. इस उपन्यास की रचना  गुजरात के रास ग्राम के एक सामान्य कृषक परिवार को केन्द्र में रख कर की गयी है. श्री वल्लभभाई पटेल के महान  व्यक्तित्व से प्रभावित होकर हजारो लोग खेड़ा सत्याग्रह के दिनों से ही उनके अनुगामी हो गए थे और उनकी संघर्ष यात्रा के सहयोगी बने थे.  पुस्तक में सरदार पटेल के व्यक्तित्व के महत्वपूर्ण पक्षों को और उनके अद्वितीय योगदान का प्रामाणिक रूप से वर्णन किया गया है.

महान स्वतंत्रता सेनानी… कर्मठ देशभक्त…  दूरदर्शी नेता… कुशल प्रशासक…! सरदार वललभभाई पटेल के सन्दर्भ में ये शब्द विशेषण नहीं हैं. ये दरअसल उनके व्यक्तित्व की वास्तविक छबि है.   स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद अनेक समस्याओं से जूझते हुए भारतवर्ष को संगठित करने, उसे सुदृढ़ बनाने और नवनिर्माण के पथ पर अग्रसर कराने में उनकी भूमिका अविस्मरणीय रही है. ‘एकता और शक्ति’ स्वतंत्र भारत के इस महान शिल्पी को लेखक की विनम्र श्रद्धांजली  है. यह उपनयास एक सामान्य कृषक परिवार  के किरदार से सरदार की कार्य -कुशलता, उनके प्रभावशाली नेतृत्व और अनुपम योगदान का का ताना-बाना बुनता है ।उपन्यास सरदार श्री के जीवन से सबंधित कई अल्पज्ञात या लगभग अनजान पहलुओं को भी नये सिरे और नये नजरिये से छूता है.

यह उपन्यास सरदार वल्लभभाई पटेल के अप्रतिम जीवन से  नयी पीढ़ी में राष्ट्रनिर्माण की अलख जगाने का कार्य कर सकता है . आज की पीढ़ी को सरदार के जीवन के संघर्ष से परिचित करवाना आवश्यक है, जिसमें यह उपन्यास अपनी महती भूमिका निभाता नजर आता है.

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देशी रियासतों का भारत में त्वरित विलय कराने, स्वाधीन देश में उपयुक्त प्रशासनिक व्यवस्था बनाने और कई कठिनाइयों से जूझते हुए देश को प्रगति के पथ पर अग्रसर कराने में, लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल का योगदान अप्रतिम रहा है. वे लाखों लोगों के लिए अक्षय प्रेरणा-स्रोत हैं. एकता और शक्ति, सरदार वल्लभभाई पटेल के योगदान पर आधारित एक ऐसा उपन्यास है जिसमें एक सामान्य कृषक परिवार की कथा के माध्यम से, सरदार श्री के प्रभावशाली कृशल नेतृत्व का एवं तत्कालीन घटनाओं का वर्णन किया गया है. साथ ही, एक सम्पन्न एवं सशक्त भारत के निर्माण हेतु उनके प्रेरक दिशा-निर्देशों पर भी प्रकाश डाला गया है.

 अमेरन्द्र नारायण एशिया एवं प्रशान्त क्षेत्र के अन्तरराष्ट्रीय दूर संचाार संगठन एशिया पैसिफिक टेली कॉम्युनिटी के भूतपूर्व महासचिव एवं भारतीय दूर संचार सेवा के सेवानिवृत्त कर्मचारी हैं. उनकी सेवाओं की प्रशंसा करते हुए उन्हें भारत सरकार के दूरसंचार विभाग ने स्वर्ण पदक से और संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेष एजेंसी अन्तर्राष्ट्रीय दूरसंचार संगठन ने टेली कॉम्युनिटी को स्वर्ण पदक से और उन्हें व्यक्तिगत रजत पदक से सम्मानित किया.

श्री नारायण के अंग्रेजी उपन्यास—फ्रैगरेंस बियॉन्ड बॉर्डर्स  का उर्दू अनुवाद खुशबू सरहदों के पास नाम से प्रकाशित हो चुका है. भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति महामहिम अब्दुल कलाम साहब, भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी सहित कई गणमान्य व्यक्तियों ने इस पुस्तक की सराहना की है. महात्मा गांधी के चम्पारण सत्याग्रह और फिजी के प्रवासी भारतीयों की स्थिति पर आधारित उनका संघर्ष नामक उपन्यास काफी लोकप्रिय हुआ है. उनकी पाँच काव्य पुस्तकें—सिर्फ एक लालटेन जलती है, अनुभूति, थोड़ी बारिश दो, तुम्हारा भी, मेरा भी और श्री हनुमत श्रद्धा सुमन पाठकों द्वारा प्रशंसित हो चुकी हैं. श्री नारायण को अनेक साहित्यिक संस्थाओं ने सम्मानित किया है.

श्री अमरेन्द्र नारायण जी  के इस प्रयास की व्यापक सराहना की जानी चाहिये . यह विचार ही रोमांचित करता है कि यदि देश का नेतृत्व लौह पुरुष सरदार पटेल के हाथो में सौंपा जाता तो आज कदाचित हमारा इतिहास भिन्न होता . पुस्तक पठनीय व संग्रहणीय है .

 

चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

Thursday 5 September, 2024

पाठक के मन में नई उर्जा का संचार करती कवितायें ...

 



अपराजिता
नई कविता संग्रह
डा संजीव कुमार
बोधि प्रकाशन , जयपुर
मूल्य १२० रु , पृष्ठ १४०
चर्चा ... विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल
  नई कविता प्रयोगवादी कविता है । भोगे हुये यथार्थ की चमत्कारिक शब्द अभिव्यक्ति है। नई कविता परिस्थितियों की उपज है। नई कविता भाव प्रधान है । अपराजिता में नई कविता के ये सारे प्रतिमान डा संजीव कुमार ने प्रतिष्ठित करने में सफल अभिव्यक्ति की है।  शहरी संघर्ष जिसमे कुंठा, घुटन, असमानता, और सपने हैं इन कविताओ में दृष्टव्य हैं । आज डा संजीव कुमार स्वयं इंडिया नेटबुक्स जैसे वैश्विक साहित्यिक संस्थान के मालिक हैं किन्तु वर्ष २०१७ में उनकी स्वयं की यह कृति जयपुर के सुप्रतिष्ठित संस्थान बोधि प्रकाशन से छपी है । बोधि ने हमेशा से प्रकाशन पूर्व रचनाओ का साहित्यिक मूल्यांकन गंभीरता से किया अतः प्रथम दृष्ट्या पाठक स्तरीय रचना की आश्वस्ति के साथ किताब उठाता है । सारी कवितायें पढ़ने के बाद मेरा अभिमत है कि शिल्प और भाव , साहित्यिक सौंदर्य-बोध , प्रयोगों मे किंचित नवीनता , अनुभूतियों के चित्रण , संवेदनशीलता और बिम्ब के प्रयोगों से डा संजीव कुमार ने अपराजिता को नई कविता के अनेक संग्रहों में विशिष्ट बनाया है ।
जीवन की व्याख्या को लेकर कई रचनायें अनुभव जन्य हैं । उदाहरण के लिये "हमारे सपने" , रास्ता खोज रहे हैं , जीवन पथ में , जीवन की आशा , जिंदगी क्या चाहती है , कैसा होगा अंत , जीवन और मरण के प्रश्न , आत्मा बोलती है ,कहां मिलता भगवान , विभ्रम ही विभ्रम आदि रचनायें कवि की उसी दार्शनिक सोच की परिचायक हैं जिनमें जीवन के गूढ़ रहस्यों की समझ को व्यक्त कर लोकव्यापी बनाया गया है ।
संग्रह का शीर्षक अपराजिता है । "मैं हूं अपराजिता" , "कौन होगी अपराजिता" तथा "अपराजिता" शीर्षको से तीन रचनायें भी संग्रह का हिस्सा हैं । डा संजीव का तत्सम शब्द संसार भव्य है । कहन की उनकी शैली व्यापक कैनवास पर भाव चित्र बनाती है । वे अपने नवीन दृष्टिकोण से सौंदर्य-छवियाँ अभिचित्रित करते चलते हैं ।
अपराजिता से उधृत है ... आकाश के जिस छोर से तुम मुझे आवाज देते हो , मैं वहां पहुंच जाता हूं , .... किंतु तुम्हारा शुभ्र ज्योत्सना का यह तन , नहीं आता मेरे पारिम्भ में ... तुम भले साकार न हो , पर साकार हे संगीत ... तुम अपने हाथों से रोक नहीं सकते उसे , यही मेरी विजय और तुम्हारी हार है , मेरी आत्मा अपराजिता ।
एक अन्य कविता से ...
मुझे आता है शिशु की तरह हार को जीत में बदलना
गिरकर , उठकर फिर चलना
इसीलिये मैं हूं
अपराजिता
प्रकृति तथा जीवन का चित्रण  रंग, स्पर्श, ध्वनि आदि पर आधारित बिम्बों के द्वारा, नई नई उपमाओ  के माध्यम से उपमित करते हुये वे अपने अनुभव लिखते हैं ...
हमारे पैरों से लिपटकर
लहरें कितना प्यार करती थीं
कितना खुस होती थीं मछलियां
आँख मिचौनी खेलती थीं
नदी में अब केवल जलकुंभी है
और हमारे पैर नदी से बाहर

वे मस्ती में जीने के लिये अपने सपने खुद बुनने में भरोसा करते हैं ।
दूर करो मन के भय
ये बोल के जियो
हमें मस्ती में रहने दो

संग्रह की रचनायें पाठक के मन में ऐसी नई उर्जा का संचार करने में सफल हुई हैं । 

विवेक रंजन श्रीवास्तव

Tuesday 3 September, 2024

जिंदगी एक उपन्यास ही होती है

 पुस्तक चर्चा

तूफानों से घिरी जिंदगी , आत्म कथा
हरि जोशी
प्रकाशक इंडिया नेट बुक्स , नोएडा दिल्ली
पृष्ठ २१८ , मूल्य ४०० रु

चर्चा... विवेक रंजन श्रीवास्तव , भोपाल

मेरी समझ में हम सब की जिंदगी एक उपन्यास ही होती है . आत्मकथा खुद

का लिखा वही उपन्यास होता है . वे लोग जो बड़े ओहदों से रिटायर होते हैं उनके सेवाकाल में अनेक ऐसी घटनायें होती हैं जिनका ऐतिहासिक महत्व होता है , उनके लिये गये तात्कालिक निर्णय पदेन गोपनीयता की शपथ के चलते भले ही तब उजागर न किये गये हों किंतु जब भी वे सारी बातें आत्मकथाओ में बाहर आती हैं देश की राजनीति प्रभावित होती है . ये संदर्भ बार बार कोट किये जाते हैं . बहु पठित साहित्यकारों , लोकप्रिय कलाकारों की जिंदगी भी सार्वजनिक रुचि का केंद्र होती है . पाठक इन लोगों की आत्मकथाओ से प्रेरणा लेते हैं. युवा इन्हें अपना अनुकरणीय पाथेय बनाते हैं .
हिन्दी साहित्य में पहली आत्मकथा के रूप में बनारसी दास जैन की सन १६४१ में रचित पद्य में लिखी गई " अर्ध कथानक " को स्वीकार किया गया है . यह ब्रज भाषा में है . बच्चन जी की आत्मकथा क्या भूलूं क्या याद करूं , नीड़ का निर्माण फिर  , बसेरे से दूर और  दशद्वार से सोपान तक ४ खण्डों में है . कमलेश्वर ने भी ३ किताबों के रूप में आत्मकथा लिखी है . महात्मा गांधी की आत्मकथा सत्य के प्रयोग ,बहुचर्चित है .  हिन्दी व्यंग्यकारों में भारतेंदु हरीशचंद्र की कुछ आप बीती कुछ जगबीती , परसाई जी ने हम इक उम्र से वाकिफ हैं, तो रवीन्द्र त्यागी की आत्मकथा वसंत से पतझड़ तक पठनीय पुस्तकें हैं . ये आत्मकथायें लेखकों के संघर्ष की दास्तान भी हैं और जिंदगी का निचोड़ भी .
सफल व्यक्तियों की जिंदगी की सफलता के राज समझना मेरी अभिरुचि रही है . उनकी जिंदगी के टर्निंग पाइंट खोजने की मेरी प्रवृति मुझे रुचि लेकर आत्मकथायें पढ़ने को प्रेरित करती है . इसी क्रम में मेरे वरिष्ठ हरि जोशी जी की सद्यः प्रकाशित आत्मकथा तूफानों से घिरी जिंदगी ,पढ़ने का सुयोग बना तो मैं उस पर लिखे बिना रह न सका . मेरी ही तरह हरि जोशी जी भी  इंजीनियर हैं , उन्होंने मेरी किताब कौआ कान ले गया की भूमिका लिखी थी . फोन पर ही सही पर उनसे जब तब व्यंग्य जगत के परिदृश्य पर आत्मीय चर्चा भी हो जाती हैं  .
यह आत्मकथा तूफानों से घिरी जिंदगी  दादा पोतासंवाद के रूप में अमेरिका में बनी है . हरि जोशी जी का बेटा अमेरिका में है , वे जब भी अमेरिका जाते हैं छै महिनो के लम्बे प्रवास पर वहां रहते हैं . जब उनसे ६५ वर्ष छोटे उनके पोते सिद्धांत ने उनसे उनकी जिंदगी के विषय में जानना चाहा तो उसके सहज प्रश्नो के सच्चे उत्तर पूरी ईमानदारी से वे देते चले गये और कुछ दिनो तक चला यह संवाद उनकी जिंदगी की दास्तान बन गया . एक अमेरिका में जन्मा वहां के परिवेश में पला पढ़ा बढ़ा किशोर उनके माध्यम से भारत को , अपने परिवार पूर्वजों को , और अपने लेखक व्यंग्यकार दादा को जिस तरह समझना चाहता था वैसे कौतुहल भरे सवालों के जबाब जोशी जी ने देकर सिद्धांत की कितनी उत्सुकता शांत की और उसे कितने साहित्यिक संस्कार संप्रेषित कर सके यह तो वही बता सकता है , पर जिन चैप्टर्स में यह चर्चा समाहित की गई है वे कुछ इस तरह हैं , आत्मकथा का प्रारंभ खंड हरि जोशी जी का जन्म ठेठ जंगल के बीच बसे आदिवासी बहुल गांव खूदिया, जिला हरदा में हुआ था , शिशुपन की कुछ और स्मृतियाँ सुनो , कीचड़ के खेल बहुत खेले ,  हरदा ,  भोपाल , दुष्यंत जी की प्रथम पुण्यतिथि पर धर्मयुग में जोशी जी की ग़ज़ल का प्रकाशन ,  इंदौर ,  उज्जैन , दिल्ली  जहां जहां वे रहे वहां के अनुभवों पर प्रश्नोत्तरों को उसी शहर के नाम पर समाहित किया गया है . रचनात्मक योगदान और लेखक व्यंग्यकार हरि जोशी को समझने के लिये हिंदी लेखक खंड , सहित्यकारों से भेंट , विश्व हिंदी सम्मेलन में मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व , गोपाल चतुर्वेदी जी के व्यंग्य में नैरन्तर्य और उत्कृष्टता , मुम्बइया बोली के प्रथम लेखक यज्ञ शर्मा , अज्ञेय जी की वह अविस्मरणीय मुद्रा , वृद्धावस्था और गिरता हुआ स्वास्थ्य , बाबूजी मोजे ठंड दूर नहीं करते, ठिठुराते भी हैं , कोरोना काल "मेरी प्रतिनिधि रचनायें" , वृद्धावस्था के निकट, परिजन संगीत और साहित्य , लंदन , अमेरिका , पिछले दिनों फिर एक तूफानी समस्या ,और अंत में  अमेरिका में मृत्यु पर ऐसा रोना धोना नहीं होता जैसे चैप्टर्स अपने नाम से ही कंटेंट का किंचित परिचय देते हैं . इस बातचीत में साफगोई ,ईमानदारी और सरलता से जीवन की यथावत प्रस्तुति परिलक्षित होती है . 
कभी कभी लगता है कि आम आदमी के हित चिंतन का बहाना करते राजनेता जो जनता के वोट से ही नेता चुने जाते हैं , पर किसी पद पर पहुंचते ही कितने स्वार्थी और बौने हो जाते हैं, जोशी जी ने 1982 में अपने निलंबन का वृतांत लिखते हुए स्पष्ट तत्कालीन मुख्य मंत्री अर्जुनसिह का नाम उजागर करते हुए लिखा है कि तब उन्हे प्रोफेसर कालोनी में सरकारी आवास आवंटित था , उस आवास पर एक विधायक कब्जा चाहते थे , इसलिए जोशी जी की रचना रिहर्सल जारी है को आधार बनाकर उन्होंने मुख्य मंत्री से उनका स्थानांतरण करवाना चाहा, उस रचना में किसी का कोई नाम नहीं था , और पूर्व आधार पर जोशी जी के पास कोर्ट का स्थगन था फिर भी विधायक जी पीछे लगे रहे , और अंततोगत्वा जोशी जी का निलंबन अर्जुन सिंह जी ने कर दिया । पुनः उनकी रचना दांव पर लगी रोटी छपी , विधान सभा में जोशी जी के प्रकरण पर स्थगन प्रस्ताव आया  । अस्तु , अंततोगत्वा जोशी जी की कलम जीती , आज वे सुखी सेवानिवृत जीवन जी रहे हैं। पर उनकी जिंदगी सचमुच बार बार तूफानों से घिरी रही । आत्मकथा के संदर्भ में 
 लिखना चाहता हूं कि यदि इसमें  शहरों , देश,  स्थानों के नाम से चैप्टर्स के विभाजन की अपेक्षा बेहतर साहित्यिक शीर्षक दिये जाते तो आत्मकथा के साहित्यिक स्वरूप में श्रीवृद्धि ही होती . आज के ग्लोबल विलेज युग में हरदा के एक छोटे से गांव से निकले हरि जोशी अपनी  प्रतिभा के बल पर इंजीनियर बने , जीवन में साहित्य लेखन को अपना प्रयोजन बनाया , व्यंग्य के कारण ही उनहें जिंदगी में तूफानों , झंझावातों , थपेड़ों से जूझना पड़ा पर वे बिना हारे अकेले ईमानदारी के बल पर आगे बढ़ते रहे , तीन कविता संग्रह , सोलह व्यंग्य संग्रह , तेरह उपन्यास आज उनके नाम पर हैं , हिन्दी व्यंग्य जगत की ओर से मेरी मंगलभावना है कि यह सूची अनवरत बढ़ती रहे . इन दिनों वे मजे में अपनी सुबहें धार्मिक गीत संगीत से प्रारंभ करते हैं . मैं अक्सर कहा करता हूं कि यदि प्रत्येक दम्पति सुसभ्य संवेदनशील बच्चे ही समाज को दे सके तो यह उसका बड़ा योगदान होता है ,हरि जोशी जी ने सुसंस्कारित सिद्धांत सी तीसरी नई पीढ़ी और अपना ढ़ेर सारा पठनीय साहित्य समाज को  दिया है , वे अनवरत लिखते रहें यही शुभ कामना है . यह आत्मकथा अंतरराष्ट्रीय संदर्भ बने .

विवेक रंजन श्रीवास्तव , ए २३३ , ओल्ड मीनाल , भोपाल 

अमेरिका में रोजमर्रा के अनछुये मुद्दों पर किताब

 पुस्तक काशी काबा दोनो पूरब में हैं जहां से

यात्रा वृत्तांत 

लेखक विवेक रंजन श्रीवास्तव 

प्रकाशक नोशन प्रेस

मूल्य 95 रु

अमेजन पर सुलभ


यात्रा  साहित्य की जननी होती है ,  संस्मरण और यात्रा वृतांत तो सीधे तौर पर यात्राओ का शब्द चित्रण ही हैं . जब पाठक प्रवाहमयी वर्णन शैली में यात्रा वृतांत पढ़ते हैं तो वे लेखक के साथ साथ उस स्थल की यात्रा का आनंद , बिना वहां गये ले सकते हैं जहां का वर्णन किया जाता है . यदि ट्रेवलाग से पाठक की जिज्ञासायें शांत होती हैं तो लेखन सार्थक होता है . यात्रा संस्मरण भौगोलिक दूरियों को कम कर देते हैं . यात्रा संस्मरण एक तरह से समय के ऐतिहासिक साक्ष्य दस्तावेज बन जाते हैं .


अमेरिका यात्रा के रोजमर्रा के ढ़ेर से अनछुये मुद्दों पर इस किताब मे लिखा गया है .  आज जब युवा रोजगार और शिक्षा के लिये लगातार भारत से अमेरिका जा रहे हैं , तब यह किताब ऐसे युवाओ को और उनके पास जाते माता पिता रिश्तेदारों को अमेरिकन जीवन शैली को बेहतर तरीके से समझने में मदद करती है . इस डायरी से अमेरिका के संदर्भ में हिन्दी पाठको का किंचित कौतुहल शांत हो सकेगा ।




 पुस्तक चर्चा



साहबनामा
मुकेश नेमा
पृष्ठ २२४ , मूल्य २२५ रु
मेन्ड्रेक पब्लिकेशन , भोपाल
चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव  ४८२००८

कहा जाता है कि दो स्थानो के बीच दूरी निश्चित होती है . पर जब जब कोई पुल बनता है , कोई सुरंग बनाई जाती है या किसी खाई को पाटकर लहराती सड़क को सीधा किया जा है तब यह दूरी कम हो जाती है . मुकेश नेमा जी का साहबनामा पढ़ा . वे अपनी प्रत्येक रचना में सहज अभिव्यक्ति का पुल बनाकर , दुरूह भाषा के पहाड़ काटकर स्मित हास्य के तंज की सुरंग गढ़ते हैं और बातों बातो में अपने पाठक के चश्मे और अपनी कलम के बीच की खाई पाटकर आड़े टेढ़े विषय को भी पाठक के मन के निकट लाने में सफल हुये हैं .
साहबनामा उनकी पहली किताब है . मेन्ड्रेक पब्लिकेशन , भोपाल ने लाइट वेट पेपर पर बिल्कुल अंग्रेजी उपन्यासो की तरह बेहतरीन प्रिंटिग और बाइंडिग के साथ विश्वस्तरीय किताब प्रस्तुत की है.पुस्तक लाइट वेट है ,  किताब रोजमर्रा के लाइट सबजेक्ट्स समेटे हुये है . लाइट मूड में पढ़े जाने योग्य हैं . लाइट ह्यूमर हैं जो पाठक के बोझिल टाइट मन को लाइट करते हैं . लेखन लाइट स्टाईल में है पर कंटेंट और व्यंग्य वजनदार हैं .
अलटते पलटते किताब को पीछे से पढ़ना शुरू किया था , बैक आउटर कवर पर निबंधात्मक शैली में उन्होने अपना संक्षिप्त परिचय लिखा है , उसे भी जरूर पढ़ियेगा , लिखने की  स्टाईल रोचक है . किताब के आखिरी पन्ने पर उन्होने खूब से आभार व्यक्त किये हैं . किताब पढ़ने के बाद उनकी हिन्दी की अभिव्यक्ति क्षमता समझकर मैं लिखना चाहता हूं कि वे अपने स्कूल के हिन्दी टीचर के प्रति आभार व्यक्त करना भूल गये हैं . जिस सहजता से वे सरल हिन्दी में स्वयं को व्यक्त कर लेते हैं , अपरोक्ष रूप से उस शैली और क्षमता को विकसित करने में उनके बचपन के हिन्दी मास्साब का योगदान मैं समझ सकता हूं .
जिस लेखक की रचनाये फेसबुक से कापी पोस्ट होकर बिना उसके नाम के व्हाट्सअप के सफर तय कर चुकी हों उसकी किताब पर कापीराइट की कठोर चेतावनी पढ़कर तो मैं समीक्षा में भी लेखों के अंश उधृत करने से डर रहा हूं . एक एक्साईज अधिकारी के मन में जिन विषयो को लेकर समय समय पर उथल पुथल होती रही हो उन्हें दफ्तर , परिवार , फिल्मी गीतों , भोजन , व अन्य विषयो के उप शीर्षको क्रमशः साहबनामा में १८ व्यंग्य , पतिनामा में ८ , गीतनामा में १० , स्वादनामा में १० , और संसारनामा में १६ व्यंग्य लेख , इस तरह कुल जमा ६२ छोटे छोटे ,विषय केंद्रित सारगर्भित व्यंग्य लेखो का संग्रह है साहबनामा .
यह लिखकर कि वे कम से कम काम कर सरकारी नौकरी के मजे लूटते हैं , एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी होते हुये भी लेखकीय अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो साहस मुकेश जी ने दिखाया है मैं  उसकी प्रशंसा करता हूं . दुख इस बात का है कि यह आइडिया मुझे अब मिल रहा है जब सेवा पूर्णता की कगार पर हूं  .
किताब के व्यंग्य लेखों की तारीफ में या बड़े आलोचक का स्वांग भरने के लिये व्यंग्य के प्रतिमानो के उदाहरण देकर सच्ची झूठी कमी बेसी निकालना बेकार लगता है . क्योंकि, इस किताब से  लेखक का उद्देश्य स्वयं को परसाई जैसा स्थापित करना नही है . पढ़िये और मजे लीजीये . मुस्कराये बिना आप रह नही पायेंगे इतना तय है . साहबनामा गुदगुदाते व्यंग्य लेखो का संग्रह है .
इस पुस्तक से स्पष्ट है कि फेसबुक का हस्य , मनोरंजन वाला लेखन भी साहित्य का गंभीर हिस्सा बन सकता है . इस प्रवेशिका से अपनी अगली किताबों में  कमजोर के पक्ष में खड़े गंभीर साहित्य के व्यंग्य लेखन की जमीन मुकेश जी ने बना ली है . उनकी कलम संभावनाओ से भरपूर है .
रिकमेंडेड टू रीड वन्स.
 चर्चाकार विवेक रंजन श्रीवास्तव 

Monday 2 September, 2024

धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर

 

धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर
राजेंद्र नागदेव
बोधि प्रकाशन , जयपुर
मूल्य  १५० रु
पृष्ठ १००
चर्चा .... विवेक रंजन श्रीवास्तव , मीनाल रेजीडेंसी , भोपाल
 
राजेंद्र नागदेव एक साथ ही कवि , चित्रकार और पेशे से वास्तुकार हैं .  वे संवेदना के धनी रचनाकार हैं . १९९९ में उनकी पहली पुस्तक सदी के इन अंतिम दिनो में , प्रकाशित हुई थी । उसके बाद से दो एक वर्षो के अंतराल से निरंतर उनके काव्य संग्रह पढ़ने मिलते रहे हैं । उन्होने यात्रा वृत भी लिखा है । वे नई कविता के स्थापित परिपक्व कवि हैं . हमारे समय की राजनैतिक तथा सामाजिक  स्थितियों की विवशता से हम में से प्रत्येक अंतर्मन से क्षुब्ध है . जो राजेंद्र नागदेव जी जैसे सक्षम शब्द सारथी हैं ,  हमारे वे सहयात्री कागजों पर अपने मन की पीड़ा उड़ेल लेते हैं . राहत इंदौरी का एक शेर है
" धूप बहुत है , मौसम ! जल , थल भेजो न . बाबा मेरे नाम का बादल भेजो न "
अपने हिस्से के बादल की तलाश में धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर भटकते "यायावर" को ये कवितायें किंचित सुकून देती हैं । मन का पंखी अंदर की दुनियां में बेआवाज निरंतर बोलता रहता है . "स्मृतियां कभी मरती नहीं" , लम्बी अच्छी कविता है । सभी ३८ कवितायें चुनिंदा हैं . कवि की अभिव्यक्ति का भाव पक्ष प्रबल और अनुभव जन्य है . उनका शब्द संसार सरल पर बड़ा है . कविताओ में टांक टांक कर शब्द नपे तुले गुंथे हुये हैं , जिन्हें विस्थापित नहीं किया जा सकता । एक छोटी कविता है जिज्ञासा ... " कुछ शब्द पड़े हैं कागज पर अस्त व्यस्त , क्या कोई कविता निकली थी यहां से " । संभवतः कल के समय में कागज पर पड़े ये अस्त व्यस्त शब्द भी गुम हो जाने को हैं , क्योंकि मेरे जैसे लेखक अब सीधे कम्प्यूटर पर ही लिख रहे हैं , मेरा हाथ का लिखा ढ़ूढ़ते रह जायेगा समय . वो स्कूल कालेज के दिन अब स्मृति कोष में ही हैं , जब एक रात में उपन्यास चट कर जाता था और रजिस्टर पर उसके नोट्स भी लेता था स्याही वाली कलम से ।
संवेदना हीन होते समाज में लोग मोबाईल पर रिकार्डिंग तो करते हैं , किन्तु मदद को आगे नहीं आते , हाल ही दिल्ली में चलती सड़क किनारे एक युवक द्वारा कथित प्रेमिका की पत्थर मार मार कर की गई हत्या का स्मरण हो आया जब राजेंद्र जी की कविता अस्पताल के बाहर की ये पंक्तियां पढ़ी
" पांच से एक साथ प्राणो की अकेली लड़ाई ..... मरे हुये पानी से भरी , कई जोड़ी आंखें हैं आस पास , बिल्कुल मौन .... किसी मन में खरौंच तक नहीं , आदमी जब मरेगा , तब मरेगा , पत्थर सा निर्विकार खड़ा हर शख्स यहां पहले ही मर गया है । "
राजेंद्र नागदेव की इन कविताओ का साहित्यिक आस्वासादन लेना हो तो खुद आराम से पढ़ियेगा । मैं कुछ शीर्षक बता कर आपकी उत्सुकता जगा देता हूं ... संवाद , बस्ती पर बुलडोजर , दिन कुछ रेखा चित्र , मेरे अंदर समुद्र , मारा गया आदमी , अंधे की लाठी , कवि और कविता , सफर , लहूलुहान पगडंडियां , अतीतजीवी ,  मशीन पर लड़का , जा रहा है साल , कुहासे भरी दुनियां , हिरण जीवन , प्रायश्चित , स्टूडियो में बिल्ली , तश्तरी में टुकड़ा , कोलाज का आत्मकथ्य , टुकड़ों में बंटा आदमी , अंतिम समय में ,जैसे कहीं कुछ नहीं हुआ ,  उत्सव के खण्डहर संग्रह की अंतिम कविता है . मुझे तो हर कविता में ढ़ेरों बिम्ब मिले जो मेरे देखे हुये किन्तु जीवन की आपाधापी में अनदेखे रह गये थे । उन पलों के संवेदना चित्र मैंने इन कविताओ में मजे लेकर जी है .
सामान्यतः किताबों में नामी लेखको की बड़ी बड़ी भूमिकायें होती हैं , पर धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर में सीधे कविताओ के जरिये ही पाठक तक पहुंचने का प्रयास है । बोधि प्रकाशन जयपुर से मायामृग जी कम कीमत में चुनिंदा साहित्य प्रकाशित कर रहे है , उन्होंने राजेंद्र जी की यह किताब छापी है , यह संस्तुति ही जानकार पाठक के लिये पर्याप्त है । खरीदिये , पढ़िये और वैचारिक पीड़ा में साहित्यिक आनंद खोजिये , अर्थहीन होते सामाजिक मूल्यों की किंचित  पुनर्स्थापना  पाठकों के मन में भी हो तो कवि की लेखनी सोद्देश्य सिद्ध होगी ।

चर्चा .... विवेक रंजन श्रीवास्तव ,ए 233, ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी , भोपाल
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लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन

पुस्तक चर्चा
लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन
 व्यंग्य संकलन
व्यंग्यकार  ... रण विजय राव
प्रकाशक .. भावना प्रकाशन , दिल्ली
मूल्य ३२५ रु , पृष्ठ १२८
चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , भोपाल



हमारे परिवेश तथा हमारे क्रिया कलापों का , हमारे सोच विचार और लेखन पर प्रभाव पड़ता ही है . रण विजय राव लोकसभा सचिवालय में सम्पादक हैं .  स्पष्ट समझा जा सकता है कि वे रोजमर्रा के अपने कामकाज में लोकतंत्र के असंपादित नग्न स्वरूप से रूबरू हो रहे हैं . वे जन संचार में पोस्ट ग्रेजुएट विद्वान हैं . उनकी वैचारिक उर्वरा चेतना में रचनात्मक अभिव्यक्ति  की  अपार क्षमता नैसर्गिक है . २९ धारदार सम सामयिक चुटीले व्यंग्य लेखों पर स्वनाम धन्य सुस्थापित प्रतिष्ठित व्यंग्यकार सर्वश्री हरीश नवल , प्रेमजनमेजय , फारूख अफरीदी जी की भूमिका, प्रस्तावना , आवरण टीप के साथ ही समकालीन चर्चित १९ व्यंग्यकारो की प्रतिक्रियायें भी पुस्तक में समाहित हैं . ये सारी समीक्षात्मक टिप्पणियां स्वयमेव ही रण विजय राव के व्यंग्य कर्म की विशद व्याख्यायें हैं . जो एक सर्वथा नये पाठक को भी पुस्तक और लेखक से सरलता से मिलवा देती हैं . यद्यपि रण विजय जी हिन्दी पाठको के लिये कतई नये नहीं हैं , क्योंकि वे सोशल मीडीया में सक्रिय हैं, यू ट्यूबर भी हैं , और यत्र तत्र प्रकाशित होते ही रहते हैं .
  कोई २० बरस पहले मेरा व्यंग्य संग्रह रामभरोसे प्रकाशित हुआ था  , जिसमें मैंने आम भारतीय को राम भरोसे प्रतिपादित किया था . प्रत्येक व्यंग्यकार किंबहुना उन्हीं मनोभावों से दोचार होता है , रण विजय जी रामखिलावन नाम का लोकव्यापीकरण भारत के एक आम नागरिक के रूप में करने में  सफल हुये हैं . दुखद है कि तमाम सरकारो की ढ़ेरों योजनाओ के बाद भी परसाई के भोलाराम का जीव के समय से आज तक इस आम आदमी के आधार भूत हालात बदल नही रहे हैं . इस आम आदमी की बदलती समस्याओ को ढ़ूंढ़ कर अपने समय को रेखांकित करते व्यंग्यकार बस लिखे  जा रहे हैं.
बड़े पते की बातें पढ़ने में आईं है इस पुस्तक में मसलन " जिंदगी के सारे मंहगे सबक सस्ते लोगों से ही सीखे हैं विशेषकर तब जब रामखिलावन नशे में होकर भी नशे में नहीं था . "
"हम सब यथा स्थितिवादी हो गये हैं ,हम मानने लगे हैं कि कुछ भी बदल नहीं सकता "
" अंगूर की बेटी का महत्व तो तब पता चला जब कोरोना काल में मयखाने बंद होने से देश की अर्थव्यवस्था डांवाडोल होने लगी " रण विजय राव का रामखिलावन आनलाइन फ्राड से भी रूबरू होता है , वह सिर पर सपने लादे खाली हाथ गांव लौट पड़ता है . कोरोना काल के घटना क्रम पर बारीक नजर से संवेदनशील , बोधगम्य , सरल भाषाई विन्यास के साथ लेखन किया है , रण विजय जी ने . चैनलो की बिग ब्रेकिंग , एक्सक्लूजिव , सबसे पहले मेरे चैनल पर तीखा तंज किया गया है , रामखेलावन को  लोकतंत्र की मर्यादाओ का जो खयाल आता है , काश वह उलजलूल बहस में देश को उलझाते टी आर पी बढ़ाते चैनलो को होता तो बेहतर होता . प्रत्येक व्यंग्य महज कटाक्ष ही नही करता अंतिम पैरे में वह एक सकारात्मक स्वरूप में पूरा होता है . वे विकास के कथित एनकाउंटर पर लिखते हैं , विकास मरते नहीं ... भाषा से खिलंदड़ी करते हुये वे कोरोना जनित शब्दों प्लाज्मा डोनेशन , कम्युनिटी स्प्रेड जैसी उपमाओ का अच्छा प्रयोग करते हैं . प्रश्नोत्तर शैली में सीधी बात रामखेलावन से किंचित नया कम प्रयुक्त अभिव्यक्ति शैली है . व्हाट्सअप के मायाजाल में आज समाज बुरी तरह उलझ गया है , असंपादित सूचनाओ , फेक न्यूज , अविश्वसनीयता चरम पर है , व्हाट्सअप से दुरुपयोग से समाज को बचाने का उपाय ढ़ूढ़ने की जरूरत हैं. वर्तमान हालात पर यह पैरा पढ़िये " जनता को लोकतंत्र के खतरे का डर दिखाया जाता है , इससे जनता न डरे तो दंगा करा दिया जाता है , एक कौम को दूसरी कौम से डराया जाता है , सरकार विपक्ष के घोटालो से डराती है , डरे नहीं कि गए . " समझते बहुत हैं पर रण विजय राव ने लिखा , अच्छी तरह संप्रेषित भी किया . आप पढ़िये मनन कीजीये .
हिन्दी के पाठको के लिये यह जानना ही किताब की प्रकाशकीय गुणवत्ता के प्रति आश्वस्ति देता है कि लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन ,  भावना प्रकाशन से छपी है .  पुस्तक पठनीय सामग्री के साथ साथ  मुद्रण के स्तर पर भी स्तरीय , त्रुटि रहित है . मैं इसे खरीद कर पढ़ने के लिये अनुशंसित करता हूं .



Saturday 31 August, 2024

बड़ा सामूहिक संकलन

 पुस्तक चर्चा

व्यंग्य का बहुरंगी अब तक का सबसे बड़ा सामूहिक संकलन


२१ वीं सदी के श्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय २५१ व्यंग्यकार  

प्रकाशक.. इण्डिया नेट बुक्स , नोयडा
अमेज़न व फ़्लिपकार्ट पर भी उपलब्ध
संपादन .. डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित

हिन्दी जगत में साझे साहित्यिक संकलनो की प्रारंभिक परम्परा तार सप्तक से शुरू हुई थी . वर्तमान अपठनीयता के युग में साहित्यिक किताबें न्यूनतम संख्या में प्रकाशित हो रही हैं , यद्यपि आज भी व्यंग्य के पाठक बहुतायत में हैं . इस कृति के संपादक द्वय डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित ने व्यंग्य के व्हाट्स अप समूह का सदुपयोग करते हुये यह सर्वथा नवाचारी सफल प्रयोग कर दिखाया है .तकनीक के प्रयोग से  इस वैश्विक व्यंग्य संकलन का प्रकाशन ३ माह के न्यूनतम समय में पूरा हुआ है . नवीनतम हिन्दी साफ्टवेयर के प्रयोग से इस किताब की प्रूफ रीडिंग कम्प्यूटर से ही संपन्न की गई है . किताब भारी डिमांड में है तथा प्रतिभागी लेखको को मात्र ८० रु के कूरियर चार्ज पर घर पहुंचाकर भेंट की जा रही है .   तार सप्तक से प्रारंभ साझा प्रकाशन की परम्परा का अब तक का चरमोत्कर्ष है व्यंग्य का बहुरंगी कलेवर वाला ,अब तक का सबसे बड़ा सामूहिक व्यंग्य संकलन "२१ वीं सदी के श्रेष्ठ २५१ व्यंग्यकार " . ६०० से अधिक पृष्ठों के इस ग्रंथ का शोध महत्व बन गया है . इससे पहले डा राजेश कुमार व डा लालित्य ललित "अब तक ७५ " , व उसके बाद "इक्कीसवीं सदी के १३१ श्रेष्ठ व्यंग्यकार " सामूहिक व्यंग्य संकलनो का संपादन , प्रकाशन भी सफलता पूर्वक कर चुके हैं .  
  व्यंग्य अभिव्यक्ति की एक विशिष्ट विधा है . व्यंग्यकार अपनी दृष्टि से समाज को देखता है और समाज में किस तरह से सुधार हो सके इस हेतु व्यंग्य के माध्यम से विसंगतियां उठाता है . संग्रह की रचनाएं समाज के सभी वर्ग के विविध विषयों का प्रतिनिधित्व करती हैं . एक साथ विश्व के 251 व्यंग्यकारों की रचनाएं एक ही संकलन में सामने आने से पाठकों को एक व्यापक फलक पर वर्तमान व्यंग्य की दशा दिशा का एक साथ अवलोकन करने का सुअवसर मिलता है . व्यंग्य प्रस्तुति में टंकण हेतु केंद्रीय हिन्दी निदेशालय की देवनागरी लिपि तथा हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण के दिशा निर्देश अपनाये गये हैं . रचनाओ के संपादन में आधार भूत मानव मूल्यों , जातिवाद , नारी के प्रति सम्मान , जैसे बिन्दुओ पर गंभीरता से ध्यान रखा गया है , जिससे ग्रंथ शाश्वत महत्व का बन सका है .
"इक्कीसवीं सदी के 251 अंतरराष्ट्रीय श्रेष्ठ व्यंग्यकार" में व्यंग्य के पुरोधा परसाई की नगरी जबलपुर से इंजी विवेक रंजन श्रीवास्तव , इंजी सुरेंद्र सिंह पवार , इंजी राकेश सोहम , श्री रमेश सैनी , श्री जयप्रकाश पाण्डे , श्री रमाकांत ताम्रकार की विभिन्न किंचित दीर्घजीवी विषयों की रचनायें शामिल हैं . मॉरीशस स्थित विश्व हिंदी सचिवालय द्वारा विश्व को पाँच भौगोलिक क्षेत्रो  में बाँटकर अंतरराष्ट्रीय व्यंग्य लेखन प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था . संकलन में इस प्रतियोगिता के विजेताओं में से सभी प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले व्यंग्यकारों कुसुम नैपसिक (अमेरिका),  मधु कुमारी चौरसिया (युनाइटेड किंगडम),  वीणा सिन्हा (नेपाल),  चांदनी रामधनी‘लवना’ (मॉरीशस),  राकेश शर्मा (भारत) जिन्होंने प्रथम पुरस्कार जीते और आस्था नवल (अमेरिका),  धर्मपाल महेंद्र जैन (कनाडा),  रोहित कुमार 'हैप्पी' (न्यूज़ीलैंड),  रीता कौशल (ऑस्ट्रेलिया) की रचनायें भी संकलित हैं . इनके अलावा विदेश से शामिल होने वाले व्यंग्यकार हैं- तेजेन्द्र शर्मा (युनाइटेड किंगडम),  प्रीता व्यास (न्यूज़ीलैंड),  स्नेहा देव (दुबई),  शैलजा सक्सेना,  समीर लाल 'समीर' और हरि कादियानी (कनाडा) एवं हरिहर झा (ऑस्ट्रेलिया)  इस तरह  की भागीदारी से यह संकलन सही मायनों में अंतरराष्ट्रीय संकलन बन गया है.
          भारत से इस संकलन में 19 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के व्यंग्यकारों ने हिस्सेदारी की है.  मध्य प्रदेश के 65 ,उत्तर प्रदेश  के 39 ,  नई दिल्ली  के  32 , राजस्थान के 32,  महाराष्ट्र  के 18 , छत्तीसगढ़  के 12 ,  हिमाचल प्रदेश के 8 , बिहार के 6 , हरियाणा के 4 , चंडीगढ़ के 3 , झारखंड  के 4 , उत्तराखंड के 4 , कर्नाटक के 4,  पंजाब के 2 , पश्चिम बंगाल के 2 , तेलंगाना से 2 , तमिलनाडु से 1 , गोवा से 1 और  जम्मू-कश्मीर से 1 व्यंग्यकारों के व्यंग्य हैं .
     यदि स्त्री और पुरुष लेखकों की बात करें तो इसमें 51 व्यंग्य लेखिकाएँ शामिल हुई हैं. इस बहु-रंगी व्यंग्य संचयन में जहां डॉ सूर्यबाला, हरि जोशी,  हरीश नवल, सुरेश कांत, सूरज प्रकाश, प्रमोद ताम्बट, जवाहर चौधरी, अंजनी चौहान, अनुराग वाजपेयी, अरविंद तिवारी, विवेक रंजन श्रीवास्तव , विनोद साव,शांतिलाल जैन, श्याम सखा श्याम, मुकेश नेमा, सुधाकर अदीब, स्नेहलता पाठक, स्वाति श्वेता, सुनीता शानू जैसे सुस्थापित व चर्चित हस्ताक्षरो के व्यंग्य  भी पढ़ने मिलते हैं, वही नवोदित व्यंग्यकारों  की रचनाएं एक साथ पढ़ने को सुलभ है
संवेदना की व्यापकता , भाव भाषा शैली और अभिव्यक्ति की दृष्टि से व्यंग्य एक विशिष्ट विधा व अभिव्यक्ति का लोकप्रिय माध्यम है . प्रत्येक अखबार संपादकीय पन्नो पर व्यंग्य छापता है . पाठक चटकारे लेकर रुचि पूर्वक व्यंग्य पढ़ते हैं .  इस ग्रंथ में व्यंग्य की विविध शैलियां उभर कर सामने आई है जो शोधार्थियों के लिए निश्चित ही गंभीर शोध और अनुशीलन का विषय होगी . इस महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्य की अनुगूंज हिन्दी साहित्य जगत में हमेशा रहेगी .

-- विवेक रंजन श्रीवास्तव

Friday 30 August, 2024

इन्हीं औरतों की कड़ी हूँ मैं, पारा पारा

 पुस्तकचर्चा 

पारा पारा (उपन्यास )
लेखिका.. प्रत्यक्षा 
राजकमल पेपरबैक्स 
संस्करण २०२२ , मूल्य २५०रु , पृष्ठ २३० 

 "मैं इन्हीं औरतों की कड़ी हूँ

। मुझमें मोहब्बत और भय समुचित मात्रा में है । मैं आज़ाद होना चाहती हूँ, इस शरीर से, इस मन से , मैं सिर्फ़ मैं बनना चाहती  हूँ, अपनी मर्जी की मालिक, अपने फ़ैसले लेने की अधिकारी, चाहे ग़लत हो सही, अपने तरीके से जीवन जीने की आज़ादी । किसी भी शील से परे। किसी में टैग के परे । मैं अच्छी औरत बुरी औरत नहीं बनना चाहती। मैं सिर्फ़ औरत रहना  चाहती हूँ, जीवन शालीनता से जीना चाहती हूँ, दूसरों को दिलदारी और समझ देना चाहती हूँ और उतना ही उनसे लेना चाहती हूँ। मैं नहीं चाहती कि किसी से मुझे शिक्षा मिले, नौकरी मिले, बस में सीट मिले, क्यू में आगे जाने का विशेष अधिकार मिले। मैं देवी नहीं बनना चाहती, त्याग की मूर्ति नहीं बनना चाहती, अबला बेचारी नहीं रहना चाहती। मैं जैसा पोरस ने सिकन्दर को उसके प्रश्न “तुम मुझसे कैसे व्यवहार की अपेक्षा रखते हो" के जवाब में कहा था, "वैसा ही जैसे एक राजा किसी दूसरे राजा के साथ रखता है, " बस ठीक वैसा ही व्यवहार मेरी आकांक्षाओं में है, जैसे एक पुरुष दूसरे पुरुष के साथ रखता है जैसे एक स्त्री दूसरी स्त्री के साथ रखती है, जैसे एक इनसान किसी दूसरे इनसान के साथ पूरी मानवीयता में रखता है।मैं दिन-रात कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहती। मैं दिन-रात अपने को साबित करते रहने की जद्दोजहद में नहीं गुजारना चाहती। मैं अपना जीवन सार्थक तरीक़े से अपने लिए बिताना चाहती हूँ, एक परिपूर्ण जीवन जहाँ परिवार के अलावा ख़ुद के अन्तरलोक में कोई ऐसी समझ और उससे उपजे सुख की नदी बहती हो,  कि जब अन्त आए तो लगे कि समय जाया नहीं किया, कि ऊर्जा व्यर्थ नहीं की, कि जीवन जिया।मैं प्रगतिशील कहलाने के लिए पश्चिमी कपड़े पहनूँ, गाड़ी चलाऊँ, सिगरेट शराब पियूं देर रत आवारागर्दी करुं  ऐसे स्टीरियो टाइप में नहीं फसंना चाहती। “     … पारा पारा से ही 

न्यूयार्क में भारतीय एम्बेसी  में  प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन और झिलमिल-अमेरिका द्वारा आयोजित कार्यक्रम में अनूप भार्गव Anoop Bhargava जी के सौजन्य से पारा पारा की लेखिका प्रत्यक्षा Pratyaksha जी से साक्षात्कार करने का सुअवसर मिला।  नव प्रकाशित पारा पारा पर केंद्रित आयोजन था. पारा पारा पर तो  बातचीत  हुई ही  ब्लॉगिंग के प्रारम्भिक दिनो से शुरू हो कर  प्रत्यक्षा के कविता लेखन , चित्रकारी ,  कहानियों और उनके पिछले उपन्यासो पर भी चर्चा की।  समीक्षा के लिए   प्रभा खेतान फ़ाउंडेशन के सौजन्य से पारा पारा की प्रति प्राप्त हुई। मैनें पूरी किताब पढ़ने का मजा  लिया।  मजा इसलिए लिख  रहा हूँ क्योंकि  प्रत्यक्षा की भाषा में कविता है।  उनके वाक्य विन्यास , गद्य व्याकरण की परिधि से मुक्त हैं।  स्त्री विमर्श पर मैं लम्बे समय से लिख  पढ़ रहा हूँ , पारा पारा में लेखिका ने शताब्दियों का नारी विमर्श , इतिहास , भूगोल , सामाजिक सन्दर्भ , वैज्ञानिकता , आधुनिकता ,हस्त लिखित चिट्ठियो से  ईमेल तक सब कुछ काव्य की तरह सीमित शब्दों में समेटने में सफलता पाई है। उनका अध्ययन , अनुभव , ज्ञान परिपक्व है।  वे विदेश भ्रमण के संस्मरण , संस्कृत , संस्कृति , अंग्रेजी , साहित्य , कला सब कुछ मिला जुला अपनी ही स्टाइल में पन्ने दर पन्ने बुनती चलती हैं।    उपन्यास के कथानक तथा  कथ्य मे  पाठक वैचारिक स्तर पर कुछ इस तरह घूमता , डूबता  उतरता रहता है , मानो हेलोवीन में  घर के सामने सजाये गए मकड़ी के जाले में फंसी मकड़ी हो।  उपन्यास का भाषाई प्रवाह , कविता की ठंडी हवा के थपेड़े देता पाठक के सारे बौद्धिक वैचारिक द्वन्द को पात्रों के साथ सोचने समझने को उलझाता भी है तो धूप का एक टुकड़ा नई वैचारिक रौशनी देता है , जिसमे स्त्री वस्तु नहीं बनना चाहती , वह आरक्षण की कृपा नहीं चाहती , वह सिर्फ स्त्री होना चाहती है । स्त्री विमर्श पर पारा पारा एक सशक्त उपन्यास बन पड़ा है। यह उपन्यास एक वैश्विक  परिदृश्य उपस्थित करता है।  इसमें १८७४ का वर्णन है तो आज के ईमेल वाले ज़माने का भी।  स्त्री की निजता के सामान  टेम्पून का वर्णन है तो रायबहादुर की लीलावती के जमाने और बालिका वधु नन्ना का भी। रचना में कथा , उपकथा , कथ्य ,वर्णन , चरित्र , हीरो , हीरोइन, रचना विन्यास , आदि उपन्यास के सारे तत्व प्रखरता से  मौजूद मिलते हैं। प्रयोगधर्मिता है शैली , में और अभिव्यक्ति में, लेखन की स्टाइल में भाषा और बुनावट में ।

मैंने उपन्यास पढ़ते हुए कुछ अंश अपने पाठको के लिए अंडरलाइन किये हैं जिन्हें यथावत नीचे उदृत कर रहा हूँ।  
“..... और इस तरह वो माँ पहले बनीं, बीवी बनने की बारी तो बहुत बाद में आई । विवाह के तुरंत बाद किसी ज़रूरी मुहिम पर राय बहादुर निकल गए थे। किसी बड़ी ने बताया था किस तरह रोता बालक बहू की गोद में चुपा गया था। इस बात की आश्वस्ति पर तसल्ली कर वो निकल पड़े थे। घर में मालकिन है इस बात की तसल्ली।”
 
“...... एक बार उसने मुझे कहा था-
 
 "To take a photograph is to align the head, the eye and the heart. It's a way of life." वो सपने में हमेशा मुस्कुराते दिखते हैं। तस्वीरों में नहीं।
 
 अच्छी तस्वीर लेना उम्दा ज़िन्दगी जीने जैसा है दिल-दिमाग़ और आँख सब एक सुर में...वो सपने में ऐसे ही दिखते हैं। हँसते हुए भी नहीं, उदास भी नहीं और थोड़ा गहरे सोचने पर, शायद मुस्कुराते हुए भी नहीं । “
 
इन पैराग्राफ्स मे आप देख सकते हैं कि प्रत्यक्षा के वाक्य गद्य कविता  हैं।  उनकी अभिव्यक्ति में नाटकीयता है , लेखन  हिंदी अंग्रेजी सम्मिश्रित है।  
 
इसी तरह ये अंश पढ़िए। … 
 
“ मैं निपट अकेली अपने भारी-भरकम बड़े सूटकेस और डफल बैग के साथ सुनसान स्टेशन पर अकेली रह गई थी, हिचकिचाहट दुविधा और घबड़ाहट में।
 लम्बी फ़्लाइट ने मुझे थका डाला था और रात के ग्यारह बज रहे थे। सामान मेरे पैरों के सामने पड़ा था और मुझे आगे क्या करना है की कोई ख़बर न थी। मैं जैसे गुम गई थी। अनजान जगह, अनजान भाषा किस शिद्दत से अपने घर होना चाहती थी अपने कमरे में। एक पल को मैंने आँखें मूँद ली थीं। अफ्रीकी मूल के दो लड़के मिनियेचर एफिल टावर बेच रहे थे, की-रिंग और बॉटल ओपनर और तमाम ऐसी अल्लम-गल्लम चीजें जो टूरिस्ट न चाहते हुए भी यादगारी के लिए ख़रीद लेते हैं। अचानक मुझे किसी दोस्त की चेतावनी याद आई, ऐसे और वैसे लोगों से दूर रहना, ठग ली जाओगी। या रास्ते की जानकारियाँ सिर्फ़ बूढ़ी औरतों से पूछना और अपने वॉलेट और पासपोर्ट को पाउच में कपड़ों में छुपाकर चलना । मैं यहाँ अनाथ थी। कोई अपना न था, मेरे सर पर कोई छत न थी। “
 
भले ही प्रत्यक्षा  ने पारा पारा को हीरा , तारा , लीलावती , कुसुमलता , भुवन , जितेन , निर्मल , तारिक , नैन , अनुसूया वगैरह कई कई पात्रों  के माध्यम से बुना है , और  हीरा उपनयास की मुख्य पात्र हैं।  पर जितना मैंने प्रत्यक्षा को  थोड़ा बहुत समझा है मुझे लगता है कि  यह उनकी स्वयं की कहानी भले ही न हो पर पात्रों  की अभिव्यक्ति मे वे खुद पूरी तरह अधिरोपित हैं।  उनके  व्यक्तिगत अनुभव् ही उपन्यास  के पात्रों के माध्यम से सफलता पूर्वक सार्वजनिक हुए हैं।  लेखिका के विचारों का , उनके अंतरमन  का ऐसा साहित्यिक लोकव्यापीकरण ही रचनाकार की सफलता है. 
उपन्यास के चैप्टर्स पात्रों  के अनुभव विशेष पर हैं। मसलन “ दुनिया टेढ़ी खड़ी और मैं बस उसे सीधा करना चाहती थी। .. हीरा  “ या   “ नील रतन  नीलांजना.. नैन “  . स्वाभाविक है कि उपन्यास कई सिटिग में रचा गया होगा, जो गहराई से पढ़ने पर समझ आता है . 
पुराने समय मे ग्रामीण परिवेश में खटमल , बिच्छू , जोंक , वगैरह प्राणी उसी तरह घरों में मिल जाते थे जैसे आज मच्छर या मख्खी , एक प्रसंग में वे लिखती हैं “ तुम्हारे पापा का नसीब अच्छा था , बिच्छू पाजामें से फिसलता जमीं पर आ गिरा “ यह उदृत करने का आशय मात्र इतना है की प्रत्यक्षा का आब्जर्वेशन और उसे उपन्यास के हिस्से के रूप मे पुनर्प्रस्तुत करने का उनका सामर्थ्य परिपक्वता से मुखरित हुआ है।  १९९२ के बावरी विध्वंस पर लिखते हुये एक ऐतिहासिक चूक लेखिका से हुई है वे लिखती हैं की हजारों लोग इस हिंसा कि बलि चढ़ गए जबकि यह आन रिकार्ड है की बावरी विध्वंस के दौरान १७ लोग मारे गए थे , हजारों तो कतई नहीं। 
 
मैं उपन्यास का कथा सार बिलकुल उजागर नहीं करूंगा , बल्कि मैं चाहूंगा कि आप पारा पारा खरीदें और स्वयं पढ़ें।  मुझे भरोसा है एक बार मन लगा तो आप समूचा उपन्यास पढ़कर ही दम लेंगे , प्रेम त्रिकोण में नारी मन की मुखरता से नए वैचारिक सूत्र खोजिये।  नारी विमर्श पर बेहतरीन किताब बड़े दिनों में आई है और इसे आपको पढ़ना चाहिए। 

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल
वर्तमान मे 
न्यूजर्सी अमेरिका