Friday 13 September, 2024

व्यंग्य संग्रह ... नौकरी धूप सेंकने की

 

पुस्तक चर्चा
व्यंग्य संग्रह ... नौकरी धूप सेंकने की


लेखक ..सुदर्शन सोनी , भोपाल
प्रकाशक ...आईसेक्ट पब्लीकेशन , भोपाल
पृष्ठ ..२२४ , मूल्य २५० रु

चर्चाकार ...विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए २३३ . ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी , भोपाल , ४६२०२३

  धूप से शरीर में विटामिन-D बनता है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की मानें, तो विटामिन डी प्राप्त करने के लिए सुबह 11 से 2 बजे के बीच धूप सबसे अधिक लाभकारी होती है। यह दिमाग को हेल्दी बनाती है और इम्यून सिस्टम को मजबूत करती है। आयुर्वेद के अनुसार, शरीर में पाचन का कार्य जठराग्नि द्वारा किया जाता है, जिसका मुख्य स्रोत सूर्य है। दोपहर में सूर्य अपने चरम पर होता है और उस समय तुलनात्मक रूप से जठराग्नि भी सक्रिय होती है। इस समय का भोजन अच्छी तरह से पचता है। सरकारी कर्मचारी जीवन में जो कुछ करते हैं , वह सरकार के लिये ही करते हैं । इस तरह से यदि तन मन स्वस्थ रखने के लिये वे नौकरी के समय में धूप सेंकतें हैं तो वह भी सरकारी काम ही हुआ , और इसमें किसी को कोई एतराज  नहीं होना चाहिये । सुदर्शन सोनी सरकारी अमले के आला अधिकारी रहे हैं , और उन्होंने धूप सेंकने की नौकरी को बहुत पास से , सरकारी तंत्र के भीतर से समझा है । व्यंग्य उनके खून में प्रवाहमान है , वे पांच व्यंग्य संग्रह साहित्य जगत को दे चुके हैं , व्यंग्य केंद्रित संस्था व्यंग्य भोजपाल चलाते हैं । वह सब जो उन्होने जीवन भर अनुभव किया समय समय पर व्यंग्य लेखों के रूप में स्वभावतः निसृत होता रहा । लेखकीय में उन्होंने स्वयं लिखा है " इस संग्रह की मेरी ५१ प्रतिनिधि रचनायें हैं जो मुझे काफी प्रिय हैं " । किसी भी रचना का सर्वोत्तम समीक्षक लेखक स्वयं ही होता है , इसलिये सुदर्शन सोनी की इस लेखकीय अभिव्यक्ति को "नौकरी धूप सेंकने की" व्यंग्य संग्रह का यू एस पी कहा जाना चाहिये । सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने किताब की भूमिका में लिखा है " सरकारी कर्मचारी धूप सेंक रहे हैं , दफ्तर ठप हैं , पर सरकार चल रही है , पब्लिक परेशान है । सरकार चलाने वाले चालू हैं वे काम के वक्त धूप सेंकते हैं । "
मैंने "नौकरी धूप सेंकने की" को पहले ई बुक के स्वरूप में पढ़ा , फिर लगा कि इसे तो फुरसत से आड़े टेढ़े लेटकर पढ़ने में मजा आयेगा तो किताब के रूप में लाकर पढ़ा । पढ़ता गया , रुचि बढ़ती गई और देर रात तक सारे व्यंग्य पढ़ ही डाले । लुप्त राष्ट्रीय आयटम बनाम नये राष्ट्रीय प्रतीक , व्यवस्था का मैक्रोस्कोप , भ्रष्टाचार का नख-शिख वर्णन , साधने की कला , गरीबी तेरा उपकार हम नहीं भूल पाएंगे , मेवा निवृत्ति , बाढ़ के फायदे , मीटिंग अधिकारी , नौकरी धूप सेकने की , सरकार के मार्ग , डिजिटाईजेशन और बड़े बाबू ,   एक अदद नाले के अधिकार क्षेत्र का विमर्श आदि अनुभूत सारकारी तंत्र की मारक रचनायें हैं । टीकाकरण से पहले कोचिंगकरण  से लेखक की व्यंग्य कल्पना की बानगी उधृत है " कुछ ऐसे भी लोग होंगे जो अजन्मे बच्चे की कोचिंग की व्यवस्था कर लेंगे " । लिखते रहने के लिये पढ़ते रहना जरूरी होता है , सुदर्शन जी पढ़ाकू हैं , और मौके पर अपने पढ़े का प्रयोग व्यंग्य की धार बनाने में करते हैं , आओ नरेगा-नरेगा खेलें  में वे लिखते हैं " ये ऐसा ही प्रश्न है जेसे फ्रांस की राजकुमारी ने फ्रासीसी क्रांति के समय कहा कि रोटी नहीं है तो ये केक क्यों नहीं खाते ?  "सर्वोच्च प्राथमिकता" सरकारी फाइलों की अनिवार्य तैग लाइन होती है , उस पर वे तीक्षण प्रहार करते हुये लिखते हैं कि सर्वोच्च प्राथमिकता रहना तो चाहती है सुशासन , रोजगार , समृद्धि , विकास के साथ पर व्यवस्था पूछे तो । व्यंग्य लेखों की भाषा को अलंकारिक या क्लिष्ट बनाकर सुदर्शन आम पाठक से दूर नहीं जाना चाहते , यही उनका अभिव्यक्ति कौशल है ।  
अगले जनम हमें मिडिल क्लास न कीजो , अनेक पतियों को एक नेक सलाह , हर नुक्कड़ पर एक पान व एक दांतों की दुकान ,महँगाई का शुक्ल पक्ष, अखबार का भविष्यफल,  आक्रोश जोन , पतियों का एक्सचेंज ऑफर , पत्नी के सात मूलभूत अधिकार , शर्म का शर्मसार होना वगैरह वे व्यंग्य हैं जो आफिस आते जाते उनकी पैनी दृष्टि से गुजरी सामाजिक विसंगतियों को लक्ष्य कर रचे गये हैं । वे पहले अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो व्यंग्य संग्रह लिख चुके हैं । डोडो का पॉटी संस्कार , जेनरेशन गैप इन कुत्तापालन इससंग्रह में उनकी पसंद के व्यंग्य हैं । अपनी साहित्यिक जमात पर भी उनके कटाक्ष कई लेखों में मिलते हैं उदाहरण स्वरूप एक पुरस्कार समारोह की झलकियां , ये भी गौरवान्वित हुए  , साहित्य की नगदी फसलें , श्रोता प्रोत्साहन योजना , वर्गीकरण साहित्यकारों का : एक तुच्छ प्रयास , सम्मानों की धुंध , आदि व्यंग्य अपने शीर्षक से ही अपनी कथा वस्तु का किंचित प्रागट्य कर रहे हैं ।
एक वोटर के हसीन सपने में वे फ्री बीज पर गहरा कटाक्ष करते हुये लिखते हैं " अब हमें कोई कार्य करने की जरूरत नहीं है वोट देना ही सबसे बड़ा कर्म है हमारे पास "  । संग्रह की प्रत्येक रचना लक्ष्यभेदी है । किताब पैसा वसूल है । पढ़ें और आनंद लें । किताब का अंतिम व्यंग्य है मीटिंग अधिकारी और अंतिम वाक्य है कि जब सत्कार अधिकारी हो सकता है तो मीटिंग अधिकारी क्यों नहीं हो सकता ? ऐसा हो तो बाकी लोग मीटिंग की चिंता से मुक्त होकर काम कर सकेंगे । काश इसे व्यंग्य नहीं अमिधा में ही समझा जाये , औेर वास्तव में काम हों केवल मीटिंग नहीं ।
विवेक रंजन श्रीवास्तव



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