Thursday 5 September, 2024

पाठक के मन में नई उर्जा का संचार करती कवितायें ...

 



अपराजिता
नई कविता संग्रह
डा संजीव कुमार
बोधि प्रकाशन , जयपुर
मूल्य १२० रु , पृष्ठ १४०
चर्चा ... विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल
  नई कविता प्रयोगवादी कविता है । भोगे हुये यथार्थ की चमत्कारिक शब्द अभिव्यक्ति है। नई कविता परिस्थितियों की उपज है। नई कविता भाव प्रधान है । अपराजिता में नई कविता के ये सारे प्रतिमान डा संजीव कुमार ने प्रतिष्ठित करने में सफल अभिव्यक्ति की है।  शहरी संघर्ष जिसमे कुंठा, घुटन, असमानता, और सपने हैं इन कविताओ में दृष्टव्य हैं । आज डा संजीव कुमार स्वयं इंडिया नेटबुक्स जैसे वैश्विक साहित्यिक संस्थान के मालिक हैं किन्तु वर्ष २०१७ में उनकी स्वयं की यह कृति जयपुर के सुप्रतिष्ठित संस्थान बोधि प्रकाशन से छपी है । बोधि ने हमेशा से प्रकाशन पूर्व रचनाओ का साहित्यिक मूल्यांकन गंभीरता से किया अतः प्रथम दृष्ट्या पाठक स्तरीय रचना की आश्वस्ति के साथ किताब उठाता है । सारी कवितायें पढ़ने के बाद मेरा अभिमत है कि शिल्प और भाव , साहित्यिक सौंदर्य-बोध , प्रयोगों मे किंचित नवीनता , अनुभूतियों के चित्रण , संवेदनशीलता और बिम्ब के प्रयोगों से डा संजीव कुमार ने अपराजिता को नई कविता के अनेक संग्रहों में विशिष्ट बनाया है ।
जीवन की व्याख्या को लेकर कई रचनायें अनुभव जन्य हैं । उदाहरण के लिये "हमारे सपने" , रास्ता खोज रहे हैं , जीवन पथ में , जीवन की आशा , जिंदगी क्या चाहती है , कैसा होगा अंत , जीवन और मरण के प्रश्न , आत्मा बोलती है ,कहां मिलता भगवान , विभ्रम ही विभ्रम आदि रचनायें कवि की उसी दार्शनिक सोच की परिचायक हैं जिनमें जीवन के गूढ़ रहस्यों की समझ को व्यक्त कर लोकव्यापी बनाया गया है ।
संग्रह का शीर्षक अपराजिता है । "मैं हूं अपराजिता" , "कौन होगी अपराजिता" तथा "अपराजिता" शीर्षको से तीन रचनायें भी संग्रह का हिस्सा हैं । डा संजीव का तत्सम शब्द संसार भव्य है । कहन की उनकी शैली व्यापक कैनवास पर भाव चित्र बनाती है । वे अपने नवीन दृष्टिकोण से सौंदर्य-छवियाँ अभिचित्रित करते चलते हैं ।
अपराजिता से उधृत है ... आकाश के जिस छोर से तुम मुझे आवाज देते हो , मैं वहां पहुंच जाता हूं , .... किंतु तुम्हारा शुभ्र ज्योत्सना का यह तन , नहीं आता मेरे पारिम्भ में ... तुम भले साकार न हो , पर साकार हे संगीत ... तुम अपने हाथों से रोक नहीं सकते उसे , यही मेरी विजय और तुम्हारी हार है , मेरी आत्मा अपराजिता ।
एक अन्य कविता से ...
मुझे आता है शिशु की तरह हार को जीत में बदलना
गिरकर , उठकर फिर चलना
इसीलिये मैं हूं
अपराजिता
प्रकृति तथा जीवन का चित्रण  रंग, स्पर्श, ध्वनि आदि पर आधारित बिम्बों के द्वारा, नई नई उपमाओ  के माध्यम से उपमित करते हुये वे अपने अनुभव लिखते हैं ...
हमारे पैरों से लिपटकर
लहरें कितना प्यार करती थीं
कितना खुस होती थीं मछलियां
आँख मिचौनी खेलती थीं
नदी में अब केवल जलकुंभी है
और हमारे पैर नदी से बाहर

वे मस्ती में जीने के लिये अपने सपने खुद बुनने में भरोसा करते हैं ।
दूर करो मन के भय
ये बोल के जियो
हमें मस्ती में रहने दो

संग्रह की रचनायें पाठक के मन में ऐसी नई उर्जा का संचार करने में सफल हुई हैं । 

विवेक रंजन श्रीवास्तव

No comments: