Saturday, 20 December 2025

बाल कहानी रिया

 रिया और वह अदृश्य बोझ


विवेक रंजन श्रीवास्तव 


रिया के घर में परीक्षाओं का मौसम एक अजीब सन्नाटा ले आता था। जहाँ दूसरे बच्चे कापियों और किताबों में खोए रहते, वहीं रिया के लिए यह समय एक अदृश्य बोझ को ढोने जैसा था। पिछली बार जब वह परीक्षा हॉल के बाहर बेहोश हो गई थी, तब से उसकी माँ की चिंताएँ उसके सिरदर्द से भी बड़ी हो गई थीं।


परीक्षा से एक रात पहले, जब रिया की माँ ने उसके कमरे में देखा, तो वह किताबों के बीच सिर दबाए बैठी थी। "माँ, मेरा सिर..." रिया की आवाज़ मोमबत्ती की लौ जैसी कांप रही थी। पिछली परीक्षा के वक्त भी ऐसा ही हुआ था। डॉक्टर ने चेकअप कर कहा था कि सब कुछ ठीक है, फिर भी यह 'बीमारी' हर परीक्षा के समय वापस आ जाती थी।


अगली सुबह, मां खुद रिया को लेकर स्कूल गईं, और स्कूल की काउंसलर मिस प्रीति से मिलीं। उन्होंने रिया को अपने कमरे में बुलाया। उनका कमरा रंग-बिरंगी किताबों और बच्चों के बनाए चित्रों से भरा हुआ था। "रिया, क्या तुमने कभी ध्यान दिया कि तुम्हारा सिरदर्द कब शुरू होता है?" मिस प्रीति ने पूछा।


रिया ने सोचा, "जब... जब मैं याद करने की कोशिश करती हूँ और शब्द मेरे दिमाग में नहीं आते।"

"और तब तुम क्या सोचती हो?"

"मैं सोचती हूँ कि कक्षा में सब मुझसे बेहतर हैं। मैं अकेली हूँ जो इतना डरती हूं।"


मिस प्रीति मुस्कुराईं। "तुम अकेली नहीं हो, रिया। तुम्हारा शरीर तुम्हारे डर को सुन रहा होता है। जब डर बड़ा हो जाता है, तो शरीर रास्ता ढूँढ़ता है और बीमार होने का बहाना बनाता है।" यह सब सुनना रिया की मम्मी को कुछ अचंभित कर रहा था। 


प्रीति मैडम ने रिया को एक सेब दिया और कहा, "इसे देखो। बाहर से तो सही दिखता है, न?" रिया ने हाँ में सिर हिलाया। "लेकिन अगर इसे बहुत जोर से पकड़ो..." मिस प्रीति ने सेब को हल्का सा दबाया, "...तो अंदर से यह टूटने लगता है। तुम्हारा डर भी ऐसा ही है। दिखता नहीं, पर अंदर से तुम पर दबाव बना रहा है।"


अगले एक हफ्ते तक, रिया और मिस प्रीति ने मिलकर काम किया। उन्होंने एक 'डर का डिब्बा' बनाया , एक छोटा सा कार्डबोर्ड बॉक्स जिसमें रिया अपनी चिंताएँ लिखकर डाल सकती थी। "जब डर कागज पर आ जाता है, तो वह तुम पर हावी नहीं रहता," मिस प्रीति ने समझाया।

सबसे कठिन सबक था साँसों का खेल। "जब लगे कि सब कुछ भूल रही हो, तो तीन गहरी साँसें लो," मिस प्रीति ने सिखाया। "पहली साँस में कहो 'मैं', दूसरी में 'यह कर सकती हूँ', और तीसरी में 'अपनी रफ़्तार से'।"

अगली परीक्षा का दिन आया। जब प्रश्न-पत्र सामने आया, तो रिया का दिल तेजी से धड़कने लगा। वही पुराना डर वापस आ रहा था। तभी उसे मिस प्रीति के सबक याद आ गए। उसने आँखें बंद कीं।


एक गहरी साँस... "मैं..."

दूसरी साँस... "यह कर सकती हूँ..."

तीसरी साँस... "अपनी रफ़्तार से..."


जब उसने आँखें खोलीं, तो डर थोड़ा कम हो चुका था। उसने पहला प्रश्न पढ़ा। वह जानती थी कि उत्तर उसके दिमाग में कहीं है, बस उसे ढूँढ़ने की जरूरत है। पहले दस मिनट कठिन थे, लेकिन धीरे धीरे शब्द कापी पर उतरने लगे।


परीक्षा समाप्त हुई तो रिया ने महसूस किया कि उसका सिर हल्का था। कोई दर्द नहीं। बाहर आकर उसने अपनी माँ को गले लगाया। "माँ, मैंने कर लिया! और मेरा सिरदर्द भी नहीं हुआ।"


उस शाम, रिया ने अपने 'डर के डिब्बे' में एक नया नोट डाला: "आज मैंने जाना कि डर मुझे नहीं, बल्कि मैं डर को नियंत्रित कर सकती हूँ।"


मिस प्रीति ने अगले दिन कक्षा में सभी बच्चों से कहा "याद रखो, परीक्षाएँ तुम्हारी काबिलियत हीननहीं मापतीं। वे यह भी देखती हैं कि तुमने क्या सीखा। और सीखना तो हर गलती के साथ नया होता है।"


रिया ने उस दिन जाना कि तैयारी किताबों से ज्यादा दिल में होती है। और सबसे बड़ी जीत नंबरों में नहीं, बल्कि उस डर पर विजय में होती है जो हमें अपने आप से दूर कर देता है।


विवेक रंजन श्रीवास्तव 

न्यूयार्क

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