आतंक के परिप्रेक्ष्य में धर्मनिरपेक्षता की वैश्विक आवश्यकता
विवेक रंजन श्रीवास्तव, न्यूयॉर्क से
आतंकवाद आज केवल किसी देश या समुदाय की समस्या नहीं, बल्कि पूरी मानवता की सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है। 2020 के बाद से विश्व ने देखा कि जब एक विचारधारा धार्मिक पहचान के आवरण में हिंसा को वैध ठहराने लगती है, तो सभ्यता का आधार ही खतरे में पड़ जाता है। ओपेक देश मात्र धर्म के आधार पर एक वैश्विक संगठन बना कर वैधानिक विश्व शक्ति बने हुए हैं।
2023–25 के बीच इस्लामिक स्टेट (ISIS–K), बोको हराम, और तालिबान समर्थित गुटों ने अफ्रीका, पश्चिम एशिया और यूरोप में नई सक्रियता दिखाई। इसी अवधि में सीरिया, सोमालिया, नाइजीरिया और पाकिस्तान में 70% से अधिक बड़े आतंकवादी हमले दर्ज हुए। ऑस्ट्रेलिया में यहूदी संस्थानों पर हमले, फ्रांस में चर्चों पर हिंसा, और दक्षिण एशिया में धार्मिक नफरत पर आधारित दंगों ने यह सिद्ध किया कि धार्मिक कट्टरता की आग सीमाएं नहीं मानती।
2001 का 9/11 हमला, 2008 का मुंबई 26/11, और 2015 का पेरिस बैटाक्लान नरसंहार पहले ही इस प्रवृत्ति का धार्मिक चेहरा उजागर कर चुके हैं। 2025 की शुरुआत में न्यूज़ीलैंड और इंडोनेशिया में आतंकी घटनाओं ने चेताया कि यह चुनौती केवल किसी एक देश की नहीं, बल्कि उस मानसिकता की है जो धर्म को राजनीतिक और वित्तीय लाभ का उपकरण बना देती है। संस्था गत, मिल्ट्री या स्टेट के समर्थन के साथ आतंक सभ्य दुनियां के लिए काला धब्बा है। धर्म के आधार पर चुनावी राजनीति , तुष्टिकरण समाज पर बदनुमा दाग है। आंकड़े बताते हैं कि कट्टरपंथी सोच ड्रग्स , या अपराध के जरिए आसान धन कमाने से बाज नहीं आती। धार्मिक आधार पर एक दूसरे का समर्थन समाज को टुकड़ों में विघटित करता है। भारत विभाजन इसी का उदाहरण है।
जांच एजेंसियों और संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टें बताती हैं कि कई आतंकी नेटवर्क अब भी राज्य प्रायोजित संरचनाओं से लाभ लेते हैं। पाकिस्तान की आईएसआई पर 26/11 के बाद से अंतरराष्ट्रीय निगरानी बनी हुई है, पर पर्याप्त कार्रवाई का अभाव आतंक को पनाह देता है। 2024 की यू एन ओ की काउंटर टेररिज्म रिपोर्ट में बताया गया है कि ऑनलाइन कट्टरपंथी प्रचार, क्रिप्टोकरेंसी से आतंक वादी फंडिंग और “लोन वुल्फ” हमलों का वैश्विक खतरा तेजी से बढ़ा है।
भारत ने इन चुनौतियों से निर्णायक संघर्ष की नीति अपनाई है। आतंक पर जीरो टॉलरेंस नीति के तहत, एनआईए और प्रवर्तन निदेशालय ने आतंक फंडिंग नेटवर्क पर प्रहार किया। 2025 का “ऑपरेशन सिंदूर”, जिसमें पीओके के आतंकी शिविरों को सटीक हमलों से ध्वस्त किया गया, ने भारत की सुरक्षा नीति की वैश्विक पहचान बनाई। आतंक के विरुद्ध कूटनीतिक मोर्चे पर भारत को अमेरिका, फ्रांस और जापान जैसे देशों का समर्थन मिला।
फिर भी प्रश्न बना हुआ है क्या केवल सैन्य शक्ति आतंक का स्थायी समाधान दे सकती है? जवाब सरल और स्पष्ट है नहीं।
आतंकवाद का मूल उन विचारों में है जो असहिष्णुता और धार्मिक श्रेष्ठता की भावना से पोषित होते हैं। जब समाजों की शिक्षा, संस्कृति और राजनीति से बहुलता और समानता की भावना लुप्त होती है, तब आतंक जैसी विचारधाराएँ पनपती हैं।
इसीलिए आज की दुनिया को आवश्यकता है एक वैश्विक धर्मनिरपेक्ष चेतना की , जो यह माने कि धर्म का उद्देश्य विभाजन नहीं, मानवता की सुरक्षा है। धर्मनिरपेक्षता का यह दृष्टिकोण न केवल राजनीति बल्कि शिक्षा, मीडिया और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में परिलक्षित होना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र को भी अपनी आतंक रोधी रणनीतियों में “धार्मिक सुधार, संवाद और सहिष्णुता शिक्षा” को प्रमुख स्तंभ बनाना चाहिए।
दुनिया तभी आतंक से मुक्त हो सकेगी जब हर देश यह स्वीकार करे कि ईश्वर के अनेक नाम हो सकते हैं, पर मनुष्य मात्र की नैसर्गिक मानवीय गरिमा एक ही है। आतंक की जड़ों को काटने के लिए सिर्फ हथियार नहीं, बल्कि विचारों की पवित्रता और धर्मनिरपेक्षता की शक्ति चाहिए। यही धर्म निरपेक्षता वैश्विक शांति का एकमात्र स्थाई मार्ग है।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
न्यूयॉर्क से
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