पंद्रह करोड़ की किताब
विवेक रंजन श्रीवास्तव
शहर के भव्य ऑडिटोरियम में काँच के केस में बंद एक अद्भुत किताब प्रदर्शित की गई थी। लेखकीय घोषणा थी कि इसमें ब्रह्म ज्ञान लिखा है । इसकी कीमत 15 करोड़ है। प्रकाशक ने आकर्षण के लिए नीलामी आयोजित की थी । ये सच है कि ज्ञान अनमोल होता है पर सभी चकित थे कि अब मोक्ष भी नीलामी से मिलेगा।
एक धनी युवक ने सबसे ऊँची बोली लगाकर किताब खरीद ली। रात भर उसने किताब पलटी , उसे पढ़ा । स्वर्ण मुद्रित सजे हुए शब्द तो बहुत थे,पर शांति कहीं नहीं थी। युवक के भीतर का खालीपन और गहरा होता गया । किताब उसे इसी लगी जैसे किसी ने सोने का आवरण दे दिया हो, पर अर्थ रिक्त छोड़ दिया हो।
अगली सुबह वह किताब लेकर वापस उसी स्थान पर आया। वहाँ अब भीड़ नहीं, केवल खुली धूप थी । एक बूढ़ा सफाईकर्मी कल के भव्य जलसे का फैलाव समेट रहा था। युवक ने उस से पूछ लिया , लेखक का दावा है कि इस "किताब में ब्रह्म ज्ञान लिखा है, फिर भी मुझे कुछ नहीं मिला। क्यों?"
बूढ़ा मुस्कुराया,
"बेटा, धूप देखी है? हवा महसूस की है? क्या कभी इन्हें खरीदकर अपनी जेब में रख पाए हो? ब्रह्म ज्ञान भी वैसा ही है। वह किताब के पन्नों में क़ैद नहीं होता, वह तो चेतना में जागता है। खरीदने से नहीं, समझ में आने से मिलता है।"
युवक ने धीरे से किताब वापस मेज़ पर रख दी और बाहर आकर पहली बार सचेत होकर गहरी साँस ली। उसे लगा जैसे हवा अब सचमुच उसके भीतर उतर रही है, और धूप केवल चकार्चौंध नहीं,अंतर्मन के ज्ञान पुंज का मौन संकेतक प्रकाश है।
15 करोड़ की किताब वहीं छूट गई, पर ब्रह्म ज्ञान की जो पुस्तक उस दिन उस युवक के मन में खुली, उसकी कोई जिल्द न थी, कोई कीमत न थी, पर हर पन्ना उसकी अपनी जागती हुई चेतना से स्वयमेव लिखा चला जा रहा था। यह किताब सचमुच अनमोल थी ।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
न्यूयॉर्क से
No comments:
Post a Comment