लघुकथा
बीती ताहि बिसार दे
विवेक रंजन श्रीवास्तव
गगन स्टेशन की बेंच पर बैठा था। हाथ में लिफ़ाफ़ा था , जिसे खोल कर अब तक वह जाने कितनी बार पढ़ चुका था, उसे स्वयं भी याद नहीं । राधा उसे छोड़ अपने पिता की पसंद के लड़के से विवाह कर बिदा हो चुकी थी । विवाह की रस्मों के बीच किसी तरह वह गगन के हाथों में यह लिफ़ाफ़ा थमा कर , अपना लंहगा संभालते हुए तेज कदमों से बिना पीछे देखे चली गई थी ।
तब से राधा का यह आख़िरी पत्र संभाले , गगन मायूस , बिलकुल अकेला रह गया था। गगन ने जैसे जीवन की रफ़्तार ही रोक दी थी । दोस्तों से दूरी बना ली, और अतीत के साये में खोया रहता था।
आज अचानक स्टेशन पर बैठा , जब वह गुमसुम राधा का पत्र अलट पलट रहा था, उसकी निगाह पीछे वेटिंग रूम में लगी एक बड़ी सी सीनरी पर जा टिकी ।
उसने गौर से चित्र को देखा ,उस पेंटिंग में सूरज उग रहा था, पेड़ों से रोशनी छन रही थी, और घुमावदार सड़क पर एक व्यक्ति रोशनी की ओर कदम बढ़ाए हुए था । पीछे कुछ पत्ते गिरे पड़े हुए थे।
गगन ने मन ही मन एक निर्णय लिया। लिफ़ाफ़ा देखा, फिर उसे स्टेशन के कूड़ेदान में डाल दिया , वह प्लेटफार्म से बाहर आ गया। वह समझ चुका था, जीवन अब भी आगे बढ़ना चाहता है। राधा भी तो शायद यही चाहती थी।
वह पूरब की दिशा में चल पड़ा था। अपने बालों को सँवार, गगन ने खुद से कहा..
“बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध ले।” और तेज कदमों से नई ऊर्जा के साथ वह ऑफिस की तरफ बढ़ चला ।
विवेक रंजन श्रीवास्तव
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